शुक्रवार, 31 अगस्त 2012

आपकी बेटी के पास गर्भाशय तो है न !!!

बहन जी/भाई साहब आपकी बेटी के पास गर्भाशय तो है न !!!

घोटाला , करप्शन , स्कैम सुनते सुनते माथा पक गया है । कभी-कभी दिमाग झल्ला उठता है तो लगता है होने दो साले को , कुछ तो कहीं हो रहा है।... लेकिन मंगल ग्रह का मामला होता तो चलो जाने दो कह के चाय की चुस्कियों में डूबते-उतराते, लेकिन मामला पास-पड़ोस का है... आंखों को कब तक ताखे पर रखा जाए। यहां तो साला क्या आकाश (स्पेक्ट्रम) , क्या पाताल (कोयला ) सबको लोग-बाग बेचने में लगे है , मानो मंगल का हाट है शाम-रात तक बेचकर रफूचक्कर होना है। समस्तीपुर मेरा गृहजिला है , कई रिपोर्टें देखी है कि डॉक्टरों और अधिकारियों ने मिलकर हजारों गर्भाशय निकाल लिए... लिंगभेद का आरोप न लगे इसलिए केवल महिलाओं के ही नही बल्कि ढूंढ़-ढ़ांढ़ कर 12 पुरुषों तक के गर्भाशयों को भी अपनी चपेट में ले लिया उन्होंनें। पहले किडनी चोरी का हो-हल्ला था , डर इतना कि हॉस्पीटल से डिस्चार्ज होने तलक लोग-बाग सर से पांव तलक टटोल लेते कही कुछ गायब तो नही है ,कोई सिलाई-विलाई तो नही है , धागे का कोई छोर शरीर से बाहर तो नही लटक रहा । खैर बात समस्तीपुर और बिहार की ... बीमारी का भूत दिखाकर डॉक्टरों ने 16000 गरीब महिलाओं का गर्भाशय गायब कर दिया (अधिकांश रिपोर्टों में अधिकांश मामले संदेहास्पद की ओर ही इशारा कर रहे हैं , कुछ जेनुइन भी हो सकते हैं) । वजह इंश्योरेंस के पैसे को गड़प करना था। मेडिकल सांइस की ज्यादा जानकारी तो नही है लेकिन मेरे क्षूद्र भेजे में अब तक समझ नही आया कि गर्भाशय ही क्यो ? हो सकता है शायद गर्भाशय का भी ट्रांसप्लाट होता हो या फिर उन्हे फॉरेन एक्सपोर्ट कर दिया जाता हो। खैर अपना कंसर्न यह नही है , वैसे डॉक्टरों और क्लिनिकों ने सरकार पर 12 करोड़ का बिल ठोक दिया। हालांकि आंकड़ों के आकलन में नौसिखिया जैसा हूं लेकिन मैने सोचा आखिर चपत कितने की लगी है , अपने तई कुछ जोड़-घटाव-गुणा-भाग किया जाए। बीते कुछ महीने-सालों से कैग का हो हल्ला है और प्रीजंपटिव लॉस का जिक्र ही माहौल को खलबला देता है। गणित का कोई ज्ञाता नही हूं लेकिन बारहवीं तक पढ़ी है। मेरे दिमाग में ख्याल आया कि ऐसे में जबकि कोल और स्पेक्ट्रम की ठेलाठेली में किसी के पास फुरसत नही है तो कही प्रीजंपटिव लॉस के प्रीविलेज से गर्भाशय घोटाला सम्मानित होने से न बच जाए। देखिए मेरी आगे की कोशिश सामान्य गणित का सामान्य छात्र होने की है ।विशेषज्ञों को आपत्ति हो सकती है और होगी तो जायज ही होगी । खैर आंकड़ों के अभाव में कुछ चीजों को मोटा-मोटी मान लेते हैं , वैसे अगर किसी के पास कोई परफेक्ट आंकड़ा हो तो बता दे एकुरेसी का भला हो जाएगा । खैर इस दुर्घटना की शिकार यंग, ओल्ड और अंडरएज महिलाओं को मिलाकर मान लिया जाए कि इसकी शिकार एक महिला की औसत आयु 25 थी तो फिर बात आगे बढ़ाई जाए। जैसा कि सर्वविदित है प्रजनन योग्य आयुवर्ग के तहत विकासशील देशों में 15-44 उम्र की स्त्रियों को लेते है और भारत में औसत जीवन प्रत्याशा 64 साल के करीब है। देखिए मैं पहले ही बता दूं कि मैं जो कर रहा हूं , उसमें त्रुटियों की आशंकाएं पूरी पूरी है और संशोधनों की पूरी-पूरी गुंजाइश। खैर 25 साल से 44 साल के बीच एक महिला 19 बच्चे अधिकतम जन्म दे सकती है (कभी-कभी जुड़वा बच्चों के जन्म को यहां कंसीडर नही कर रहे हैं) । चूंकि गर्भाशय निकालने के अधिकांश मामले या कहे तो लगभग पूरे के पूरे ग्रामीण इलाके के बीपीएल तबके का ही प्रीविलेज मालूम होता है तो इस न्यायपूर्ण व्यवस्था में इस बात की लगभग पूरी-पूरी उम्मीद है कि ये संभावित बच्चे राष्ट्र निर्माण को अपनी मजदूरी के जरिए मजबूती देगें... और यदि मान लिया जाय कि ये अजन्मे बच्चे 14 साल बाद मनरेगा से जुड़ते है और फिर इसके साथ अपने रिश्तों को इतना प्रगाढ़ कर लेते है कि मृत्यु ही इन्हें मनरेगा से इन्हें मुक्त करती है तो बात अब आगे की कि जाय ।अब चूंकि केवल 100 दिन ही इसके जरिए इन्हें रोजगार मिलना है तो फिर आखिर कितने पैसे ये कमा लेते। मैने सोचा क्यूं न पहले एक सिंपल सा गुणा-भाग कर लूं। 

