शनिवार, 29 सितंबर 2012

समय का रोडरोलर और अनगिन मौतें

पुरातन, नवीन या फिर बीच का कुछ ... चीजें बनती-बिगड़ती है या फिर इस प्रक्रिया में होती है। जो बिगड़ गयी या फिर विलुप्त हो गयी , डार्विन के शब्दों में कहे तो वो नए माहौल में फिट नही हो पायी। लेकिन क्या डार्विन की इस थ्योरी को मूल सत्य मानकर आंखे फेर ली जाए। अब तो आंखो से काफी कुछ ओझल सा हो गया है या फिर होने लगा है। जब भी जाने-अनजाने फिर इन चीजों पर नजर पड़ती है तो लगता है अरे ये भी तो था, अरे ऐसा भी तो होता था। कभी कभी लगता है समग्र कई टुकड़ों में बंटता जा रहा है और अब हर एक टुकड़ा खुद के समग्र होने की कोशिश में जुटा है। एक मित्र ने फेसबुक पर अनंत चतुर्दशी को इवेंट में डाला , लगा न जाने कितने पर्व-त्यौहार काफी पीछे छूट गए हैं। मकसद यहां परंपराओं को ढ़ोने के विचार का नही है । अव्वल तो ये कभी बोझ नही लगा और दूसरी इनकी कमी अक्सर खटकती हैं । इनकी स्मृति अभी के झोलझाल से कुछ ही क्षणों के लिए सही , लेकिन राहत तो देती ही है । सवाल यह है कि क्या इन सारी चीजों को वैज्ञानिकता की शुष्क नजर से ही देखी जाए और हर चीज क्या उपयोगिता के नजरिए की कड़क कसौटी पर कसी जाए... और क्या इन्हें पुरातनपंथी विचार कहकर सिरे से खारिज कर दिया जाए। खैर डेवेलपमेंट-रिफॉर्म-रिवॉल्यूशन की शब्दावली इन बातों पर सोचने के लिए वक्त कहां देती है ... और इनके बहुआयामी जकड़ से बिरले ही होगें जो बच पाएं होंगें।

गुरुवार, 27 सितंबर 2012

ऑडियो कैसेट तो है न

पर्दे पर करीना कपूर और अर्जुन रामपाल का प्रेम परवान चढ़ रहा था, सीटियां कोने-कोने से कुहक रही थी... और तब एकाएक आवाज गुम हो गयी । सीटियों की आवाज की तीव्रता बढ़ने लगी । पहले तो एकबारगी लोगों को लगा शायद भावनाओं को शब्दों पर वरीयता दी जा रही हो, लेकिन जब यह वाकया बारंबार हुआ तो उछलती-कूदती और परिस्थिति के माकूल मौजूं सी एक टिप्पणी सटाक से कानों में घुस गयी – अरे ऑडियो कैसेट तो है न रे । पर्दे पर आवाज की इस शून्यता को दर्शक अब अपनी आवाज से भरने लगे... मानो उच्च वायुदाबीय क्षेत्र से निम्न वायुदाब की ओर हवा सटासट भाग रही हों। आगे से लेकर पीछे तक के दर्शक तमाम तरह की आवाजों के साथ सिनेमा हॉल और सिनेमा के विविध आयामों के साथ संवाद करने लगे । थिएटर मालिक-कर्मचारी से लेकर डायरेक्टर-कैरेक्टर तक किसी को भी बख्शा नही गया। 

एकबारगी लगा कि कुछ भी नही बदला है , लगा टाइममशीन में बैठा हूं और सुई विपरीत दिशा में घुमा दी गयी हो। सालों पहले और सैकड़ों किलोमीटर दूर दलसिंहसराय और सिनेमा थिएटरों- अम्बे-कुमार-संगम की याद आ गयी। अक्सर जब वहां अचानक दृश्य या आवाज चलते-चलते एक दूसरे से बिछुड़ जाती या फिर दोनों ही साथ-साथ फरार हो जाती तो दर्शकों की उत्तेजना , थिएटर के भीतर का तापमान कुछ ऐसा ही होता। रील घुमाने वाले को गरियाने का मौका नही छोड़ते लोग , लगे हाथ बाकी लोगों की भी जमकर शाब्दिक लानत-मलामत करते । बिजली की लुकाछिपी भी दर्शकों को ऐसे मौके बारंबार देती, फिर जेनरेटर चलाया जाता। बीच का अंतराल दर्शकों का होता। इस चिल्ल-पौं के बीच लोगों की निगाहें बल्ब-पंखे पर टिकी रखती ... वजह कि जेनरेटर ऑन होने पर सबसे पहले बल्ब-पंखों में ही प्राण संचरित होते । माएं-मौसियां अक्सर ऐसे मौकों के लिए बांस वाला पंखा रखती , बिजली गयी नही कि बच्चे पंखा-पंखा चिल्लाने लगते। साथ ही ऐसे मौकों पर जेनरेटर चलाने वाले और मूंगफली-भूंजा बेचने वाले की मिलीभगत और साजिश की गंध भी आती , वजह कि बिजली गयी नही कि मूंगफली , कुल्फी और भूंजा वाले मक्खियों की तरह भीतर टूट पड़ते .. और अक्सर ही बीच का अंतराल कुछ ज्यादा ही लंबा खींच जाता । अच्छा एक बात और उस समय सिनेमाहॉलों के दरबानों की अकड़ भी खूब रहती । अब आप ही सोचिए घर में कोई मेहमान आया हो और सिनेमा जाने की इच्छा जोर मार रही हो तो फिर टिकटों के शर्तिया जुगाड़ में उससे बेहतर कौन हो सकता है भला। ऐसे मौकों पर टिकटों का जुगाड़ अक्सर पारिवारिक-सामाजिक मोहल्ले की समस्या का रुप ले लेती। फिर कई ऐसा भी देखने को मिलता कि टिकट न मिल पाया हो तो तो गेटकी यानि गेटकीपर जान-पहचान वाले को कोई न कोई सीट जुगाड़ कर जरुर दे जाता। 

