शनिवार, 25 जुलाई 2020

समय और सांप ...

अब वर्चुअल का जमाना तो है ही और ऊपर से यह कोरोना-काल । सुबह से ही व्हाट्स ऐप पर हैप्पी नागपंचमी , नागपंचमी की शुभकामनाएं वाले संदेशों का तांता लगा है। कुछ दंशग्रस्त आस्तीन के सांपो का उल्लेख कर रहे हैं और कुछ संपोलो का भी।... लेकिन इन संदेशों की परत को पलट कर गौर फरमाएं तो सांप/नाग और नागपंचमी अब दोनों ही कुलांचे मारती- सरपट भागती इस सभ्यता और समय का शिकार हो गए हैं।

ऐसा नहीं है कि मैं कोई सांप विशेषज्ञ हूं लेकिन सांपो के प्रकार-आकार से बचपन और कुछ समय बाद तक पाला पड़ता रहा है। स्कूल में था तो कुछ साथी कहते थे कि यदि ढ़ोरहा सांप को आप छू ले तो पैसे की प्राप्ति होती है... अब ऐसे में जबकि जेब में पच्चीस/पचास पैसे का सिक्का खुशी का जलप्रपात था और स्कूल में मध्यातंर में फारगो मेंटल वाले डिब्बे में घूमती-विचरती पांच पैसे वाले बिस्किट और चॉकलेट पर ललचाई निगाह जाती तो फिर एक दो बार ट्राई मारने में आखिर हर्ज ही क्या था ?

वैसे जो सबसे ज्यादा परिचित सांप था – वो था हरा-हरा । नाम के मुताबिक ही हरे रंग का। कुछ कहते जहरलेस है । लेकिन सांप किसी भी वैराइटी का हो आखिर कौन उससे पंगा ले ?!!! और हम कोई संपेरे तो थे नहीं । आप कहीं जा रहे हो, किसी पतली गली से गुजर रहे हो... हरा-हरा अचानक से आपके सामने से सरसराता हुआ निकल जाता या फिर दीवार के नीचे से किसी बिल से झांकता हुआ दिख जाता । शायद बारिश के दिन थे । स्कूल के पीछे अंबे सिनेमा की तरफ जाती हुई एक गली थी। शाम की घंटी बजी। स्कूल से निकलकर अपने में मगन घर के रास्ते अपने दो पग डगमग बढ़ाए जा रहा था कि अचानक से हरा-हरा महोदय गली में किसी बिल से शायद मेरी तरफ लपके। मेरी तो सिट्टी-पिट्टी गुम। सांप महोदय के प्रति वो डर अब भी मन-मस्तिष्त के किसी कोने में कायम है।

एक दूसरी वैराइटी जिससे पाला पड़ा वो था अधसर । तुलनात्मक रुप से भारी भरकम और कुख्यात । लोग कहते कि अधसर बहुत ही जहरीला सांप है। एक बार स्कूल की पांचवी-छठी क्लास के छप्पर से अधसर समुदाय के एक सदस्य जिमनास्टिक करते हुए लटके हुए थे। विद्यार्थी नीचे ज्ञान अर्जित कर रहे थे। किसी की नजर पड़ी और फिर हाहाकार मच गया। मैं भी बगल की चौथी कक्षा में ज्ञान अर्जन में जुटा था। खैर वीर पुरुषों और रणबांकुरों से इलाका खाली नहीं था। खनती-बांस के साथ पल भर में लोग मौके पर प्रकट हो गये। अधसर अकाल मृत्यु को प्राप्त हुआ।

एक वैराइटी करैत के बारे में भी खूब सुनने को मिलता । लोग कहते कि करैत का काटा पानी भी नहीं मांगता। करैत मारने की वीरगाथाएं भी खूब सुनने को मिलती। ... लेकिन हरा-हरा, ढ़ोरहा, अधसर के विपरीत करैत महोदय से कोई खास परिचित नही हो सका। खैर इसे मेरा सौभाग्य ही कहिए।