16000x19x50x100x150 = 40,00,00,00,00,000 

देखिए ये रकम 50 सालों में प्रतिसाल केवल सौ दिनों की है और उसपर भी न्यूनतम मजदूरी । फिर आने वाले पचास सालों में मजदूरी भी कुछ न कुछ बढ़ेगी ही और फिर शायद कुछ दिन भी। फिर बाकी के दिन भी तो कुछ न कुछ कमाएंगें ही। एक बात और बिहार में अभी मुख्यतया तीन चार जिलों के ही मामले सामने आए है । यानि आशंका इस बात की है कि अकेलें बिहार में ही ये लाखों करोड़ों के नुकसान का मामला बनता है , पूरे देश को याद करके तो घिग्घी ही बंध जाती है।
क्या कोल और क्या स्पेक्ट्रम, सबकी इज्जत पानी में मिलाने की कूबत है इसमें।

पोस्टस्क्रिप्ट- पुरुषों में गर्भाशय ढ़ूंढ़ निकालने वाले सम्मान के पात्र है, जीव विज्ञान और चिकित्साविज्ञान को शायद नयी ऊंचाइआं मिले इससे ... और समाजशास्त्रियों और नृतत्वशास्त्रियों को भी नया रोजगार मिल जाएगा , स्त्री-पुरुष संबंधों को भी नए सिरे से व्याख्यायित करना होगा । विज्ञान और समाज विज्ञान दोनों को ही मूलभूत परिवर्तनों से जूझना होगा। एक बात और शादी ब्याह के समय पूछे जाने वाले सवालों में कुछ नए सवाल जुड़ सकते है। मसलन लड़के वाले पूछ सकते है कि आपकी बेटी के पास गर्भाशय तो है न , वही गर्भाशययुक्त पुरुषों को बिना गर्भाशय वाली महिलाओं की तलाश में जुटना होगा।

