शनिवार, 31 अगस्त 2013

कानून का घुटना कचक गया है ?

कभी-कभी लगता है कानून को कोई न कोई बीमारी जरुर है। हो सकता है कलर ब्लाइंडनेस का शिकार हो गया हो या फिर आर्थराइटिस का मरीज बन बैठा हो । मेरे हिसाब से हो न हो जोधपुर से इंदौर के बीच के सफर में कानून का घुटना जरुर कहीं न कहीं कचक गया होगा। अब `बेचारा` कानून दो-चार दिन बेडरेस्ट कर ले तो ऐसी क्या आफत आ जाएगी ? ज्यादा फायं-फायं कीजिएगा तो हो सकता है किसी प्रमाणित डॉक्टर का कोई स्वास्थ्य प्रमाण-पत्र आपको पकड़ा दे कि जनाब मामला जेनुइन है  और आप ही सोचिए... वो बेचारा और कितनों से पंगा ले , कुछ ही तो संगी-साथी हैं उसके । गिनती के लोग ही तो कानून के साथ चाय-चुक्कड़ कर पाते है, हंसी-ठिठोली कर पाते है । और तिस पर ये तो बाबा जी ठहरे।

अब बात थोड़ी पुरानी । राजा भैया जेल से छूटे । पोस्टर चिपका दिया उनके चंपूओं ने सत्य परेशान हो सकता है , पराजित नही । अब बेचारे सत्य को उबकाई आने लगी । आखिर क्या करे ?  पहले ही दबा-कुचला था , अब तो खैर रही सही इज्जत भी नीलाम हो गयी । फिल्मों में अक्सर इस डॉयलॉग से आप दो-चार हुए होंगें जब जमाने की जंजीरों में जकड़ा बाप बच्चों को अपनी मुर्दानी शक्ल में रो (कह) रहा होता है   बेटा हम गरीबों के पास केवल इज्जत ही तो है। मतलब सत्य की बची-खुची इज्जत पर भी डाका डाल दिया भैया जी के छुटभैयों ने ।

इन दिनों आशाराम बापू के तर्कवान चंपू यह तर्क स्खलित कर रहे दिखते हैं कि कानून को अपना काम करने देना चाहिए । (बापू माफ करना , मजबूरी है, जमाना ही चिरकुट है, लोग पहले ही बापू, भैया, मां जोड़कर पूरी दुनिया को अपना खानदान बना डालते हैं)  मीडिया को रह-रह कर गरिया-गलिया रहे हैं, लपड़ा-थपड़ा रहे हैं, मानो बेचारा कानून मीडिया की वजह से मूर्च्छित पड़ा है , अपना काम नही कर पा रहा ।

तरंग घोटाले में आरोपी राजा जी जेल से हाल ही में निकले । कानून पर पूरा भरोसा जताने से वो भी नही चूकते । यानि कि जिसको देखो सब कानून पर भरोसा जता रहे हैं। आखिर ऐसा क्या है इस देश की न्याय व्यवस्था में और कानून में जो राजा भैया से लेकर पप्पु यादवों तक को और ए-बी-सी राजाओं से लेकर आशाराम भगंदरों तक को खूब रास आ रही है ?

अक्सर लिखा हुआ देखता हूं कि कानून के हाथ लंबे होते हैं , भगवान के घर में देर है अंधेर नही, ऊपरवाले की चक्की बारीक पीसती है और अलां फलां । इन दिनों अक्सर लगता है ऊपरवाला यदि है तो पीकर पूरी तरह टल्ली है और कानून है कि सेल्फ-कांफिडेस के अभाव का मारा है।



बुधवार, 28 अगस्त 2013

अल्युमीनियम के वो सिक्के अब भी उछाले जाते हैं क्या ?

