शनिवार, 23 मई 2020

मुड़-मुड़ के ...


कोई भी किताब हाथ लगी और शीर्षक पढ़ने के बाद थोड़ी सी भी उम्मीद झलकी तो सबसे पहले इंडेक्स वाले पन्नों को पलटता हूं । दलसिंहसराय, समस्तीपुर, दरभंगा, बिहार, पटना की तलाश करता हूं... या कुछ और शब्द जो इसके इर्द-गिर्द मंडराते हों। अपने इलाके के अतीत को जानने की जिज्ञासा और कुलबुलाहट किसे नहीं रहती। इतिहास और राजनीति-विज्ञान वैसे भी स्नातक में मेरे विषय रहे हैं। ऐसे में यह जिज्ञासा तो नैसर्गिक है । इधर आजादी से पहले बिहार में समय बिता चुके कई विदेशियों के संस्मरण पढ़े हैं, कुछ अंग्रेज अधिकारियों के अनुभवों को भी पढ़ा है। आमेजन, फ्लिपकार्ट पर भी गाहे-बेगाहे किताबों को ढ़ूंढ़ता रहता हूं।

कुछ सालों पहले इंटरनेट पर विचरते महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह कल्याणी फाउंडेशन की वेबसाइट पर जा पहुंचा। मन प्रसन्न हो गया । कितना कुछ, कितने ही कोनों में हमारे आस-पास होता रहता है और हम उससे अनजान रहते है । वेबसाइट पर फाउंडेशन द्वारा प्रकाशित किताबों की एक अच्छी-खासी सूची थी और उस पर से तुर्रा यह कि सारी किताबें अपने ही इलाके से जुड़ी । फटाफट कुछ किताबों को दरभंगा से मंगवाने का जुगाड़ भिड़ाया।... और इन्हीं किताबों में से एक है- ट्रांसफॉर्मेशन ऑफ बिहार – यूरोपियन डिस्कोर्सेस, जिसके लेखक हैं कलकत्ता विश्वविद्यालय में इस्लामिक इतिहास और संस्कृति विभाग में प्रोफेसर रहे श्री अनिरुद्ध रे। किताब में इंट्रोडक्शन यानि परिचय लिखा है पटना विश्वविद्यालय में इतिहास विभाग में प्रोफेसर रहे श्री सुरेंद्र गोपाल ने।



किताब क्या था...  रहस्यमयी तिलिस्म की चाबी थी या फिर अपने अतीत की पोटली.... आईना था विदेशियों की नजर से सत्रहवीं से उन्नींसवीं सदी के बिहार को जानने का। अग्रेंज, फ्रेंच, जर्मन अधिकारियों, यात्रियों, व्यापारियों, पुजारियों की नजर से देखा गया बिहार । कोई भी विषय, व्यक्ति , स्थान, संस्कृति एकांगी नही होती, बहुपक्षीय होती है। सबकी अपनी-अपनी दृष्टि , अपनी-अपनी पसंदगी-नापंसदगी, अपने-अपने बायसेस ।

लेखक के शब्दों में किताब का उद्देशय सोलहवीं सदी से उन्नीसवीं सदी के शुरुआती सालों में यूरोपीय यात्रियों के लिखे पर नजर डालना है । किताब के शुरुआती अध्याय में बिहार में गतिविधियों के केंद्र के बिहारशरीफ से हटकर फिर से पटना के केंद्र बन जाने की कहानी है। बिहारशरीफ की ओर मुड़ने वाली गंगा नदी की शाखा सिकुड़ रही थी और पटना हुगली से नदी मार्ग और दिल्ली और आगरा से संड़क मार्ग से भी जुड़ा था। ... और फिर पटना शोरा और अफीम के उत्पादन-केंद्र और व्यावसायिक गतिविधियों के केंद्र के तौर पर उभरकर सामने आया।... और हां पटना का बाजार केवल अफीम, शोरे और सिल्क के लिए ही मशहूर नही था, दुसरी जरुरी चीजों के लिए भी यह खरीद-बिक्री के केंद्र के रुप में उभरकर सामने आया था। यह दौर ऐसा था जब आर्मेनियाई व्यापारियों के साथ-साथ डच, पुर्तगाली, अग्रेंज, फ्रेंच व्यापारी पटना के कारोबारी कोने में शोरा, अफीम, सिल्क के लिए एक दूसरे के कंधे से कंधा टकरा रहे थे, जब तक कि ईस्ट इंडिया कंपनी ने पहले प्लासी और फिर बक्सर के युद्ध के बाद अपनी एकछत्र सत्ता नहीं स्थापित कर ली।

