मंगलवार, 25 दिसंबर 2012

कुहासा

कुहासे की ठेलमठाल 
और खून को गर्म करता
सर्द सच
झूठ के कई चेहरे हैं
कुछ सच की खाल में
जैसे की भेड़ की खाल में भेड़िया
और कुछ सच 
जिसके साथ कुछ किंतु-परंतु हैं
कुछ इतिहास की करतूत
कुछ वर्तमान की पैदावार
सच और झूठ के बीच
न्याय त्रिशंकु की तरह हवा में लटका है
दिमाग और दलदल का फर्क मिट गया है।

शनिवार, 22 दिसंबर 2012

अभी भी वही !!!

आप सुबह उठते हैं
अलार्म की किर्र-किर्र से
या कह सकते हैं कि कैक्टसी सपनों की जद में आने पर
वैसे भी गुनगुने गुदगुदाने वाले सपने अब आपको आने से रहे
और कहां अब किसको किसकी फिक्र है
रात दिन में घुस गया है 
और दिन, रात की चौहद्दी में सेंध लगा चुका है
सपनों को इस बात की फिक्र कहां 
कि कम से कम नींद में तो बन-संवरकर आए

आप चौराहे को निकलते है
चाय की तलाश में
सर पर चढ़ आयी रात को झटकने
कुछ चेहरों से दो चार होते है
कुछ जिनसे आपकी जान-पहचान होती है ... हाय-हैलो...
कुछ जिनसे आप परिचित होते है
जो रोज इसी पहर रात से किनाराकशी के चक्कर में
यही मंडराते मिलते है
मानो आपका ही इंतजार कर रहे होते हैं
एक चेहरा आपसे टकराता है
-और क्या चल रहा है इन दिनों ?

चाय को सुड़कते आपके चेहरे पर
गंभीरता की एक गाढ़ी परत और चढ़ जाती है
बाकी चेहरे जो अगल-बगल अब भी तैर रहे होते हैं
अनमने से ... चाय की प्याली लिए...
अचानक से उनकी नजरें आपके चेहरे पर टिक जाती है
उनके कान सजग हो जाते हैं
सब मानो आपके जवाब की प्रतीक्षा में हों
आप कहते हैं - बस वही।

सवाल करने वाले चेहरे पर आश्चर्य के भाव तैरते हैं
और थोड़ी हंसी भी - अभी भी वही ?
प्याले को कचरे के डब्बे में फेंकतें हुए
आपका पूरक जवाब होता है - हां अब भी वही।
बाकी चेहरे फिर से चाय की प्यालियों पर जुट जाते हैं
अपने-अपने तालाब से निकलने को
हाथ-पांव मारने में जुट जाते हैं।

और आप अपने सर को झटकते
वापस अपने कमरे की ओर मुड़ जाते हैं
रात को जल्द से जल्द झटकने।

शुक्रवार, 21 दिसंबर 2012

फिर वही रात-दिन ...

कल सुबह नही बदलेगी
बस मुद्दे बदल जाएंगे
फिर वही रात आएगी
हम नर और मादा हो जाएंगे
अगड़े-पिछड़े हो जाएंगे
शहर-गांव बन जाएंगें
ऑफिस-खेतों में गुम जाएंगें
अंग्रेजी-हिंदी हो जाएंगें
थोड़ी फुरसत में
सरकार और बाकियों को गरियाएगें
चाय-चुक्कड़ में डूब जाएंगें।

गुरुवार, 20 दिसंबर 2012

हमें फिर से इसे गढ़ना होगा ...

आंखे नदी हो जाए
भीतर के रक्त और पानी को समेट बहा ले जाए
और जो भी गंदला तरल हो

ह्रदय तप्त हो जाए ... इतना कि...
इसकी दीवारें आपस में रगड़ खाकर
खुद को भभका-जला उठे

नथुने फैल जाएं
अंतड़ियों-फेफड़ों में अटकी हवा
उगलकर बाहर कर दे

हाथें हथौड़ा हो जाएं
और बाकी का शरीर
सर से पांव तक का 
हो जाए पाषाण में परिणत
हथौड़े की चोट 
इस पाषाण को चटकाए 
चूर्ण में तब्दील कर दे
वैसे भी आखिर बचा क्या है ?

जिन भी मूल तत्वों से यह शरीर और मन बना है
वो सब अपने-अपने स्त्रोत को वापस हो जाएं
हमें फिर से इसे गढ़ना होगा ...

मंगलवार, 18 दिसंबर 2012

सभ्यता गणित है...