दोपहर के करीब बारह बजे थे। चाय की दुकान सुबह की पहली शिफ्ट के बाद खर्राटें ले रही थी। निराशा-हताशा के साथ वापस लौटने को था। अचानक सामने से एक लाश गुजरी। सारी सुस्ती के बावजूद शरीर में बसे संस्कार ने मरोड़ ली , बिना किसी कोशिश के हठात ही हाथ प्रणाम की मुद्रा में दंडवत था। फिर बड़े बूढ़ों का कहा याद आया। सुबह-सुबह लाश देखने से दिन शुभ होता है। पता नही दिन के बारह बजे की गिनती सुबह में की जाय या नही , दिमाग के किसी कोने में हलचल हुई। मुफ्त का माल बटोरने के लिए एकबारगी मस्तिष्क से तर्क उपजा शहर की सुबह तो वैसे भी बारह बजे से ही होती है।

चाय की सामयिक खुराक के बिना आंतरिक कुलबुलाहट में उलझे तन-मन को सुबह की इस आखिरी यात्रा ने एक और नयी उलझन दे दी। आखिर इतना चुप-चुप क्यों ? अर्थी अब गली के आखिरी छोर पर थी। कंधे पर अर्थी लिए चार लोगों के अलावा मुश्किल से आधे दर्जन लोग और। सब के सब चुप।  कहीं किसी कोने से `राम नाम सत्य है` की ध्वनि-प्रतिध्वनि नही । बचपन और किशोरावस्था के दौरान की तस्वीरें मन-मस्तिष्क के सामने से गुजरने लगी। अपने या अगल-बगल के मुहल्ले या फिर किसी रिश्तेदार की मौत होती तो लोगों की अच्छी खासी भीड़ जमा होती। न जाने कितनी बार सिमरिया-चमथा हो आया हूं इस चक्कर में। फिर बांस का जुगाड़ होता और अर्थी बनाने वाले कारीगर का। यहां तो खैर रेडीमेड चचरी तैयार मिलती है मानो किसी के मरने के इंतजार में ही बैठी हो। अच्छी खासी संख्या में लोगों के साथ मृतक का आखिरी सफर शुरु होता। जिनके साथ रिश्ते जीवित जीवित रहते भी ठीक नही होते वो भी ऐसे समय में संवेदना प्रकट करने पहुंचते। एक-दो लोग किसी झोले में मखान और अल्यूमीनियम के पैसे लिए होते। `राम नाम सत्य है` के नारे लगाए जाते और मखान-सिक्के लिया हुआ शख्स उन्हें उल्टी दिशा में उछालता।

फिर लगा शहर में इतना सब संभव कहां ? दस बजे तक सबको ऑफिस पहुंच जाना है। जरा सा देर हुए नहीं कि बॉस की घुड़की। और बॉस भी बेचारा क्या करें उसे महाबॉस की घुड़की। ऊपर से मंदी का समय। नौकरी पर वैसे ही आफत बनी है। कोई कितना रिस्क ले ?

अंतिम बार मशहूर फिल्मकार मणि कौल के दाह संस्कार के समय दिल्ली  के एक क्रीमेटोरियम गया था। ऑफिस से अपना ताम-झाम समेट कर निकलने ही वाला था कि एसाइनमेंट डेस्क से वहां पहुंचने का आदेश हुआ। एम.ए. के दिनों की बात है फिल्मकार कुमार साहनी एक दफा क्लास लेने आए । न्यू वेव सिनेमा पर उन्होंने चर्चा की। मणि कौल के बारे में बताया । मणि कौल की दुविधा और कुमार साहनी की माया दर्पण भारत में न्यू वेव सिनेमा की शुरुआत कही जाती है । लगा कि काफी जमघट होगा । पहुंचा तो गिनती के लोगों को वहां पाया। जहां तक मुझे याद है गिनती के दो दर्जन से ज्यादा लोग नही होंगें। फिल्म, नाटक जगत के कुछ लोगों के साथ कुछेक रिश्तेदार । जब तक था, हमारे अलावा बस एक और चैनल का कैमरामैन ही दिखा।