खैर टिकट यदि मिल भी गयी हो तो आगे की जद्दोजहद कुछ कम नही होती। भीड़-भाड़ ठेला-ठेली के बीच लोग सिनेमा हॉल में घुसते तो अपने-अपने ग्रुप के युवा और जाबांज मेम्बरान सीट के जुगाड़ में जुट जाते । बहुउपयोगी गमछा ऐसे में खूब काम का साबित होता, कम ही बार ऐसा देखा है कि गमछे की सामाजिक मर्यादा का उल्लंघन हुआ हो। बाकी लोगों के आने तक गमछा सीटों पर जमा रहता। यदि भविष्य में कभी रिजर्वेशन के राष्ट्रीय प्रतीक की तलाश हुई तो गमछे की सशक्त उम्मीदवारी पर कम ही लोगों को संदेह होगा। खैर फिर टकराहटों के बीच कंधे एडजस्ट होते और फिर कानों को एडजस्ट करना पड़ता। कम से कम आधे घंटे बाद आवाज और कर्ण-तंतुओं में परस्पर प्रॉपर संवाद स्थापित हो पाता, वरना तो दृश्य देखकर लोग तब तक डायलॉग्स कल्पित और विवेचित करने में अपनी विशेषज्ञता परिलक्षित करते । मुझे कोई शक नही कि ओंठ-चेहरे-शरीर की गतिकी की उनकी समझ डायलॉग्स के अनुमान में कभी मात खा पाती होगी । कभी कभी लगता है कि दूर से अपराधियों की बातचीत को सूंघ लेने के लिए पुलिस-सीआईडी-सेना इनकी सेवा यूटिलाइज कर सकती है ...और वो भी काफी कीमत पर । कई बार आवाजें इतनी कम होती कि लगता सुनने की मशक्कत में कान की नसें खींचकर कहीं टूट न जाए। खैर दिल्ली में अब तक मल्टीप्लेक्सों से ही पाला पड़ा था, टिकटें भी अक्सर ऑनलाइन ही बुक कर लेता हूं, ऐसे में पिछले हफ्ते रीगल गया तो लगा ऐसे में दलसिंहसराय के अम्बे-कुमार की बरबस ही याद आ गयी।

पोस्ट स्क्रिप्ट- एक फिल्म अनाउंसर हुआ करते थे हमारे यहां। रिक्शे पर बैटरी, मशीन और भोंपू से लैस पूरे कस्बे और आस-पड़ोस के इलाके में हॉल में लगी फिल्म और उसके सामाजिक-पारिवारिक पक्षों का जोर-शोर से प्रचार करते। आवाज सुनने पर ही दूर से ही लोग उन्हें पहचान लेते। आवाज चर्चित थी और आदमी भी कस्बे के लिए चिर-परिचित । मार-धाड, सेक्स , हिंसा से भरपूर मनोरंजक पारिवारिक फिल्म का एलान जब वो करते तो उनकी आवाज की परिधि के भीतर के लोग अक्सर ही बाकी चर्चा को विराम देकर फिल्म देखने और न देखने/किसी और फिल्म को देखने के खांचों में बंट जाते। अब जब इतने लोकप्रिय थे ही थे तो शायद यही वजह ठहरी कि एमएलए बनने चुनाव में कूद पड़े , लेकिन लोग ठहरे सेल्फिस, कास्टिस्ट और कम्युनल । इसलिए सामाजिक-पारिवारिक-सामुदायिक-सांस्कृतिक यानि उनके चहुंमुखी योगदान के बावजूद वो चुनावी अखाड़े में पिट गए।कुछेक प्रतिबद्ध लोगों को छोड़कर बाकियों ने ही उन्हें निराश ही किया , शायद सैंकड़े पर ही सिमट गए।

गुरुवार, 20 सितंबर 2012

आईफोन वाला लुटेरा

“देअर इज ए डिफरेंस बिटवीन परसेप्शन एंड नॉलेज” - राजनीति-विज्ञान की क्लास में एक टीचर को बहुत पहले कहते सुना था ... और कई बार ऐसे मौके आए हैं, जब इसे देखा-पाया हैं। अक्सर हम चीजों को पारिभाषित करते हैं , चीजों को लेकर एक खाका खींचते हैं, एक पैटर्न ढ़ूंढ़ते हैं। विज्ञान इसी की मांग करता है ... आखिर यह जमाना वैज्ञानिक जो ठहरा। वैज्ञानिकता की कबायद इतनी कि समाज का अध्ययन भी विज्ञान के आइने-दायरे में बांधने की हर संभव कोशिश होती है । हालांकि परिभाषाओं में मेरा यकीन कम ही रहा है और गाहे-बेगाहे परिभाषाओं को कई बार टूटता-दरकता भी पाया है। कल भी ऐसा ही कुछ देखा-जाना। आखिर जब एक लुटेरे की कल्पना की जाए तो कैसी आकृति और क्या हाव-भाव देगें हम ?... कल्पना की उड़ान को कुछ देर के लिए खुला छोड़ देते हैं हम । आखिर हमने देवताओं और दानवों को भी तो कल्पित किया है... देवता आभा बिखरते हमारे ख्यालों में पेश आते है और दानव अट्टाहास करते हुए, क्रूरता से परिपूर्ण। दशहरे पर दानव महिषासुर की, साथ ही देवी-देवताओं की प्रतिमाएं और टेलिविजन-फिल्मों में देवता-दानव दोनों के स्वरुप से परिचित हैं हम ... और आधुनिक हालातों में भी विलेन-खलनायको को गब्बर और प्रेम चोपड़ा की शक्लो-सूरत ,चाल-ढ़ाल , रंग-रुप, हाव-भाव ही हाथ आया है।