क्या किया जाए 
क्या कहा जाए
क्या सुना जाए
क्या देखा जाए
कब कान खोली जाए

कब आंखे बंद की जाए
कब खामोश रहा जाए
कब कहां क्या बरता जाए
अपनी सुविधा के तमाम समीकरणों पर
तोल-मोल कर , नाप-जोख कर
हम अपनी भाव-भंगिमा
अपने हाव-भाव,अपने कार्यकलाप तय करते हैं
और हम सभ्य होने का दंभ भरते हैं।
हमारा रोजनामचा
हमारे सभ्य होने के पीछे के
जोड़-घटाव, गुणा-भाग की गवाही देता है
हम सभ्य है
और सभ्यता की ओट पाए इस गणित के मरीज भी।

रविवार, 16 दिसंबर 2012

गुमशुदा लोगों की लंबी होती लिस्ट

जब आप सुबह उठते हैं
ब्रुश-पेस्ट से लेकर साबुन मलते हैं
जबड़े तले कुछ चबा कर

ऑटो, मेट्रो या फिर अपनी-अपनी गाड़ियों में
अपने ऑफिसों का रुख करते हैं
रेडलाइट की रुकावट पर खीजते हैं
बढ़ी हुई आबादी , आगे वाले की बेवकूफी
और पीछे से आती पों पों पर सुलगते हैं
ऑफिस के कंप्यूटर पर रह रह कर आंखे तरेरते हैं
दर्जनों चाय और कॉफी की प्यालियों में
भीतर के कसैलेपन को घोलने की असफल कोशिश करते हैं
फिर शरीर के तमाम कलपुर्जों को समेटकर
घर वापस आते हैं
दोस्तों के साथ दर्द बांटते हैं
या फिर उनका दर्द बढ़ाते हैं
टीवी चैनलों पर सास-बहू के झगड़े
और जेठालाल की बेवकूफियों में खुशी तलाशते हैं
और फिर रात-सुबह-शाम के उसी चक्र में गुम हो जाते हैं
यदि यह नॉर्मल होना है
तो फिर एबनॉर्मेलिटी क्या है ?
खैर गुमशुदा लोगों की फेहरिस्त नॉर्मल इंसानों से भरी-पूरी दिखती है।

गुरुवार, 13 दिसंबर 2012

तो इसमें नया क्या है ?


हंसने का मतलब हमेशा खुशी नही होती
हमेशा दर्द और जख्म ही आंसू नही पैदा करते
कुछ हंसोड़ होते हैं
बेसाख्ता हंसते मिलते-पाए जाते है
बिना किसी वजह के
आप उन्हें पागल कह सकते हैं
और खैर खुशी के आंसुओं के बारे में हमने सुना ही है
बिछड़े रिश्तेदारों से मिल पाने की खुशी
बिछुड़े जमीन पर फिर से पांव पड़ने का उल्लास
ट्रॉफी को जीतने का उन्माद
आंसूओं के अविरल प्रवाह में भी तब्दील होता है
कल जब क्लास में
शिक्षक महोदय को पराजीनी इंसान की कल्पना करते सुना
कि हंसी का जीन दर्द में भी हंसी पैदा करेगा
और दर्द और आंसू का जीन खुशी में भी चेहरा गमगीन रहेगा
तो एकबारगी लगा
कि इसमें नया क्या है ?


मंगलवार, 11 दिसंबर 2012

नींद के पार उम्मीद ...

जब दिमाग के नसों की दीवारें
रक्त के तेज प्रवाह से चोटिल होती हैं
या फिर निर्वात की स्थिती सी बन जाती है
नसों की तरावट पर शुष्कता भारी पड़ने लगती है 
आंखों के तंतु देखने की बजाय
सोचने की प्रक्रिया से जुड़ जाते हैं
कुछ अतीत, कुछ वर्तमान और कुछ भविष्य के
दृश्यों-कल्पनाओं में उलझ जाते है
जब नींद बेहतर विकल्प लगता है
आप इसे पलायन कह सकते हैं

लेकिन एक उम्मीद भी जुड़ी होती है
कि शायद नींद के पार कुछ नया दिखे
कोई नया रास्ता मिले...

मंगलवार, 4 दिसंबर 2012

उम्र के गणित होने के खिलाफ ...

उम्र बढ़ती है , बढ़ती जाती है
उम्र घटती है , घटती जाती है
कुछ कहते है बढ़ रही है
विपक्षी खेमे वाले घटने का हो-हल्ला मचाते हैं
बढ़ने और घटने के भ्रम के पीछे
उम्र का आंकड़ा होना बड़ा सच है
उम्र आंकड़ा है
आधुनिक समय का रिवाज
जो दर्ज होती रहती है
जनगणना रिपोर्टों में
पोलियो, टिटनेस ,डिप्थिरिया
उम्र की दुरुस्ती के लिए अस्पतालों में दी जाने वाली टीकों के समय
शादी, जमीन और नौकरी के कागजातों में
भांति-भांति के प्रमाण पत्रों में
लेकिन सबसे महत्वपूर्ण है
उम्र का इतिहास में दर्ज होना
और उसके पन्नों के पलटने 
और हवाओं से उपजी उसकी खड़खड़ से निकलकर
 सांय सांय करना
धमनियों में प्रवाहित मंथर रक्त को गति देना
आंकड़े और इतिहास के बीच
उम्र की जद्दोजहद पहचान पाने की कबायद है
और होनी चाहिए ।