बुधवार, 21 अगस्त 2013

यात्राएं मूर्तिभंजक होती हैं ...

अपनी जिंदगी में अक्सरहां ही हम रुढ़ छवियों से बंधें होते हैं । उन छवियों के मुताबिक विचारते हैं , आचरण करते हैं। हर एक को एक खास शब्द-छवि दे देते हैं और उस पर अटूट भरोसे के साथ उत्तोरत्तर उस छवि को और गहरा करते जाते हैं । फिर अपनी पारिस्थितिकी में ही समान विचार वालों में उसके प्रतिबिंबों की मौजूदगी से उन विचारों-छवियों को वैध मान लेते हैं । यानि कि एक दुश्चक्र है जो कि अनवरत जारी रहता है जब तक की कोई घुसपैठ न हो। कह सकते हैं कि ज्यादातर मामलों में हमारी स्थिति कुएं के मेढ़क समान है... कूपमंडूक जैसी। हां एक चीज जो इस पर खासा चोट करती है - वो है घुमक्कड़ी , अपने परिवेश के बाहर का अनुभव।

संत ऑगस्तीन की मशहूर उक्ति है- पूरी दुनिया एक किताब है और जिन्होंने यात्रा नही की , उन्होंने इसका केवल एक ही पन्ना पढ़ा है। यात्राएं अक्सर अपने पालतू विचारों को चुनौती देती हैं या कहें कि जिन विचारों के आप पालतू जीव होते हैं, उनकी रुढ़ता की जड़ में मट्ठा डालने का काम करती है। इन्हीं रुढ़ विचारों में से एक है- देहाती गंवार-बेवकूफ होते हैं जबकि शहरी चालाक। ऐसे मूर्तिवत विचारों की फेहरिस्त लंबी हैं, लेकिन चर्चा इस बार इसी प्रतिमा की।

चतरा में चाचा जी से भेंट

सरकार के नक्सल-विरोधी अभियान की कवरेज के सिलसिले में एक बार झारखंड जाना हुआ। लोगों के बीच इसकी प्रतिक्रिया जानने के सिलसिले में चतरा के एक गांव में था। कई लोगों से बात हुई। आस पास काफी तादाद में लोग जुटे थे। बिल्कुल नया-नया मैदान में था। बातचीत की टोन और चेहरे-मोहरे से मेरा बिहारी होना साफ झलक रहा है। लोगों से बात कर ही रहा था कि एक बुजुर्ग से शख्स ने अचानक से एक सवाल पूछा- सर कहां के हैं आप ? मैने कहा बिहार से। इतने में उस शख्स के चेहरे पर मुस्कान का तूफान उमड़ने लगा , मानो मन में मंडराते उसके विचारों की पुष्टि हो गयी हो। कहा कि अरे आप तो हमारे भतीजा हैं ! इतने लोगों के बीच मैं हैरान । मैने अपनी शंका उछाली- कैसे ? शख्स का जबाव मिला- अरे पहले बिहार और झारखंड तो एक्के था न , हम और आपके पिताजी भाई-भाई हुए कि नही ?

बथनाहा का बहुरुपिया
साल 2008 की बात है। बिहार के एक बड़े हिस्से में बाढ़ धधक रही थी। कवरेज के लिए पूर्णिया जाना हुआ। पत्रकारिता में उस समय नया-नया था, दूध के दांत तब तक अपनी जगह जमे थे। बाढ़ कवरेज का पहला दिन था। पूर्णिया शहर से कुछ किलोमीटर दूर बथनाहा राहत शिविर की रिपोर्ट बनाने के सिलसिले में वहां पर था। अचानक से एक काफी बुजुर्ग शख्स ने मुझे पकड़ लिया। कहने लगे कि आपको चलना ही होगा, कोई नही गया है हमारे तरफ... और भी लोगों से कह-कह कर थक गया हूं। बहुत ही बुरा हाल है हमारे यहां, बस 10-12 किलोमीटर पर है। मैनें कहा- ठीक है चलिए। अब वो सज्जन हमारे साथ सूमो में , और उनके साथ के कुछ लोग पीछे बाइक से। खैर वहां से निकला तो 10-12 किलोमीटर न जाने कब पीछे छूट गए। पहले मुख्य सड़क , फिर छोटी सड़क, फिर कच्ची ... गांव अभी भी उन सज्जन के शब्दों में कुछ ही दूर पर था। अब तो खैर आगे जाना और भी मुश्किल था , गाड़ी बमुश्किल ही आगे जा रही थी । एक दो बार तो गाड़ी के रास्ते के लिए पीछे बाइक से आ रहे सज्जनों ने रास्ते पर मिट्टी काटकर भी भरा। कड़ी धूप में सब पसीने-पसीने । सूमो में बैठे सज्जन रास्ते भर बाढ़ से लेकर ब्रह्मांड की समस्याओं से मुझे अवगत कराते रहे। शायद गांव के मंदिर में पूजा-पाठ की पार्टटाइमिंग भी करते थे। खैर हम किसी तरह बचते-बचाते गांव पहुंचे... पतली सी कच्ची सड़क के दोनों तरफ सैकड़ों लोग बिखरे पड़े थे। अस्थायी झोपड़ियां बनी थी और मैले कपड़ों में बच्चों से लेकर बुजुर्गों की अच्छी-खासी संख्या धूप-पानी-भूख से संघर्षरत थी। आगे सड़क कटी हुई थी और कोसी भटककर यहां प्रवाहमान थी। मैं अभी अगल-बगल माहौल भांप ही रहा था कि इतने में सूमो में मौजूद शख्स फटाक से निकले और कमर भर पानी में चले गए। अभी तक जो शख्स पूरी तरह नॉर्मल दिख रहा था, मेरे साथ सामान्य तरीके से बातचीत कर रहा था , अचानक से पानी के बीच आंसू उगलने लगा। मैं हैरान-परेशान । लोगों की अच्छी खासी भीड़ पानी के भीतर और पानी से बाहर उसके चारों तरफ जमा होने लगी। वह आदमी लगातार मेरी तरफ देखे जा रहा था और रोए जा रहा था और इस रोने और देखने के बीच बोल भी रहा था। दरअसल उसके निशाने पर गांव का मुखिया था। उसके मुताबिक गांव के मुखिया ने राहत-सामग्री हड़प ली थी । इऩ आरोपों के बीच उसकी अतिनाटकीयता और अचानक से उसकी भाव-भंगिमा के बदलाव ने कुछ सेकेंडों के लिए मेरी चेतना लुप्त कर दी । जब होश आया तो उस गांव के राजनीतिक प्रपंच में खुद के उपयोग किए जाने का अहसास हुआ।


1 टिप्पणी:

  1. मेरा तो यही मानना है कि कही कुछ धधक रहा हो, वहां नहीं जाना चहिये. जहाँ बाढ़ ही धधक रहा हो वह तो कभी भी नहीं जाना चहिये.

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