बचपन के दिन थे। दूरदर्शन पर महाभारत के प्रसारण का काल था वह। हरीश भीमानी की आवाज के साथ पहिया घूमता रहता था काल का, लगता था कि काल की आवाज इसी पहिए की गति के साथ भ्रमण पर निकली हो, वायु विहार कर रही हो। लगभग यही काल था जब कांग्रेस के हाथ पर काल ने अपना पंजा चला दिया था। जनता दल के दिन थे बिहार में तब और उनके नेता चक्र निशान पर मुहर मारने की अपील करते थे। ... आकार-प्रकार के हिसाब से यह चक्र मुझे महाभारत के अद्भुद चरित्र भगवान श्रीकृष्ण के सुदर्शन चक्र की जगह साइकिल के चक्के (पहिए) जैसा जान पड़ता था।
साइकिल के आकर्षण से बाकियों की तरह मैं भी बंधा था। देश, काल, परिस्थिति के लिहाज से साइकिल जरुरत भी थी और शौक भी। वैसे भी साइकिल की आकर्षण-तरंगों से कौन बच सकता था भला। साइकिल के फर्राटपने और पैदल यात्री की मंथर गति का क्या मुकाबला । स्कूल जाना हो , ट्यूशन के लिए देर हो रही हो तो साइकिल लीजिए और फटाफट पहुंच जाइए। आटा पिसाना हो, राशन की दुकान जानी हो ... या फिर मन न लग रहा हो , टंडेली करनी हो तो साइकिल लीजिए और हवाखोरी के लिए निकल जाइए। साइकिल हजार मर्जों की दवा थी। जिस तरह प्रेमचंद के हामिद ने चिमटा खरीदने से पहले सैंकड़ों तर्क चिमटे के पक्ष में जुटाए थे, कह सकते हैं कि साइकिल के पक्ष में तर्कों का अंबार स्वाभाविक रुप से खड़ा हो जाता है।
साइकिल का आकर्षण दिनों-दिन बढ़ता जा रहा था। खैर साइकिल चलानी आती नहीं थी । अपनी लंबाई कम होने की वजह से आशंका के बादल भी सर में उमड़-घुमड़ रहे थे। साइकिल उधार लेकर कैंची तरीके से साइकिल चलाने की थोड़ी-बहुत कोशिश भी कि लेकिन बात बनी नही । ऐसे में बुजुर्गों वाली मुड़ी हैंडल औऱ थोड़ी ऊंची साइकिल के उस जमाने में जब सीधी हैंडल और अपेक्षाकृत कम ऊंची हीरो रेंजर साइकिल का हमारे इलाके में आगमन हुआ तो फिर हसरतें औऱ परवान चढ़ने लगी। साइकिल के लिए अब चिकिर-चिकिर शुरु हो गयी। साइकिल के लिए चिकिर-चिकिर का समापन खरीद पर अनुमोदन के बाद ही समाप्त हुआ। .... और फिर वह शुभ घड़ी आ ही गयी जब 33 नंबर गुमती के पास की साइकिल दुकान पर हम भी हीरो रेंजर की अपनी डिमांड लेकर पंहुच गए।
साइकिल कसा
जा रहा था। हमलोग अपनी पैनी दृष्टि से साइकिल की दुकान पर नजर फेरे जा रहे थे।
क्या-क्या और लगवाया जा सकता है अपनी इस बहुप्रतीक्षित साइकिल में । घंटी, सीट पर
गद्दी, हैंडल के दोनों किनारों के हिस्सों पर प्लास्टिक की एक्सट्रा कवर, पीछे के
पहिए पर कैरियर, दोनों पहियों में स्पॉकों पर प्लास्टिक का गुटका, पहिए के ऊपर
ब्रश जिससे कि पहिए की साइड वाले हिस्से पर धूल न जमें ... । साइकिल के सोलह
श्रृंगार में हम कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहे थे।
बस एक कसक रह गयी ... डायनेमो और आगे की लाइट । पास के गांव
से हमारे मास्टर साहब आते थे। उनकी साइकिल में डायनेमो और लाइट लगी थी, जो रात के अंधेरे
में साइकिल को आगे का रास्ता बखूबी दिखाती। बाद में विज्ञान की कक्षा में पता चला कि डायनेमो पहले पहिए की गतिज उर्जा को
यांत्रिक उर्जा में, फिर यांत्रिक उर्जा को विद्युत उर्जा में बदलती है औऱ तब जाकर
साइकिल के हैंडल के पास लगा विद्युत बल्ब प्रकाशित होता है। डायनेमो के इसी जादू का मुरीद था मैं।
अंग-प्रत्यगों को कसकर सायकिल तैयार की जा रही थी।... और जब पंप से पहियों के ट्यूब में वायु प्रवाहित की गयी तो लगा सपने ने अब सच का आकार ले लिया है। फिर आने वाले दिन कुछ साइकिल-केंद्रित रहे। पहले कैरियर पर सवारी की गयी और फिर कई दिनों के प्रशिक्षण के बाद मुख्य सीट पर सवारी की तो लगा असली स्वर्ण सिंहासन यही है। हसरत जयपुरी के शब्दों को उधार लें तो कह सकते हैं कि `चांदी की साइकिल, सोने की सीट` से कोई कम नही थी हमारी साइकिल।
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