मंगलवार, 21 अगस्त 2012

'यथार्थ' की फैक्ट्री से भ्रम की पैदावार

पटना-बनारस के परिचित परिवेश से बाहर निकलकर दिल्ली आया तो कई कहानियों से जूझना पड़ा। एम ए पॉलिटिकल साइंस के एक सहपाठी ने पूछा कि सुना है पटना स्टेशन के बाहर लोगों को गोली मार दी जाती है। सुनकर एक साथ मन में विपरीत चरित्र वाली कई हिलोंरें बाहर निकलने के लिए कम्पीट करने लगी ... हंसा जाय , रोया जाय या फिर गुस्सा किया जाय। कुछ दिनों बाद एक व्याख्यान के सिलसिले में नरेंद्र कोहली को सुनने को मिला। इसी तर्ज के एक वाकये को याद कर वो पश्चिम जगत के भारत से जुड़े भ्रम के बारे में बता-समझा रहे थे। उनकी पत्नी किसी सिलसिले में अमेरिका गयी हुई थी। एक अमरीकी महिला ने उनसे कहा कि सुना है भारत में औरतों को जिंदा जला दिया जाता है (उनका मतलब सती प्रथा से था) । उनकी पत्नी ने जवाब दिया- हां एक मैं ही बची थी, इसलिए भागकर अमरीका आ गयी। ऐसे वाकये हममें से कईयो ने अक्सर देखा-सुना होगा । हालांकि इसमें कोई शक नही कि कानून-व्यवस्था की हालत की तारीफ नही की जा सकती, लेकिन इसमें भी कोई शक नही की ऐसी मान्यताए सच्चाई की हद से परे हास्यापद ही है। दोस्तों के साथ अक्सर होने वाली चर्चाओं-बहसों में अक्सर इस मुद्दे पर टंटा खड़ा हो जाता। लोग-बाग जहां अक्सर बिहार को अराजकता का पर्याय मानते वहीं मेरा जोर इस बात पर होता कि बिहार भी बाकियों से कुछ अलग नही। थोड़ा ऊंच-नीच का फर्क हो सकता है , बाकी उससे ज्यादा कुछ नही ।कुछ दिनों पहले दोस्तों के साथ गैंग्स ऑफ वासेपुर देखना हुआ ... दोस्तों ने खूब तंज कसा कि देख लो अपना बिहार ... बहुत ऊछलते थे न ... और फिल्म भी कोई प्रभुदेवा की राउडी राठौर नही बल्कि धीर-वीर-गंभीर अनुराग कश्यप की है। अनुराग कश्यप यथार्थपरक सिनेमा के रचनाकार के रुप में चर्चित है... सत्य के संभवतम करीब तक जाने के लिए, अपने फिल्म से जुड़े शोध के लिए सराहे गए हैं... देश-विदेश में, अंग्रेजी-हिंदी में । दिमाग में पिछले तीन घंटों को रिवांइड मोड में डाला लेकिन बिहार को ढूंढ़ पाना मुश्किल ही लगा... गालियों की कई परतें उलटी-पलटी, गोलियों के ढ़ेर से टकराया ,लेकिन असफल साबित हुआ। वासेपुर के इस बिहार से मैं अपरिचित था। वासेपुर हिंसा के रोमांस का चरम है जिस पर जबरदस्ती बिहार की जिल्द चढ़ा दी गयी। वैसे अनुराग कश्यप वासेपुर का नाम गालीपुर या गोलीपुर रख देते तो बेहतर होता । एकबारगी अंधों के झुंड और हाथी की कहानी याद आ गयी। जिसने जो भी महसूस किया हाथी को वैसा ही डिफाइन कर दिया। मेरे कहने का आशय यह नही कि इन्हीं अंधों में से एक अनुराग कश्यप है, लेकिन उन्होंने या तो बाकियों को अंधा समझ लिया है या फिर उन्हें अंधा बनाने की ठान ली है।

शनिवार, 18 अगस्त 2012

इस शहर का पता क्या है

भाई साहब/बहन जी ... इस शहर का पता क्या है ?