कल एक लुटेरे को आम ख्यालों-कल्पनाओं के उलट समथिंग डिफरेंट लुक में पाया। प्रीत विहार कम्यूनिटी सेंटर से मेट्रो स्टेशन के रास्ते पर था , रात के करीब दस बजे थे ... अचानक एक रिक्शा रुका, कुछ शब्द उछले । ब्रांडेड कपड़ों से लदे उस शख्स की तेजी देखने लाइक थी , तड़-तड़ाक के साथ रिक्शेवाले को उसने दो थप्पड़ जड़ दिए। मैं भी ठिठक गया , मामले को समझने की कोशिश में। रिक्शा वाला भाड़ा मांग रहा था , और वो लड़का कह रहा था- दे तो दिया , लात खाओगे क्या। बीच-बीच में हाथ-पैर को गतिशील किए रहता , रुकने नही देता । दोनों में से किसी ने पी नही रखी थी। रिक्शे वाला बोल रहा था- मजदूरी करता हूं, इसका मतलब यह नही कि मेरा भाड़ा मार लोगे। फिर मां-बहन की गालियों से नवाजे देने के बाद वो अगल-बगल पत्थर के लिए नजरें फिराने लगा। तब तक गालियां उसे दी जाती रही , अगली बार थप्पड़ लगने पर उसने पत्थर उठा लिया। लेकिन लात-घूंसो और गालियों के बीच पत्थर चलाने की हिम्मत नही जुटा पाया। मन में कहीं अब भी एक डर उस पर हावी था। वो लड़का साथ-साथ यह धमकी भी दिए जा रहा रहा था कि मंडावली में उसका रहना दूभर कर देगा। फिर एक-दो लोगों ने उन दोनों को रोककर मामला जानना चाहा। चूंकि उनके रुकने से लेकर तब तक की गतिविधियां ताबड़तोड़ मेरे सामने ही हुई थी- इसलिए मैनें उस शख्स से कहा – लड़ाई-झगड़े से क्या फायदा , दे दो पैसा । लड़का भारी भरकम, ह्रष्ट-पुष्ट और सभ्य-आधुनिक समाज के सभी उपकरणों से लैस था (एजुकेटेड-सिविलाइज्ड होने के तमाम कल्पित किरण उससे प्रस्फुटित हो रहे थे)। पहले तो उसने बाकियों की परवाह किए बिना अपने पॉकेट से आईफोन निकाला और फिर किसी दोस्त को खुद और बाकियों को साथ में लाने के लिए कहने लगा। अब उस लड़के का जवाब सुनिए- लड़के ने कहा कि उसके पास पंद्रह रुपए थे और उसने दस रिक्शेवाले को दे दिए (मंडावली से गलियों के रास्ते प्रीत विहार मेट्रो स्टेशन का भाड़ा कम से कम बीस-पच्चीस बनता है)। उसकी बातचीत से अब यह साफ झलक रहा था कि उसकी जेब उस समय खाली थी , बावजूद इसके वो रिक्शे पर बैठ गया इस बात से आश्वस्त की वो रिक्शेवाले को मैनेज कर लेगा। ( और शायद यही वजह थी कि मेट्रो स्टेशन से दूर धुंधलके में उसने रिक्शे वाले को रुकने के लिए कहा था)। अब जब लड़के को लगा लोगों की सहानुभूति रिक्शे वाले के साथ जा सकती है- उसने तड़ से एक लात और रिक्शेवाले के पेट पर मारी और रिक्शे को उलटने दिया । अब उसकी आवाज और भी तेज हो गयी , गालियों की गति बढ़ चुकी थी। ऐसे में रिक्शेवाले और बाकी लोगों ने निकल जाने में ही भलाई समझी।

सोमवार, 17 सितंबर 2012

दर्दिले-दिलों का देवता और दसियों अफसानें

जख्मी दिलों के दर्द को अपनी आवाज की शक्ल देने वाले अताउल्लाह खां भारत तशरीफ ला रहे है, अगले ही महीने। समाचार पढ़कर सालों पहले की याद ताजा हो गयी... एक जमाना था जब चौक-चौराहे पर पर `ये धोखे प्यार के धोखे` और `ओ दिल तोड़ के हंसती हो मेरा` गूंजा करता तो आशिक दिल टटोलने लगते, जख्म गहरा जाता ... मानो उनके दिल की सुराख पर स्प्रिरिट छिड़क दिया गया हो, सनसनाहट-छनछनाहट सी होने लगती ... बेवफाई के मारे और इकतरफा प्रेम रोगी अताउल्लाह खान के नगमों के सहारे दुपहरिया और शामें काटा करते ... एक से एक बढ़कर कहानियां सुनने को मिलती, अव्वल तो यह कि खां सहाब बेवफा प्रेमिका को मार जेल चले गए और पाकिस्तानी सरकार से ये करार हुआ कि जितने गाने वो गाएंगे , उतने दिनों की मोहलत उन्हें मिलेगी ... और फिर क्या था अताउल्लाह खां ने दस हजार से लेकर चालीस हजार तक के रेंज में गाने गाए (अलग-अलग वाचक अलग-अलग आंकड़ों से युक्त रहते) । कभी यह सुनने को मिलता कि खां साहब ट्रक ड्रायवर थे इसलिए सारे ट्रक ड्रायवर फुल वॉल्यूम में `अच्छा सिला दिया तूने मैने प्यार का , प्यार ने ही लूट लिया घर का` बजाते रहते है। एक कहानी यह भी कि फांसी के तख्त पर अपनी अंतिम इच्छा पूछ जाने पर खां साहब ने गाने की इच्छा जतायी। जेलर ने फिर आदेश दिया- जब तक वो गाते रहेगें फांसी की सजा मुल्तवी रहेगी... और फिर तो उन्होंने एक के बाद हजारों गाने गाए । खैर अबके जमाने में ऐसी कहानियां टिकती नही , जन्म के साथ ही चीड़-फाड़ से जूझती-गुजरती मर जाती है, लेकिन वो जमाना ही कुछ और था। वैसे भी आस्था और भावनाएं तर्क की परिधि परवाह कब करती है... और प्रेमी तो खैर अलहदा वैरायटी ठहरे। उसके बाद सन पंचानवे में आयी वेबफा सनम ने मानो इस मिथक पर मुहर लगा दी। चित्रहार में जब भी किशन कुमार `अच्छा सिला दिया तूने मैरे प्यार का` जेल के सीखचों के भीतर से गाते हुए दिखते तो उनकी बेबसी पर विरले ही होगें जिनमें सहानुभूति नही पनप पाती होगी , आंखे तरल न हो जाती होंगी। खैर अताउल्लाह खां साहब तीन बच्चों के पिता है और चार शादियां कर चुके हैं... और किवदंती बन चुकी ये कहानियां महज अफवाह निकली।