ऐसा नहीं है कि मैं केवल प्राकृतिक सांपो से परिचित हुआ। फिल्मों, पटाखों और कॉमिक्स की दुनिया में भी सांपों के कोई कम दर्शन नहीं हुए। राज कॉमिक्स वाले नागराज महोदय से तो मैं खासा परिचित था। त्वजा हरा-हरा सांप जैसी , बदन गठीला और मुख मनुष्य माफिक।... और मानवता की सेवा में सदा तत्पर। स्कूल की पढ़ाई के दौरान थोडांगा को पराजित करने से लेकर मानवता और ब्रह्मांड को चुनौती देती दानवी ताकतों पर उनकी विजय की घोषणा करते हर पवित्र पुस्तक का पाठ किया मैंने ।

दीवाली आती तो प्रदूषण उत्पादित करने के साथ-साथ हम नागदेवता का भी सृजन करते। पटाखों के जखीरे में सांप भी हमलोगों की पसंद में शामिल होता। गहरे लाल-काले रंग की कूट की डिब्बी में दस छोटी-छोटी काली गोटियां होतीं। किसी भी काली गोटी को निकालिए और प्रज्ज्वलित तीली से उसे परिचित कराइए... धुर काले रंग का एक सांप फनफनाते हुए प्रकट हो जाता । साथ में ढ़ेर सारे काले धुएं का आभामंडल ।

ऐसे में जबकि सिनेमा हमारी धमनियों और शिराओं दोनों में ही प्रवाहित हो रहा हो तो सिनेमाई सांपो-सांपिनों को कैसे भूल सकता है भला । बचपन में नगीना फिल्म शायद कुमार टॉकीज में देखी थी। फिर तो सांप के साथ-साथ संपेरों से भी डर लगने लगा ।

खैर बात नागपंचमी से शुरु हुई थी। बचपन में हमारे लिए नागपंचमी का मतलब दाल की पूड़ी ,खीर और आलू-गोभी की सब्जी थी । घर के बाहर कटोरी में दूध और मकई का लावा रखा जाता। नागपंचमी बुआ के यहां किसी और दिन मनती और हमारे यहां किसी और दिन । एक दिन वहां पूड़ी-खीर खाई जाती और एख दिन अपने यहां। बुआ के घर से आगे नागपंचमी का मेला भी लगता। तमाम आकार-प्रकार के सांपों के साथ संपेरे वहां आते। हालांकि सांपो के प्रति अपने डर को मन के किसी तहखाने में धक्का देकर मैं दो-तीन बार नागपंचमी का मेला घूम आया। खैर समय की चक्की में नाग और नागपंचमी दोनों ही पिसकर विलीन हो रहे हैं ।

विश्वविद्यालय में कदम रखा तो सांप के साहित्यिक संस्करण से दो-चार हुआ। मेरे एक तत्कालीन घनिष्ठ मित्र के कमरे में दरवाजा खोलते ही सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय की कविता- सांप बिल्कुल सामने दीवार पर चिपकी हुई थी।

सांप
तुम सभ्य तो हुए नहीं
नगर में बसना भी तुम्हें नहीं आया ।
एक बात पूछूं—(उत्तर दोगे ??)
तब कैसे सीखा डंसना—
विष कहां पाया  ?

6 टिप्‍पणियां:

  1. रजनीश के लेख को एक सांस में पढ़ा जा सकता है।

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    1. रजनीश का सांप वाला लेख पढ़कर अच्छा लगा ।इनका तो सांपों से बहुत बार पाला पड़ा है

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  2. रजनीश जी,आपके लेख ने बचपन की यादों के जीवंत दर्शन करा दिए। बहुत बेहतरीन कलम के सिपाही हो आप तो।
    👌🏻👌🏻👌🏻

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  3. रजनीश जी,आपके लेख ने बचपन की यादों के जीवंत दर्शन करा दिए। बहुत बेहतरीन कलम के सिपाही हो आप तो।
    👌🏻👌🏻👌🏻

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  4. हाहा ... सही कहा सांप की कमी नहीं थी मेरे गाँव और घर में. अधसर और करेंट तोह कई बार मेरे घर मे दिख जाता था. नागपंचमी के दिन अगर ज्यादा सांप देखना तोह टठिया नहीं तो सागि. 100-200 सांप लपेटे हुवे भगत घुमते थे... वाकई कमाल का दृश्य था...

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