कुछ दिनों पहले एक सवाल से सामना हुआ , जवाब सूझते न बना , दिमाग मानो जड़ हो गया... बनारस में कहां जाउं , क्या देखूं , क्या खाऊं... आखिर क्या बताया जाय, क्या छोड़ा जाय , क्या जोड़ा जाय ... आपाधापी में एक लिस्ट बनायी , तमाम काटपीट की ... भरमाते मन से लिस्ट मैसेज कर दिया लेकिन सवाल मन पर एक और गिरह गांठ गयी ... बनारस में पूरे तीन साल रहा हूं ... बीएचयू, लंका, अस्सी , गोदौलिया , मैदागीन यानि बनारस की पूरी लंबाई-चौड़ाई भर में खूब टंडेली की है ... गाहे-बेगाहे संकटमोचन के लड्डू खाए है , पहलवान का लौंगलत्ता लपेटा है, कचौड़ी गली की कड़क कचौड़ी पर जीभ फेरा हैं ... यादें अनगिन हैं... बस किसी के छेड़ने भर की देर है कि छड़छड़ाने लगे, समय , जगह और दस्तूर की परवाह किए बगैर ।... लेकिन सच बताउं तो अगर कोई पूछे कि बनारस में क्या देखूं या और कहां जाऊं तो दिमाग में खुजली होने लगती है इतनी कि बी-टेक्स और इचगार्ड का मिक्सचर भी उसके सामने नतमस्तक हो जाए। सालों पहले मेरे एक मित्र बनारस आए और दो-तीन दिनों के बनारस प्रवास के बाद प्रस्थान की वेला में अंसतुष्ट दिखे तो अपने भीतर उनके लिए गुस्से को उमड़ता-घुमड़ता पाया। आज आठ सालों बाद फिर यह सवाल सामने आया ... जवाब देने से पहले सोचा रिस्क क्यों लूं... सामने वाले के मन को टटोलना जरुरी लगा । कभी-कभी लगता है कि शहर या किसी जगह की तलाश और खुद की तलाश का फर्क मामूली सा ही है । किसी के पसंद के शहर से या शहर के पसंदीदा कोने से किसी को डिफाइन किया जा सकता है। वैसे द वर्ल्ड इज फ्लैट को इस जमाने में किसी कोने, किसी पहाड़, किसी खाई की गुंजाइश कम ही रह गयी है। अब यह सवाल काफी मौजूं हो गया है कि यदि कोई शहर जाया जाय तो कहां जाया जाय , कहां उसे ढूंढ़ा जाय ... इमारतों में , नदी में , खाने-पीने की दुकानों में , फैक्ट्रियों में , सरकारी गलियारों में या फिर सड़कों पर। पहले लोग कहते थे कि बंबई उंची इमारत है, कलकत्ता हावड़ा ब्रीज है, दिल्ली लालकिला है ... अब क्या ये शहर अब भी इसी पते-ठिकाने पर है ... लालकिले और हावड़ा ब्रीज पर लोगों को फिकरा कसते सुना है और उंची इमारतें तो अब हर गली में , चौक-चौराहे पर उगने लगी है । गंगा-यमुना-गंडक समान रुप से बीमार करने की क्षमता से लबरेज है। रोम का पिज्जा अब मुसल्लहपुर हाट के ठेले पर समोसे का पड़ोसी बना बैठा है। अंकल चिप्स की पन्नी केम्पटी फॉल में नहाते वक्त आपके पैरों से उलझ पड़ती है और महानगरों की गोद के किसी कोने में एसेल पार्क में झरने का आनंद लिया जा सकता है। ऐसे में शहर की तलाश में निकले मुसाफिर के लिए कस्टमाइज्ड बोर्ड की जरुरत आन पड़ी है कि अलां प्रकार के मुसाफिर इधर जाए और फलां प्रकार के मुसाफिर उधर जाएं।