शुक्रवार, 14 सितंबर 2012

अनुवाद की मारी, बाजार से बेचारी

हिंदी बेचारी है या बीमारी ... खैर जो भी है, इतना तो तय है कि हिंदी और हिंदी वाले बीमार-बेकार-बदहाल है। भाई साहब इस हिंदी ने बहुतेरे जख्म दिए है। जख्म बड़े गहरे हैं और इनके सूखने-भरने की तो छोड़िए, नए जख्मों की भी कोई खास कमी नही और आशंका इस बात की भी है कि भविष्य भी जख्मों भरा होगा , बशर्ते की इंग्लिश का एंटीडोट न लिया जाय, उसकी भरपूर खुराक न ली जाय। 

बचपन तो खैर बचपन ठहरा, किशोरावस्था और जवानी इंग्लिश के आतंक और आकर्षण के बीच त्रिशंकु की तरह गुजरा और गुजर रहा है । कभी कभी सोचता हूं कि काश किसी भाषा का आविष्कार ही नही होता , लोग इशारों से बात करते , समाज-बाजार इन्हीं इशारों पर चलता , और यदि होता भी तो केवल एक । खैर कुछ चीजों पर अपना वश नही होता , कहां-किधर-किसके यहां जन्म लेना है ,यह हम-आप तो तय नही कर सकते। कह सकते हैं कि हिंदी वाला होने को अभिशप्त हूं। 

अब तक का अनुभव यही कहता है रोटी और हिंदी में छत्तीस का रिश्ता नाता है , ब्रेड से तो खैर इसकी दुश्मनी ही है। अभी कुछ दिनों पहले एक एक्जाम के सिलसिले में जयपुर जाना हुआ। निर्देश में लिखा देखा – “यदि किसी प्रश्न में किसी प्रकार की कोई मुद्रण या तथ्यात्मक प्रकार की त्रुटि हो तो प्रश्न के हिन्दी और अंग्रेजी रुपांतरों में से अंग्रेजी रुपातंर मान्य होगा।“ अब आप ही बताइए हिंदी भाषी राज्यों में हिंदी की यह दुर्गति है तो बाकी जगहों का कहना ही क्या। उस पर तुर्रा यह कि एक तो सवालों के अनुवाद भी ऐसे कि मानो शरीर तो अनूदित है , लेकिन आत्मा सिरे से गायब। एक सवाल तो बड़ा ही अजीब ठहरा , अंग्रेजी के उलट हिंदी के ऑप्शंस के क्रम ही उलटे-पलटे थे। अब आप ही बताइए ऐसे में कोई करे तो क्या करे ? खैर इनकी तो जाने ही दीजिए पद और प्रतिष्ठा की पर्याय यूपीएससी की परीक्षाएं भी विशुद्ध शारीरिक अनुवाद से अछूती नही। एक बात और पिछले दो सालों से यूपीएससी ने प्रारंभिक परीक्षा को सिविल सर्विसेज एप्टीट्यूड टेस्ट में बदल दिया है , जिसमें अंग्रेजी के कुछ सवाल अनिवार्य रुप से हर भाषाभाषी के लिए है... यानि इंग्लिश को हिंदी वालों के एप्टीट्यूड के निर्धारण में लगभग अनिवार्य कर दिया गया। और उस पर से सवालों में इस्तेमाल की गया हिंदी ऐसी कि अंग्रेजी की गली से गुजरे बिना गुजारा नही। इस विशुद्ध शारीरिक अनुवाद ने हिंदी और हिंदीवालों की कोई कम दुर्गति नही की है। कभी-कभार तो ऐसे रंग-बिरंगे अनुवादों से आपका पाला पड़ेगा कि हंसा जाय या फिर रोया जाय , डिसाइड करना मुश्किल हो जाएगा । 

आजकल के गुगल ट्रांसलिटरेशन ने भी हिंदी का कम कबाड़ा नही किया है। कुछ महीनों पहले `इस्पात के पौधे लगाए गए` का समाचार सुनने को मिला , दरअसल खबर `एस्टेबलिस्ड स्टील प्लांट` का विशुद्ध शारीरिक अनुवाद था। उदाहरण अनेकों हैं। अव्वल तो हिंदी में किताबों की कमी हैं , उस पर से जले पर नमक यह कि इस कमी को पूरा करने के लिए हिंदी में अनूदित किताब हिंदी वालों के लिए भी किसी पहेली से कम नही होते। कुछ सालों पहले बीआईटी सिंदरी जाना हुआ , सिविल इंजिनियरिंग डिपार्टमेंट के आगे बोर्ड पर चित्रित था – असैनिक अभियांत्रिकी विभाग। यानि अंग्रेजों के जाने के दशकों बाद भी हमारी शब्दावली पर अंग्रेजों की छाप धरी की धरी है। यानि सिविल जो अंग्रेजों के जमाने में नॉन मिलिट्री से संदर्भित है, भाषायी शारीरिक रुपांतर में असैनिक हो गयी। अब हिंदी की पत्रिकाओं के नाम पर नजर डालिए- इंडिया टूडे , आउटलुक , द संडे इंडियन , क्रॉनिकल, सिविल सर्विसेज टूडे । नाम तो अंग्रेजी है ही , और भीतर की सामग्री भी इंग्लिश की परछाई ही ठहरी।