किताब में दिलचस्प जानकारियां है और रोचक प्रसंग हैं। यात्रा के कष्ट, कारोबारी अनिश्चितता और अनदेखी दुनिया का आकर्षण है। कई ऐसे मौकों का भी जिक्र है जबकि वैश्विक राजनीति का असर पटना के कारोबारी कोने पर दिखा , जैसे कि तुर्की के बादशाह के अनुरोध पर मुगल सत्ता ने यूरोपीय कंपनियों के पटना के बाजार से शोरा खरीदने पर पाबंदी लगा दी। और किस प्रकार से यूरोपीय देशों के आपस में बनते-बिगड़ते रिश्तों ने पटना के बाजार पर भी अपना असर दिखाया। किताब पटना की बसावट और बुनावट के बारे में भी बहुत कुछ कहती है। सत्रहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में पटना से सटे इलाकों का जिक्र करते हुए निकोलस डी ग्राफ ने लिखा है कि पटना शहर घने जंगलों से घिरा है, जिसमें राइनोसेरॉस(गैंडें) और दूसरे भारी-भरकम जंगली जानवर पाए जाते हैं।

यह भी कम दिलचस्प नही कि पटना के सूबेदार के बुलावे पर पुर्तगाली फादर परेरा जब पटना पहुंचे और नवाब मुकर्रब खान  से उनकी मुलाकात हुई तो उन्हें पता चला कि नवाब कैथोलिक थे। दरअसल मुकर्रब खान को जब खंभात का गवर्नर बनाया गया तो उसी दरम्यान 1610 ई में फादर पीमेंटा ने ज्यां टुटेफॉइस के नाम के साथ उसे बैप्टाइज किया था । हालांकि दस सालों बाद वो ईसाई तौर-तरीकों से दूर था। सार्वजनिक रुप से वो खुद को मुस्लिम बताता था जबकि निजी तौर पर खुद को ईसाई बताता था।

किताब में समरु का भी जिक्र है... वाल्टर रिनहार्ड सोम्बर उर्फ समरु... स्विस मूल का जर्मन। कलकत्ता में फोर्ट ऑफ विलियम में बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला के समय हुई ब्लैकहॉल की घटना से तो हम परिचित है, लेकिन पटना के इस ब्लैकहॉल से कम ही लोग परिचित होगें। मीर कासिम और अंग्रेजों के बीच जंग छिड़ गयी थी। मीर कासिम आगे-आगे और अंग्रेज दस्ता पीछे-पीछे। जब अंग्रेज दस्ता पटना के लिए लिए आगे बठा तो मीर कासिम ने समरु को बंदी बनाए गए कंपनी के अंग्रेज अधिकारियों और कर्मचारियों को मौत के घाट उतारने का आदेश दिया। किताब में तीन समकालीन फ्रांसिसीयों की इस संबंध में लिखे का उल्लेख है- जेंटिल, रेने मेडेक और काउंट ऑफ मोडावे। इनमें से ही एक जेंटिल का लिखा विवरण, जो इसी किताब से लिया गया है -

...उसी समय समरु आया। कुछ दूरी से नवाब को सलाम करने के बाद हमलोगों से थोड़ी दूरी पर वो बैठ गया। कासिम अली ने उसे करीब आने को कहा। उसके बैठते ही नवाब ने मुझे जाने को कहा... जैसे ही मैं नवाब के खेमे से निकला , समरु उठा उसने नवाब को सलाम किया और अंगर्जों के कत्लेआम की तैयारी के लिए चला गया।। एक फ्रांसिसी चैट्य्यू ने समरु के आदेश को मानने से इंकार कर दिया... फिर समरु खुद नवाब के आदेश पर अमल करने के लिए निकल गया।... खुले में खाना खा रहे अंग्रेजों पर उसने गोली चलानी शुरु कर दी... पैंतालीस अधिकारी और कर्मचारी इस दुखद घटना में मारे गए। ... - जेंटिल, फ्रांसिसी चश्मदीद

सबसे दाएं-  पटना में मृत अंग्रेजों की याद में स्तंभ, कलाकार- सीताराम (कंपनी कलम)
समरु

