मंगलवार, 9 मई 2017

“किताबें करती हैं बातें...”

डीडी भारती पर एक कार्यक्रम आता था –किताबनामा। जिसमें किताबों और लेखकों की बातें होती। मुझे जो सबसे अच्छी चीज लगी वो थी उसका टाइटल-ट्रैक। जिसकी एक खुबसूरत पंक्ति थी- किताबें करती हैं बातें। सफदर हाशमी की लिखी ये लाइन जब भी कानों में घुलती, मन सच में काफी प्रसन्न हो उठता। किताबों से की गयी खुद की बातें जेहन में कौंधने लगती।

   जब भी कोई पाठक किसी कहानी, उपन्यास , कविता को डूबकर पढ़ता है तो एक तरीके से वो उस किताब को कुछ समय के लिए जीने लगता है। उसके पात्रों से संवाद करता है, खुद को उन पात्रों के रुप में कल्पना करने लगता है। कहानी में पात्रों की गति-दुर्गति के अनुरुप हंसने-रोने लगता है। उनकी किंकर्तव्यविमूढ़ता पर क्रोधित होता है । रोमांटिक उपन्यास हो तो पाठक प्रेम में डूबा नायक बनकर डूबता-उतरता है और आजादी के आंदोलन की पृष्ठभूमि हो तो उसकी भुजाएं फड़कने लगती है। कभी-कभार ऐसा भी होता है कि कहानी-उपन्यास तो वह कब का पढ़ चुका होता है लेकिन उससे निकलने में उसे एक अरसा लग जाता है। ऐसा भी नही ह सब कुछ कल्पना के स्तर पर ही होता है, उसका कुछ रिस-रिस कर हमारे व्यक्तित्व की परतों में भी समाहित होता जाता है।  हम अक्सर सफल व्यक्तियों के लेख पढ़ते हैं जिसमें वो जिक्र करते हैं कि किस तरह से कुछ किताबों ने उनकी जिंदगी पर गहरा असर डाला।

    किताबों का चस्का मुझे शुरु से रहा। चस्का कब और कैसे लग गया, मालूम नही। जरुरी नही कि हर चीज समझ में आए ही फिर भी कोई नयी किताब दिखने पर हाथ में ले ही लेता हूं। पहली किताब जो हाथ में आयी वो शायद मनोहरपोथी ही होगी। जहां तक याद हैं उसमें वर्णमाला का बोध कराने वाले शब्द थे, चित्र के साथ। बचपन में अक्सर नई किताबें कम ही हाथ में आती। बच्चें जब अपने से बड़ी वाली क्लास में जाते तो पुराने क्लास की किताबों को अधिया यानि कि अंकित मूल्य से आधे पर उन बच्चों को बेच देते जो कि उस क्लास में प्रवेश करते। पैसा तब अफारात में नही था इसलिए अभिभावक भी अधिया या तिहाई में ही बच्चों के लिए किताब खरीदने की कोशिश करते। नई किताबें तब ही खरीदी जाती जब पुरानी किताबें उपलब्ध नही होती, जिसके मौके कम ही आते थे। एक बार हुआ ऐसा कि पुरानी किताब के शुरु के कुछ पन्नें गायब थे। पापा ने फिर किसी और बच्चे के किताब से उन अध्यायों को सफेद पन्नों पर लिखा और उन पन्नों को पुरानी किताब के बाकी बचे पन्नों के साथ सील दिया।

    कोर्स की किताबों और कॉमिक्स के अलावा किताबों के नाम पर हमारा एक रुपए वाली क्वीज की किताबों से ही पाला पड़ा था। अक्सर बस या मिनी बस में जाते हुए या मेले-ठेले में यह किताब अवतरित होता। इस क्वीज बुक के सवाल भी अजीबोगरीब होते, मसलन- किस मछली के शरीर से करंट निकलता है, किस मछली के दो ह्रदय होते हैं, कौन सा पेड़ रात में चलता है टाइप। किताब बेचने वाला भीषण गर्मी में तरबतर इन इन सवालों की ऐसी मुनादी करता मानो कि अफ्रीका के रेगिस्तान से लेकर प्रशांत महासागर की लहरों के बीच से होकर अभी-अभी टाटा407 में अवतरित हुआ हो।

   एक बार हमारे मोहल्ले के बच्चों को बुक बाइंडिंग का शौक लगा। बुक बाइंडिंग एक तरीके से मोहल्ले में सक्रांमकता की हद तक फैल गया। कोई भी किताब दिखती हम उसे बाइडिंग की कैंद में जकड़ने को व्याकुल हो उठते। कपड़े की दुकान से कूट लेकर आते और फिर आटे से लेई बनाते। बड़ी सुई के सहारे किताब और कूट में स्ट्रेटेजिक प्वाइंट पर छेद किया जाता और मजबूत धागों को उनसे गुजारा जाता। फिर किताब की तीन तरफ से कटिंग , लेई और खास कपड़े से उसकी बाइंडिंग की जाती । किताबों से जुड़ी इतनी सारी यादें और बातें हैं कि उनके जिक्र की देर भर होती है कि यादें भरभराकर आंखों के सामने जमा होने लगती हैं। (क्रमश: )
   

2 टिप्‍पणियां:

  1. Very nicely written.Being youngest of three Sisters usually I also got old text books and even comics. It was therefore always such a happy occasion when due to syllabus change a new book was purchased for me. But inheriting books has its own pleasures too. Will wait for next installment of your post

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  2. Very nicely written.Being youngest of three Sisters usually I also got old text books and even comics. It was therefore always such a happy occasion when due to syllabus change a new book was purchased for me. But inheriting books has its own pleasures too. Will wait for next installment of your post

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