अब बात अपने अनुभवों की करता हूं , कई बार तो खुद के हिंदीवाला होने पर ही सवाल उठता पाया। पटना से बनारस पहुंचा तो सबसे पहले हिंदी की शुद्धता से जूझा । रजिस्टर में नाम दर्ज होते ही रैंगिंग सीनियरों का मौलिक अधिकार हो जाता है। नाम, पता , परिचय , परिवेश , उद्देशय , और विभिन्न क्रिया-प्रक्रियाओं को हिंदी में शुद्धतापूर्व उवाचने की सफल कोशिश तक रात कब सुबह में तब्दील हो जाती , पता ही नही चलता । उस पर से नुक्ता की नकेल जब तब गर्दन और हाथों की नसों पर नए गिरह बनाती रहती। दिल्ली पहुंचा तो तो और भी भांति-भाति के रंग-बदरंग कष्टों से गुजरा-जूझा। एक तो आप और तुम का झोलझाल ... अक्खड़ और आदतन दूसरों को इज्जत बख्शने से मजबूर अपनी जबान आप से ही बातचीत की शुरुआत करती और सामने वाला था कि तुम-ताम-तड़ाम करता रहता , मन किलस कर रह जाता। इस मामले में अंग्रेजी भाषा काफी डिप्लोमेटिक नजर आती ... तुम और आप दोनों के लिए केवल यू। अपन के पास ऐसी कोई च्वाइस नही थी , लाख चाहने और कोशिशों के बावजूद अब भी भारी मात्रा में आप धमनियों-शिराओं में प्रवाहित हो रहा है। इंटर्नशिप के लिए जी न्यूज जाना हुआ , वर्ल्ड कप के मैच चल रहे थे , लॉगिंग की जिम्मेवारी दी गयी। टेप लाने लाइब्रेरी जाना पड़ता। टेप दो प्रकार के थे- छोटा और बड़ा। लाइब्रेरी वाले ने मानो नियम बना लिया था – टेप देने से पहले बड़ा का उच्चारण करवाकर ही मानता। चूंकि ड़ के शास्त्रीय उच्चारण में मैं कोई परफेक्ट नही था , इसलिए बड़ा ब्रा साउंड करता... और वो मजाकिया लहजे में अगल-बगल वालों को सुनाते हुए कहता- तो तुम्हें ब्रा चाहिए ब्रा। हमारे एक मित्र हैं - बस्ती के। बता रहे थे कि एक बार उनका बिहारी रुम पार्टनर गंजी (बनियान) लेने दुकान पर पहुंचा। दुकानदार ने पूछा किस साइज का दूं । उनके मित्र ने जवाब दिया- बड़ा वाला गंजी दीजिए। अब दुकानदार ने पलट कर आश्चर्यभाव से पूछा - ये ब्रा वाला गंजी क्या बला है ? मेरे मित्र के अनुसार मामला तब सुलटा जब उन्होंने दखल दी , तब जाकर उनको अपने साइज का बनियान मिल पाया। मैनें कहानी पर शत प्रतिशत संदेह होने के बावजूद चुप रहने में ही भलाई समझी। खैर हम जैसे बिहारियों के लिए एक और लिटमस टेस्ट अक्सर मुंह बाये खड़ा रहता । खैर अच्छा ही है कि अब अमेरिका पर ओबामा का राज है और उनकी पत्नी मिशेल है , वरना गाहे-बेगाहे लोग इस सवाल से जूझते-शर्माते कि – बताओ जॉर्ज बुश की पत्नी कौन है ? ... और फिर जवाब से सवाल पूछने वाला एक बार में ही संतुष्ट नही होता । अगल-बगल, पास-पड़ोस से मित्रों को आमंत्रित किया जाता ,जवाब पर गौर फरमाने के लिए ... मानो कोई राष्ट्रीय सवाल हो और हर एक का जानना जरुरी हो।... और फिर इस लाइन को कौन भूल सकता है भला- घोड़ा पड़ा पड़ा सड़क पर मर गया। बनारस और दिल्ली को तो तो जाने ही दे , अपने कस्बे दलसिंहसराय का एक्सपीरिएंस भी कुछ कम नही। कुछ महीनों पहले वहां टिकट खिड़की पर लाइन में खड़ा था, थोड़ी नोक-झोंक हो गयी । हुआ यूं कि लाइन को लांघकर एक जवां मर्द टिकट लेने लगा । मैंने कहा कि भाई साहब हम लोग लाइन में लगे हैं , कृप्या पीछे आ जाइए । मानो कहने भर की देर थी कि उछलता-चुभता हुआ जवाब आया- बहुत हिंदी जानते हो ,हिंदी में समझाएं क्या ? खैर `लाइन में आहो न अहां ` की जगह `लाइन में आइए` बोलने का प्रसाद था ये। फिर कभी-कभी हिंदी से पितृसत्तात्मकता की बू सी आती-दिखती-महसूस होती है। मैने अक्सर अपने और कई दूसरे परिवारों में भी लोगों को स्त्री सदस्यों से स्थानीय बोली और पुरुष सदस्यों से हिंदी में बात करते देखा है। कह नही सकता कि इसकी वजह क्या है लेकिन एक ही परिवार भाषा का ये लिंगभेद किसी अचरच से कम नही।

सच कहूं तो बीते सालों में इंग्लिश पर पकड़ बनाने की कई कोशिशें की , कोशिशें अब भी जारी है। इंग्लिश कुछ हाथ आयी, कुछ छिटकी। कभी-कभार जब नरसिंहराव और इन जैसे दूसरे लोगों के बारे में पढ़ता-जानता हूं कि एक तो छोड़िए कई-कई भाषाओं की नकेल थामने में महारत थी इनकी , तो खुद को ही गरियाने-गलियाने का मन करने लगता है। अन्त में इतना ही बोलूंगा कि हिंदी और हिंदीवालों दोनों की ही राह बड़ी कंटीली है। ...और जहां तक हिंदी की बात है ,उसे तो अपनों ने ही दगा दी है और वो उदास बैठी कहीं फुसफुसा रही होगी- हमें अपनों ने लूटा , गैरों में कहां दम था।

सोमवार, 10 सितंबर 2012

इन अंधों को आईना बांटे कोई !!!

केबीसी यानि कौन बनेगा करोड़पति इन दिनों लोगों के दिमाग पर तारी है। सोचा एक सवाल मैं भी पूछता चलूं... आखिर राज ठाकरे, हंगरी के सजेगेदी और गौरनंदन यानि गोरा आपस में किस कड़ी से जुड़े है ? …या कहें तो इन तीनों का आपस में क्या संबंध है ? जवाब मालूम है तो भी न मालूम है तब भी आगे की चंद लाइनें पढ़ें।...

