रविवार, 13 सितंबर 2020

हिंदी दिवस की पूर्वसंध्या पर ...


एक असमंजस की स्थिति अक्सर बन जाती है जब कोई पूछता है - कौन सी भाषा है तुम्हारी ? जब खुद भी इस पर सोचता हू तब भी। बिहार का हूं यह जानकर संगी-साथी अक्सर भोजपुरिया जोक फॉरवर्ड करते रहे है। जब बताता हूं कि दरभंगा कमिश्नरी है मेरी तो मैथिली वाला समझते हैं और मधुबनी पेंटिग की परिधि में ही परिभ्रमण करने लगते है। ... लेकिन जब यह बताता हूं कि मैथिली की किताबें अक्सर अपने पल्ले नहीं पड़ती है तो उनके साथ-साथ खुद भी इस मुद्दे पर सुस्ताने लगता हूं।

ऐसा नहीं है कि इस सवाल से अभी ही पाला पड़ा हो। पहले भी इस सवाल से जूझता आया हूं । वैसे अपना तो यही जवाब होता था है कि - ठेठी । हालांकि ठेठी कौन सी भाषा या बोली है यह मैं नहीं जानता। बस बचपन में कहीं सुना होउंगा उसे ही दुहराता रहता हूं। ठेठी का आकार-प्रकार, प्रवृति, चौहद्दी और इसकी बनावट-बुनावट क्या है, ये तो खैर भाषा-विज्ञानी जानें । यह कहीं सुना कि यह मैथिली और अंगिका का संकर रुप है और यही परिभाषा मैं भी बाकियों के सामने उगलता रहता हूं।

अपना तो बचपन कहां जा रहली हन ? की खा रहली हन ? की कर रहली हन ? ठीक ही न ? खेले जा रहलिये हन ... कुछ नय कर रहलिय हन ...  जाय दे न ... में बीता। हालांकि यह भी किसी तिलिस्म से कम नहीं अपने घर में मम्मी से स्थानीय बोली में वहीं पापा से हिंदी में बातचीत होती । पटना तक तो खैर ज्यादा कुछ नहीं बदला ... लेकिन बनारस और फिर राजनगरी दिल्ली में राजकीय भाषा हिंदी इस ठेठी पर ठसक के साथ बैठ गयी। हालांकि अपनी हिंदी पर क्षेत्रीय असर अब भी हावी था/है । श और स के बीच के उच्चारणीय अंतर को आत्मसात करने और अपनी जिह्वा पर बिना किसी दुर्घटना के लैंडिग करवाने को लेकर संघर्ष अब भी जारी है। `बड़ा` शब्द को देखते ही दूर से खिसक लेने की कोशिश करता हूं। ऐसे दसियों संघर्षों के साथ हिंदी में शरणागत हूं।

ऐसा नहीं है कि हिंदी में मेरी असमंजसता केवल बोलने को लेकर ही है । हालांकि लिखता नाममात्र का हूं लेकिन जब भी लिखता हूं तो एक तरफ संस्कृतनिष्ठ शब्दों के इस्तेमाल का आकर्षण होता है वहीं उर्दूधारी शब्दों का सम्मोहन भी कोई कम नहीं होता। अपना ऐसे में एक ही फलसफा होता है – बस अनुप्रास अलंकार वाली तर्ज पर कुछ बन जाय और लिखने के दौरान शब्दों का टोटा न पड़े , चाहे वो किसी भी गली या मोहल्ले से क्यों न हो । ऐसा नहीं है कि हिंदी व्याकरण पढ़ा नहीं मैंने लेकिन स्त्रीलिंग और पुल्लिंग वाली गलतियां अक्सर सामनेवाला खाने में तिलचट्टे की तरह अपने शुद्धिकरण वाले चिमटे से मेरे लिखे से निकालकर मेरे सामने पटक देता है। का और की के झमेले में मैं अक्सर खुद को परास्त पाता हूं।

हिंदी , मैथिली और ठेठी के बिंदुओं को मिलाकर बनते त्रिकोण के बीच लटकता त्रिशंकु कह सकते हैं हमें। सालों पहले की बात हैं। अपने यहां यानि कि दलसिंहसराय में रेलवे की टिकट-खिड़की पर पंक्तिबद्ध अपनी बारी के इंतजार में खड़े-खड़े सुस्ता रहा था । अचानक से एक महोदय आये और पंक्ति को नजरंदाज करते नकारते टिकट-खिड़की की तरफ लपके। मैनें अपनी सुस्ती को झटका और बोल पड़ा – भाई साहब देखते नहीं है कि लाइन लगी हुई है। महोदय भांप गये कि सामने वाला बाहर की हवा खाकर आया है । चट से बोल पड़े – जादा हिंदी मत बोलो। फिर ध्यान आया कि मुझे बोलना चाहिए था- लाइन नय दिखाय दे रहलय हन कि।

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