शनिवार, 20 मई 2017

घूमते रहो ...

स्लिप डिस्क की गिरफ्त से कमोबेश निकलने के बाद दिल्ली से बाहर की यात्रा का यह पहला अनुभव था । हर अनुभव व्यक्तित्व को समृद्ध ही करता है। स्लिप डिस्क से दो महीनो तक लगातार जूझना भी काफी कुछ सिखा गया । शरीर भले ही बिस्तर पर पड़ा रहता हो लेकिन मन को तो नही बांधा जा सकता । मन की उड़ान पर कौन सी बंदिश लग पाती है। दरअसल हम हर क्षण हर पल किसी यात्रा पर ही होते है ।

    हम एक साथ न जाने कितनी यात्राओं को खुद में समेटे हैं- ज्ञात-अज्ञात । हमारी जिंदगी भी असंख्य समांतर और आरी-तिरछी प्रवाहित यात्राओं में से एक है या कहें तो यात्राओं का समुच्चय है, गुच्छा है । यात्रा अनगढ़ को गढ़ने की, तराशने की प्रक्रिया है । हरिद्वार के पास गंगा की कई धाराएं है, जिनमें कुछ के तल सूखे है ,भांति-भाति के आकार-प्रकार के छोटे-छोटे गोलाकार चिकने पत्थरों से पटे हुए। इन पत्थरों के चिकनेपन और आकार-प्रकार के साथ इनकी यात्रा भी चिपकी हुई है । अनगढ़, रुखे पत्थरों ने गंगा की लहरों के साथ एक लंबी यात्रा की यात्रा के बाद हरिद्वार में सुस्ताने के क्रम में गंगा में अपनी परछाई देखी होगी तो उन्हें भी अपने बदले कलेवर पर अचंभा हुआ होगा।

   यात्रा के दौरान जीवन के विभिन्न और नए-नए आयामों से हम परिचित होते हैं। नदियों की गति, पहाड़ की ऊंचाई, समंदर की गहराई , धूप की तपिश, जंगलों की नरमाई सब यात्रा के विभिन्न पड़ावों पर हमसे दो-चार होते हैं और हमें नए अनुभवों से लबालब कर जाते हैं। जीवन को अनन्त यात्रा ही कहा गया है...  और मनुष्य का इतिहास यात्राओं का इतिहास ही तो है । बचपन से लेकर मृत्यु तक हम यात्रा ही तो करते हैं,  पुत्र से पति और फिर पिता में तब्दील हो जाते हैं। यात्रा की इस अनवरत प्रक्रिया में हमेशा कुछ ग्रहण करते हैं और कुछ त्यागते हैं, और यही जोड़-घटाव ही तो जीवन है।

   दिल्ली से हरिद्वार रिषिकेश के लिए निकल रहा था तो आइटीनरी में कुछ चीजें पहले से तय थी- मसलन हर की पौड़ी पर की आरती का अनुभव करना, चोटीवाले के यहां खाना खाना, राम झूला-लक्ष्मण झूला पर चहलकदमी करना। हरिद्वार पहुंचते-पहुंचते लगभग दिन का एक बज गया। प्लान बना कि चलो सीधे रिषिकेश चोटीवाले के यहां ही चला जाय। सालों पहले गया था और अनुभव ठीक-ठाक ही था। लेकिन इस बार चोटीवाले ने दिल पर चोट कर दिया । खाना औसत से भी खराब और पैसा कहीं से भी कम नही ।मन मार कर और खाने को पेट में झोंक कर बाहर निकले। बस संतोष इस बात का था कि बाहर बैठे चोटीवाले के साथ दो-तीन सेल्फी ले ली। कितना मन बनाकर गया था लेकिन मन मसोस कर बाहर निकलना पड़ा।

   चोटीवाला के यहां से  बाहर निकलकर घाट के किनारे लग गया। मां गंगा अपनी पूरी रफ्तार पर थी। धूप ठीक-ठाक थी लेकिन पानी में ठंडक थी। हम भी पैर लटकाकर इस ठंडक को बटोरने में जुट गए, जब तक कि धूप ने हमें उठने को विवश न कर दिया। कुछ देर तक लोगों को मोटरबोट के जरिए इधर से उधर जाते देखता रहा। कभी-कभी निगाह दूर राफ्टिंग करते लोगों पर चली जाती । फिर मन में पिछली बार की राफ्टिंग की सुनहरी यादें खुद-ब-खुद तैरने लगी । अभी-अभी तो स्लिप डिस्क को मैने बाय-बाय ही किया था ऐसे में राफ्टिंग के बारे में सोचना भी गुनाह से कम न था।

    घाट से उठकर हम राम झूला की तरफ चल गए। लोहे की रस्सियों से तना यह पुल रह-रह कर हिलने लगता , लेकिन डरने जैसी कोई बात नही। दूर लोगों का एक झुंड किस विदेशी जोड़े को पकड़ कर उसके साथ फोटो खिंचवाने में जुटा थ। प्लीज फोटो... वन फोटो। चेहरे की चमक इतनी मानो फोटो खिंचवाने की बजाय कोई मेडल मिलने वाला हो। पता नही हम भारतीयों की यह आदत कब सुधरेगी । रिषिकेश में अभी भी वो सीमेंट की बेंचें दिखी जिसपर लिखा होता है कि कि फलां ने फलां की स्मृति में इसका निर्माण किया। पिछली बार भी इसे नोटिस किया था। अब के समय मे इस तरह का दान-पुण्य होता है क्या ?  
    
   रिषिकेश के बाद सीधे होटल और फिर फ्रेश होकर सीधे गंगा किनारे। रास्ते में बारिश होने लगी और माहौल थोड़ा खुशगवार हो गया। हर की पौड़ी के नजदीक ही एक भवन पर लिखा देखा –बाबरी भवन। इसके पीछे की कहानी जानने की जिज्ञासा तो हुई लेकिन आरती छूट जाने के डर से वहां ठिठक ही पाया, रुक नही पाया। जिज्ञासा को पीछे झटककर आगे बढ़ना पड़ा।  (क्रमश:)

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