पता नही राज ठाकरे ने कभी हंगरी की यात्रा की है या नही, लेकिन इतना तो तय है कि हंगरी के नाम से ठाकरे साहब परिचित जरुर होंगें। मौका माकूल है और मेरी माने तो बिहार सरकार इस यात्रा का खर्च सरकारी खजाने से वहन करे... और शायद ही बिहारियों को इससे कोई आपत्ति हो , कम से कम मुझे तो नही है। दरअसल ठीक उसी वक्त जबकि ठाकरे-दिग्गी प्रकरण चर्चा में हैं, हंगरी का एक युवा नेता 30 साल के सी. सजेगेदी चर्चा में हैं। दक्षिणपंथी जोबिक पार्टी का यह उभरता सितारा भी राज ठाकरे महोदय की तर्ज पर ही जुबानी उल्टी करने में निपुण है , लेकिन इतिहास ने उनके वर्तमान की मिट्टी पलीद कर दी है ठीक वैसे ही जैसे प्रबोधनकार ठाकरे की किताब ने बिहारियों के प्रति ठाकरे कुनबे की नफरत भरी राजनीति को हास्यास्पद मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है । दरअसल सजेगेदी साहब यहूदियों को लेकर उलटबांसी के कला-कौशल में सिद्धहस्त है ... वैसे ही जैसे ठाकरे बंधु-बांधव अपनी उलटबांसियों के लिए एक्सपर्ट हैं। कुछ दिनों पहले आयी एक खबर ने सजेगेदी साहब की राजनीतिक जमीन खिसका कर रख दी हैं, या कहें तो उनकी हालत त्रिशंकु माफिक हो गयी है ...अपने फंदे में वो खुद ही उलझ कर रह गए हैं। पता चला है कि सजेगेदी साहब की शिराओं में उन्ही यहुदियों का रक्त प्रवाहित होता है जिनकी आलोचना कर उन्होंने नफरत भरी अपनी राजनीतिक जमीन तैयार की है, नागफनी के पौधों को बोया-सींचा है । अफवाह काफी पहले से थी और अब एक ऑडियो टेप ने उनके दोरंगेपन की कलई खोलकर रख दी है। इस ऑडियो रिकॉर्डिंग में सजेगेदी एक व्यक्ति को अपने यहूदी मूल को होने के साक्ष्य छुपाने के लिए पैसे का प्रलोभन देते हुए सुनाई दे रहे हैं। मामला यह है कि उनकी दादी हिटलर की क्रूर कारिस्तानियों में से एक ऑस्वित्ज कैंप का दंश झेलने वाली यहूदी महिला थी। अब सजेगेदी न केवल इसे मान लेने पर मजबूर हुए हैं , बल्कि पत्रकारों के सवालों से भागे-भागे फिर रहे हैं। ऐसे में राज ठाकरे जब हंगरी जाएंगे तो सजेगेदी और वो दोनों ही एक दूसरे को कंधा दे पाएंगें और साथ दोनों को ही सुबुद्धि आ जाए। खैर हंगरी में मराठी नही बोली जाती और हंगरी कोई मुंबई तो है नही कि लोगों से जबरिया मराठी बुलवायी जा सके। ऐसे में बिहार सरकार उनके दुभाषिए का इंतजाम सरकारी खर्चे पर कर दे तो मेरा आग्रह है कोई आपत्ति न करे... प्लीज। खैर मैं सोच रहा हूं कि क्यूं न उन्हें रवींद्रनाथ टैगोर की गोरा गिफ्ट कर दी जाय । किताब वैसे तो कोई ज्यादा मंहगी नही है ... पेपरबैक संस्करण तो और भी सस्ते में आ जाएगा। हममें से कई गौरमोहन से परिचित होगें , वही जिसे सब गोरा कहकर बुलाते है... कट्टर और रुढ़िवादी हिंदू। हिंदू समाज के लिए उसके तयशुदा मानदंडो में कमी की वजह से जहां उसके लिए अपनी मां कृष्णमयी के हाथों का भोजन करने में कष्ट होता था, बाद में इस बात का उद्घाटन होने पर कि दरअसल वो आयरिश माता-पिता की संतान है , उसके बनाए हुए किले खुद-ब-खुद भड़भड़ाकर गिर पड़े । ... और उपन्यास के अंत में वो कृष्णमयी के पांवों में गिर पड़ता है। खैर बात अब ठाकरे बंधु-बांधवों की ...चर्चा-ए-आम है कि ठाकरे साहब के पूर्वज कभी बिहारी हुआ करते `थे`। कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह के मुताबिक बकौल राज ठाकरे के पितामह प्रबोधनकार ठाकरे उनका कुनबा मगध यानि वर्तमान बिहार से ताल्लुक रखता है। बीजेपी-शिवसेना राज के दौरान छपी इस किताब के मुताबिक मगध से मध्यप्रदेश के भोपाल और फिर चितौड़गढ़ के रास्ते ठाकरेगण पुणे के माधवगढ़ पहुंचे। ठाकरे परिवार और उनकी तमाम छोटी-बड़ी शाखाएं जिन बिहारियों को आए दिन गरियाकर अपने कीचड़ पुते-भरे दिमाग का परिचय देती है , इन परिस्थितियों में क्या सोच रही होगी ये तो खैर भगवान ही जानें। लेकिन इतनी तो उम्मीद की ही जा सकती है कि सजेगेदी साहब का हश्र शायद कुछ सुबुद्धि का उनमें संचार करें। देसी-विदेशी दोनों ही उदाहरण हैं उनके सामने।

मंगलवार, 4 सितंबर 2012

काश कोई कर्जन की सुन लेता !!!

नवीं की इतिहास की किताब के बाद लॉर्ड कर्जन से मेरा साक्षात्कार पटना के अशोक राजपथ पर हुआ। 1998 की गर्मिंयों की चिलचिलाती धूप थी , फिर भी पटना घूमने का खुमार सर पर था। काली घाट की गली से निकल कर आगे बढ़ा तो खुदाबख्श खां लाइब्रेरी की तरफ मुड़ गया ... नाम काफी सुन रखा था । पांडुलिपि किस चिड़िया का नाम है , तब तक इससे अपरिचित था , लेकिन इतना पता था कि खुदाबख्श खां लाइब्रेरी पांडुलिपियों का बड़ा संग्राहलय है । लेकिन दरबान ने दरवाजे से वापस चलता कर दिया , कहा केवल शोधार्थियों के लिए है। भला हो कर्जन साहब का , जब खुदाबख्श खां साहब से निराश लौटा तो वही कोने में कर्जन रीडिंग रुम ने किनारा दिया। भीतर पहुंचा तो लगा मन की मुराद मानो पूरी हो गयी। दसियों अखबार , और दर्जनों पत्र-पत्रिकाएं देशी-विदेशी ... लगा स्वर्ग कहीं है तो यही हैं। उपर से एयर कूलर की ठंडी-ठंडी हवा और कूलर का ठंडा ठंडा पानी। कर्जन साहब के लिए श्रद्धा का भाव उमड़ आया। खैर आगे के तीन साल गाहे-बेगाहे जाता रहा , कभी गर्मी से बचने तो कभी टाइम, न्यूजवीक और टेलीग्राफ , स्टेट्समैन टटोलने। टाइम और न्यूजवीक जैसी पत्रिकाएं पहली-पहली दफा वहीं छूने-देखने को मिली। खैर साल दर साल गुजरे ... बीएचयू , हिंदू कॉलेज , आईआईएमसी के बाद पत्रकारिता का दौर शुरु हुआ।... कर्जन साहब सालों भर बाद फिर याद आए।
                                                 
