बुधवार, 25 सितंबर 2013

गोलघर , तुम तो धोखेबाज निकले …

ईस्ट इंडिया कंपनी के इंजीनियर जॉन गार्स्टिन ने शायद सपने में नही सोचा होगा कि उसकी गलती को पटना अपने सर-माथे उठा लेगा। वारेन हेस्टिंग्ज भी नरक में बैठा हंस पड़ेगा, जब उसे मालूम होगा कि हजारों साल के समृद्ध इतिहास को समेटे पाटलिपुत्र की पहचानों में उसके द्वारा बनवाया गया अनाज का वो गोदाम भी है जो उसने सेना के लिए अनाज जमा करने के मकसद से बनवाया था । ... और खैर मेगास्थनीज तो अपना सर ही पीट लेगा , जो चंद्रगुप्त मौर्य के काल में पाटलिपुत्र पहुंचा और मगध की राजधानी की ठाठ-बाट देखकर दंग रह गया ।  आखिर आप ही बताइए दिल्ली का कुतुब मीनार और लाल किला , आगरा का ताजमहल , कलकत्ता का विक्टोरिया की तर्ज पर पटना की पहचान गोलघर से हो ,कितना जायज है।

जॉन गार्स्टीन
बचपन की बात है । जी. के. की किताबों में मन खूब रमता था। रट्टा मारकर राज्य राजधानी रटने से सफर जो शुरु हुआ वो अब भी बदस्तूर जारी है। समय के साथ सामान्य ज्ञान (जी के) की किताबें भी बदली। पहले वीणा बिहार दर्पण की जगह उपकार मिनी सामान्य ज्ञान , और फिर उपकार डायजेस्ट और फिर भारी भरकम सामान्य ज्ञान दिग्दर्शन और आगे न जाने कितने अगड़म-बगड़म । यानि बाहर की अनंत दुनिया ने शुरु से ही आकर्षित किया। लेकिन दो चीजें शुरुआत से ही जम गयी। पटना का गोलघर और कलकत्ता का विक्टोरिया। लेकिन तब दलसिंहसराय से बाहर की मंजिल या तो अपना पुश्तैनी गांव पान पतैली था या फिर नानीघर रोसड़ा यानि सारा मामला अपने जिले की चौहद्दी के भीतर का।

जब भी पटना दूरदर्शन पर शाम का बुलेटिन आता स्क्रीन पर गोलघर लटकता दिखता, रोजाना के इस दूरदर्शनी दर्शन के बीच गोलघर के लिए आकर्षण तीव्र से तीव्रतर होता गया। भांति-भांति की बातें सुन रखी थी इस मुए गोलघर के बारे में । सुन रखा था कि गोलघर पर चढ़िए तो पूरा पटना साक्षात दिखता है। हालांकि पटना कितना दिखता है , इस पर भिन्न-भिन्न संप्रदायों के अलग-अलग दावे थे। किन्हीं का आधा तो किंन्ही का पूरा दिखने का दावा , और वो भी पूरे प्रामाणिक आंकड़ों के साथ। इन्हीं परिस्थितियों में एक दूर के रिश्ते के जीजा जी अवतरित हुई , जिनके भाई साहब पटना में डॉक्टर बनने को कोशिशरत थे। मौका माकूल था , हम भी पटना गमन के लिए उनके साथ संलग्न हो गए।

अब पटना तो पहुंच गए लेकिन गोलघर ले जाने से हमारे जीजा जी मुकर गए। मामला सरासर धोखे का था, लेकिन आखिर फरियाद किससे की जाय। तीन-चार दिन गुजर गए। सामने के कब्रिस्तान को देख-देखकर दिमाग मुरझाने लगा। हालांकि इतना बड़ा कब्रिस्तान भी मेरे लिए किसी अजूबे से कम नही था। आखिरकार जीजाजी के भाई के रुम पार्टनर को मुझ पर तरस आ गया। एक दोपहर कब्रिस्तान को घूर ही रहा था कि अचानक गोलघर के लिए कूच के दिव्य वचन उनके मुख से फूट पड़े । कमरे के कोने में पड़ी सायकिल को पुचकारा गया। हैंडल और सीट के बीच की पाइपनुमा पर टंगकर न जाने कितनी गलियों से गुजरकर पहले गांधी मैदान और फिर गोलघर पहुंचा। गर्मी के दिन थे। धूप आसमान से बरस रही थी। मुश्किल से दर्जन भर दर्शनार्थी होंगें। कुछ सीढ़ियों पर, कुछ गोलघर के ऊपर तुलसी-चौरा जैसी बनी संरचना के इर्द-गिर्द और एक-दो मलाई बरफ वाले ठेले के आस पास धूप से झोंटा-झोंटी करते। बालू और ईंटें इधर-उधर बिखरी हुई थीं। धूप ने पहले ही दिमाग के तरल को सोख लिया था, लेकिन सालों से जो इच्छा मन में कुलबुला रही थी उसने इन कमजोर क्षणों में ग्लूकोन-डी की खुराक दी।

किसी तरह ऊपर चढ़ा , धूप का तीखापन त्वचा को पारकर हड्डियों तक पैठ गया। नजर इधर-उधर की, एक तरफ गंगा मैया लहरा रही थी तो एक तरफ गांधी मैदान पसरा हुआ था। तुलसीचौरा जैसी सरंचना पर शरीर टिकाकर गोलघर को महसूस करने लगा । इस स्तूपाकार संरचना के शीर्ष पर बैठा-बैठा इतिहास और वर्तमान को मथने लगा। फिर खुद ब खुद भीतर से सवाल फूटा- आखिर गोलघर की जिद किस लिए ? ठग लिये जाने का भाव दिल-दिमाग में उफान मारने लगा, जैसे आपने दाम तो दूध वाली कुल्फी के दिए हों लेकिन कुल्फी वाला आपको रंगीन पानी वाला थमाकर चला गया हो। आखिर क्या है इसमें ऐसा कि पटना की पहचान गोलघर से की जाय । पांव के अगल-बगल गुटखेबाजी के निशान जमकर थे। मधु और शिखर की पन्नियां बिहार में प्रचलित ब्रांडों का एलान कर रही थी। सीढ़ियां मरम्मत की मांग कर रही थी। गोलघर की दीवारें पुताई को तरस रही थी। अंदर जाने का दरवाजा न जाने किस जमाने से बंद था। अगल-बगल की हालत किसी दूरदराज के गांव के प्राइमरी स्कूल की याद दिला रहा था।


गोलघर के हाथों मिले इस धोखे ने मन खट्टा कर दिया । वो कहते हैं न, रहा भी न जाय और सहा भी न जाय , वही वाली बात हो गयी। यानि बिल्कुल शादी का लड्डू टाइप वाला मामला ठहरा , खाए तो भी पछताए और न खाए तो भी पछताए।

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