किताब को पढ़ते समय मेरी नजर सिंघिया पर जाते ही बरबस अटक गयी। नानीघर रोसड़ा की ओर जब भी जाना होता , सिंघिया से गुजरकर ही जाना होता। सिंघिया तक बस पहुंचती तो दिल को ठंडक मिलती कि चलो बस अब मिनटों की ही बात है। आगे गंडक नदी ... और फिर कुछ मिनटों में रोसड़ा। सन 1731 में डूप्ले जब चंद्रनगर में फ्रेंच कंपनी का डायरेक्टर बनकर आया तो फ्रांसिसी कारोबार को विस्तार देने में जुट गया। सन 1733 ई में उसने पटना में फैक्ट्री लगाने का फैसला किया और फिर ग्रोइस्ले को पटना स्टेशन की कमान सौंपी। दरअसल डूप्ले का मकसद पटना से अच्छी किस्म का शोरा कम कीमत पर खरीदना और फ्रांसिसी सामग्रियों की पटना में बिक्री का था। पटना बंगाल और दिल्ली के साथ भूटान, तिब्बत जैसे दूर-दराज के इलाकों के लिए भी व्यापारिक केंद्र था। बिहार में फ्रांसिसी कारोबार की और ज्यादा पैठ के लिए शोरा खरीदने के लिहाज से ग्रोइस्ले ने छपरा और सिंघिया में फ्रांसिसी लॉज शुरु करने की सिफारिश की। हालांकि ये सिंघिया मेरे नानीघर के करीब वाला सिंघिया ही है या नही है, यह अब भी मेरे लिए रहस्य ही है।

अनिरुद्ध रे की इस किताब को पढ़ने का एक फायदा यह हुआ कि बिहार में अपना समय बिताने वाले और यात्रा करने वाले यूरोपीय लोगों की लिखी किताब की एक लंबी सूची अपने हाथ लग गयी । गाहे-बेगाहे इंटरनेट पर इन किताबों को तलाशता रहता हूं।

भविष्य, वर्तमान, अतीत समरेखीय क्रमिक बिंदु होते हैं। अतीत का निरपेक्ष पाठक स्वाभाविक रुप से ज्योतिषी बन जाता है। आखिर भविष्य के भवन की बुनियाद अतीत पर ही तो खड़ी होती है। ऐसे में इतिहास का अध्ययन न केवल दिलचस्प होता है, बल्कि बेहद जरुरी भी।

खैर अब इस किताब के पीछे का किस्सा । हुआ यूं कि 1998 में दरभंगा में कामेश्वर सिंह स्मृति व्याख्यान देने के लिए डॉ अनिरुद्ध रे को बुलाया गया। रे साहब ने अठाहरवीं सदी में बिहार में आए फ्रेंच ईस्ट इंडिया कंपनी के अनुभवों और विचारों पर अपना भाषण `थ्री यूरोपियंस इन लेट मेडाइवल बिहार` दिया। ऐसे में जबकि बिहार के इतिहास पर काम करने वाले इतिहासकारों ने फ्रेच श्रोतों पर खासा ध्यान नहीं दिया है , कल्याणी फाउंडेशन ने रे साहब को फ्रेंच और दूसरे अन्य युरोपीय श्रोतों के जरिए बिहार के इतिहास पर काम करने का जिम्मा सौंपा।... और उसकी ही परिणति है - `ट्रांसफॉर्मेशन ऑफ बिहार – यूरोपियन डिस्कोर्सेस`।


2 टिप्‍पणियां:

  1. बिहार के पन्ने को पलटना अपने जड़ और मूल की गहराई को समझने के समान है। पलायन के इस दौर में जब हम जड़ से दूर होते जा रहे है ऐसे में यह आलेख पढ़ना सुकून देता है। वही सुकून जिसकी तलाश में हम भटक रहे हैं। रजनीश भाई उम्मीद है कि आप बिहार के संदर्भ में आप इसी तरह लिखते रहेंगे।

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  2. "नानीघर रोसड़ा की ओर जब भी जाना होता , सिंघिया से गुजरकर ही जाना होता। सिंघिया तक बस पहुंचती तो दिल को ठंडक मिलती कि चलो बस अब मिनटों की ही बात है। आगे गंडक नदी ... और फिर कुछ मिनटों में रोसड़ा" मेरा ननिहाल भी रोसड़ा ही है, और ये एहसास भी बिल्कुल एक जैसा।

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