शिलापट्ट
कवरेज के सिलसिले में अक्सर दिल्ली के टोडापुर , पूसा कैंपस (इंडियन कांउसिल ऑफ एग्रीकल्चर रिसर्च) जाना होता। भव्य ऑडिटोरियम , कृषि और नयी तकनीकों पर बहस करते देशी-विदेशी वैज्ञानिक-विशेषज्ञ और भविष्य के नीति-नियमों पर चर्चा के बीच बरबस लॉर्ड कर्जन की याद आ जाती । मन का एक कोना कह उठता कि काश कर्जन की कोई सुन लेता , उनकी बातों पर कान देता। समस्तीपुर का हूं और राजेंद्र एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी पूसा हमारे जिले में ही है। मन में ख्याल आता कि कर्जन की आपत्ति पर गौर फरमाया जाता तो पूसा समस्तीपुर से दिल्ली के सफर पर न निकल पाता।

फिप्स लैबोरेट्री (मुख्य भवन)
ये कहना काफी मुश्किल है कि कृषि प्रधान बिहार और भारत के पूर्वी इलाके ने इससे कितना नुकसान उठाया। प्रीजंपटिव लॉस के आकलन के इस जमाने में शायद ही हम इस रकम का अनुमान कूत पाए। खैर बात यह थी कि साल 1905 में लॉर्ड कर्जन साहब ने एग्रीकल्चर रिसर्च इंस्टीट्यूट एंड कॉलेज के भवन की बुनियाद पूसा, समस्तीपुर में रखी और उम्मीद जतायी कि इसके कृषि केंद्र बनने के साथ बिहार-बंगाल की बेहतरी के अलावा पूरे देश भर का फायदा होगा। उसी साल भारत से अपनी विदायी तक वो पूसा प्रोजेक्ट के हर पहलू पर बारीकी से निगाह रखते रहें। हांलाकि पूसा के मुख्य भवन फिप्स लेबोरेट्री के आर्किटेक्चर से वो असहमत थे । साल 1934 के विनाशकारी भूंकप में ये भवन ढ़ह गया और बिहार से इस प्रतिष्ठित संस्थान (इंपीरियल स्टेटस प्राप्त ) के बाहर की और कूच करने की बड़ी वजह बना।
भूकंप के बाद पूसा से दिल्ली स्थानांतरण की तस्वीर
अब थोड़ा और पीछे जाया जाए... इंपीरियल गेजेटियर ऑफ इंडिया के मुताबिक दरभंगा (तब समस्तीपुर जिला नही था ) के पूसा में 1350 एकड़ की खेती की जमीन ईस्ट इंडिया कंपनी ने सेना के घोड़ों को बेहतर चारा उपलब्ध कराने के लिए अधिग्रहित की। बड़ी संख्या में इंपोर्टेड घोड़ों की, ग्रंथियों की बीमारी की वजह से मौत के बाद घोड़ों को यहां से दूसरी जगह ले जाया गया। फिर जमीन लीज पर तंबाकू कंपनी सदरलैंड एंड कंपनी को मिली लेकिन साल 1897 में इस कंपनी ने भी जमीन खाली कर दी। लगभग इसी समय वायसराय लॉर्ड मेयो भारत में कृषि महानिदेशालय और बीज-तकनीक-पशुपालन के क्षेत्र में बेहतरी के लिए एक योजना पर लगे थे और ब्रिटिश विशेषज्ञ जे ए वालकर ने उनके निर्देश पर भारत में कृषि के विकास पर एक डिटेल्ड रिपोर्ट तैयार की थी। हालांकि इस मामले में तेजी कर्जन के वायसराय बनने के बाद आयी , जिन्होंने नागपुर मुख्यालय के तहत जे मालीसन को कृषि महानिरीक्षक नियुक्त किया। इस बीच पशुओं के स्तर में बेहतरी के लिए तत्कालीन बंगाल सरकार ने पूसा में मॉडल पशुपालन केंद्र का प्रस्ताव रखा और जिसे मंजूरी भी मिल गयी। गौरतलब है कि पूसा के नजदीक दलसिंहसराय में इंडिगो रिसर्च सेंटर था , जहां काफी संख्या में ब्रिटिश प्लांटर्स थे। लेकिन पूसा की किस्मत में अभी इससे ज्यादा कुछ था। साथ में यह भी बताता चलूं कि लॉर्ड कर्जन की पत्नी अमेरिका के रईस परिवार से थी और अमीर अमेरिकी हेनरी फिप्स से उनके परिवार के गहरे ताल्लुकात थे। कर्जन दंपति फिप्स के अक्सर होने वाले भारत यात्रा पर आतिथ्य का भार निभाते और इसी दरम्यान फिप्स ने करीब 30 हजार डॉलर के अनुदान का प्रस्ताव कर्जन को दिया। खैर तब तक मालीसन के नेतृत्व वाली विशेषज्ञ समिति ने एग्रीकल्चर रिसर्च सेंटर के लोकेशन के लिए पूसा के नाम पर मुहर लगा दी। वायसराय ने पूसा में एग्रीकल्चर रिसर्च सेंटर और कॉलेज के लिए प्रस्ताव ब्रिटिश कैबिनेट की मंजूरी के लिए भेज दी। इंडिगो प्रोजेक्ट पर काम कर रहे बी कोवेंट्री ने 1 अप्रैल 1904 को पहले निदेशक के रुप में पदभार संभाला। हालांकि पूसा के मूल प्लान की जगह नए प्लान के मुताबिक अब चार क्षेत्रों में पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा की प्रावधान हुआ और इसके अलावा कई कम अवधि वाले पाठ्यक्रम भी तय हुए। 1908-09 में यहां से छात्रों का पहला बैच पढ़ाई पूरी कर निकला। सन 1918 में पूसा संस्थान को इंपीरियल स्टेटस दिया गया और फिर यह इंपीरियल एग्रीकल्चर रिसर्च इंस्टीट्यूट के रुप में मशहूर हुआ। 1934 का भूकंप बिहार और इस संस्थान के लिए तबाही लेकर आया। संस्थान की मुख्य इमारत फिप्स लैबोरेट्री ढ़ह गयी। अगल बगल के इलाके में नौलखा के नाम से मशहूर फिप्स लैबोरेट्री दो तल्ले की शानदार महलनुमा इमारत थी जो अभी के सुगरकेन रिसर्च इंस्टीट्यूट की जगह पर थी और जिसकी बनावट पर कर्जन महोदय को संदेह था।फिर यह संस्थान 1935 में दिल्ली ले जाया गया और 1936 के अंत तक दिल्ली के उत्तर पश्चिम में टोडापुर इलाके में काम करने लगा। 

पोस्टस्क्रिप्ट—सालों बाद बिहार सरकार ने दो लाख पांच हजार की रकम देकर पूसा एस्टेट खरीद ली , हालांकि इसका एक हिस्सा अभी भी केंद्र सरकार के पास है , जो दिल्ली के मुख्य केंद्र के रिसर्च स्टेशन के रुप में काम कर रहा है। पूसा को फिर अहमियत मिली 1970 में , जब यहां राजेंद्र एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटि की स्थापना हुई।

सोमवार, 3 सितंबर 2012

आखिर इन ठाकरों की ठकुरसुहाती क्यूं

मुझे पता नही कि राज ठाकरे और उनके भाई बांधव माधव श्रीहरि अणे के नाम से परिचित है या नही और इस बात की गुंजाइश कम ही है कि इन ठाकरे महोदय को पता हो कि बिहार की सत्ता का पता क्या है ? सच कहूं तो मुझे उनके इतिहास-भूगोल के ज्ञान पर संदेह है और जिसकी पूरी पूरी वाजिब वजह भी है। राज ठाकरे को शायद ही मालूम हो कि बिहार की सत्ता का पता, 1 अणे मार्ग , यवतमाल के माधव अणे के नाम पर है जो स्वतंत्र भारत में बिहार के दूसरे राज्यपाल थे। खैर उनसे इतनी समझदारी की उम्मीद नासमझ ही कर सकते है । राजठाकरे को यह भी याद दिलाना होगा कि बिहारियों ने किसी एक्सक्लूसिविटि, किसी अलगाववाद की भावना को परे रखते हुए आचार्य कृपलानी, अच्युत पटवर्धन, मधु लिमये, जॉर्ज फर्नांडीज , शरद यादव को अपना नुमाइंदा चुन कर लोकसभा भेजा। पूना में जन्म लेने वाले मधु लिमये बांका से , सिंध के हैदराबाद में जन्मे और पुणे के फर्ग्यूसन कॉलेज में शिक्षा प्राप्त करने वाले जे बी कृपलानी सीतामढ़ी से ,मुंबई में जन्मे मीनू मसानी रांची से लोकसभा के लिए चुन कर भेजे गए। मुझे नही पता राज ठाकरे को हिंदी आती है या नही लेकिन बिहार के छठे दर्जे की हिंदी की टेक्स्ट बुक पलटे तो झांसी की रानी को तलवार और घोड़े के साथ युद्ध की मुद्रा में लड़ते हुए वहां पाएंगे। मराठा मर्दानी झांसी की रानी , सुभद्रा कुमारी चौहान के शब्दों के जरिए आज भी बिहार के लाखों बच्चों के जेहन में है। खैर राज ठाकरे पढ़ नही पाएंगे , उनके चश्मे पर गर्द जो जमी है।
 
राज ठाकरे को यह भी शायद ही पता हो मानभूम के मसले पर जब बिहार और बंगाल में ठनी थी तो ने दोनों राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने सन 1956 में विलय का एलान किया था और विलय के प्रस्ताव को तब के बिहार की विधानसभा ने भारी मतों से पास कर दिया। और इसके अनिश्चित परिणामों की आशंका से बिहार विधानमंडल को अवगत कराने वाले कोई और नही दक्षिण भारत के धारवाड़ से आने वाले तत्कालीन राज्यपाल आर आर दिवाकर थे। खैर तबके पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री विधानचंद्र राय ने विलय का प्रस्ताव वापस ले लिया था। साल 1993 में एक फिल्म आयी थी तिरंगा। तिरंगा का किरदार शिवाजी राव वागले जब कहता है - नाम शिवाजी राव वागले , मराठा हूं , मराठा मरता है या मारता है – याद है कि दलसिंहसराय के सिनेमाहॉल में मौजूद हर एक ने जमकर तालियां बजायी थी। खैर राज ठाकरे को शायद ही पता हो कि दलसिंहसराय भारत के नक्शे पर कहां है। उनके लिए तो भारत के नक्शे का दायरा मुंबई और महाराष्ट्र की सीमाओं पर ही दम तोड़ देता है। मुझे याद है नाना पाटेकर ने जब ये संवाद कहा ,न जाने शरीर के किस हिस्से से -आंत से , अग्नाशय से या फिर यदि कोई आत्मा होती हो तो वहां से एक सरसराहट सी पैदा हुई और शरीर झनझना सा गया । लेकिन राज ठाकरे तो अब इस डायलॉग का डायमेंशन ही बदलने में लगे है और अब एकबारगी कहने को मन करता है, आखिर मराठा मरता-मारता क्यूं है , और उसके पास इस हुड़दंग के अलावा और कोई काम नही है क्या ? खैर मेरा मन इस बात को मानने से साफ इंकार करता है कि महाराष्ट्र केवल राज ठाकरों से भरा पड़ा है , आशा भोंसले के फैसले ने इसे साबित भी किया है। लेकिन राज ठाकरे के हुड़दंगपन पर चुप्पी क्यों , क्यू महाराष्ट्र की सरकार वाजिब कदम उठाने से इंकार कर रही है और क्यूं वहां का शासनतंत्र खामोशी से इसे देख सुन रहा है ... और आखिर में ये सवाल कि इन ठाकरों की ठकुरसुहाती क्यूं ?