दलसिंहसराय और अगल-बगल के इलाके में अक्सर दाह-संस्कार के लिए चमथा या सिमरिया का रुख किया जाता। हम बच्चों के लिए यह गम का कम, पिकनिक का समय ज्यादा होता। गंगा नदी के किनारे दाह-संस्कार, फिर गंगा स्नान और तब नजदीक के झोपड़ीनुमा होटल में पूरी-सब्जी-जिलेबी। गंगा किनारे बलुआही जगह पर हम बच्चें खूब धमा-चौकड़ी मचाते और बड़े-बुजुर्ग बकैती करते। कुछ दाह-संस्कार के एक्सपर्ट होते , जिनकी निगरानी में पूरी प्रक्रिया संपन्न होती। कुछ लोग पिछले श्राद्धों के जिक्र में जुटे होते तो कुछ मोहल्ले और परिवार की पॉलिटिक्स में। कुछ तो जीवन-दर्शन में गुम हो जाते,  देश-दुनिया तक को अपनी बतंगड़ी की जद में ले आते। ... और हां आते-आते लोग सिमरिया से अन्नानास लाना नही भूलते।


दिल्ली और दलसिंहसराय हालांकि अब भी करीब हजार किलोमीटर है लेकिन बीच की यह दूरी शायद एक भ्रम ही है। ऐसे में सवाल है कि अल्युमीनियम के वो सिक्के अब भी उछाले जाते हैं क्या ?

रविवार, 25 अगस्त 2013

“निकला हूं सच की तलाश में , ये जग तो है माया तेरा “

साल 1997, इंडिया टुडे शायद कुछ महीने पहले ही पाक्षिक से साप्ताहिक हुई थी। नया-नया चस्का लगा था। पीछे के पेज से शुरु कर आगे के कार्टून तक एक ही बैठक में निपटा देता था। कभी खरीदकर तो कभी भाड़े पर। सात रुपये की मैग्जीन थी और भाड़े पर का चार्ज एक रुपया। लेकिन इस सप्ताह शायद कुछ खास था। क्या था, पता नही। मार्केट से इंडिया टुडे सफाचट। बहुत ढ़ूंढ़ा , खोजबीन की, लेकिन इंडिया टुडे पहुंच से बाहर। बाद में पता चला इंडिया टुडे के इस अंक ने सरकार गिरा दी।

साल 1999, अशोक राजपथ पर हमेशा की तरह टंडेली में जुटा था। इधर से उधर , उधर से इधर। राजकमल प्रकाशन वाली दुकान के नजदीक इंडिया टुडे के पुराने अंको के जखीरे पर एकाएक नजर गयी । सामने वहीं अंक नमूदार । दो रुपया देकर फटाक से उसको अपना बना लिया। दरअसल इंडिया टुडे के उस अंक में राजीव गांधी हत्याकांड पर जैन आयोग की रिपोर्ट लीक हुई थी जिसकी तमाम इशारेबाजी में एक इशारा डीएमके की तरफ भी था। डीएमके पर रामो-वामो और कांग्रेस के बीच जिच ने गठबंघन की गांठ को खोलकर रख दिया।

साल 2013, फन वीथ्रीएस में मद्रास कैफे देखी तो एकबारगी पुरानी यादें ताजा हो गयी। फिल्म देखने से पहले काफी रिव्यू पढ़ा, दोस्तों के अपडेट पढ़ें । बहुत सारे लोगों ने कहा कि बॉलीवुड पर फिर से भरोसा बना है। कुछ ने कहा सत्य के काफी करीब। कुछ विवाद भी उठे, लिट्टे के चित्रण को लेकर। वैसे भी कुछ दिनों पहले बाकियों सहित दुर्घटना का शिकार होने वालो  में मैं भी था। चेन्नई एक्सप्रेस की चपेट में न जाने कितने घायल , मूर्च्छित और हताहत हुए और जिस तरह की लगातार रपटें आ रही हैं , उससे तो आप वाकिफ होगें ही। फिर भी शक-सुबहे पर भरोसे को तरजीह देने का जोखिम मोल लिया ... और वैसे भी जॉन अब्राहम की मौजूदगी संदेह को स्वाभाविक बना देती है।

हालांकि समीक्षकों की सूक्ष्म और स्थूल नजर से लैस नही हूं, लेकिन फिल्म अपनी तमाम आदतों-कुआदतों में से है। फिल्म काफी अच्छी लगी और सुजीत सरकार के साहस और हुनर का खास तौर पर कायल हूं, जिन्होंने जॉन को फिल्म पर ज्यादती न करने दी।... लेकिन जहां तक फिल्म के विषय से जुड़े तथ्यों की बात है फिल्म खुद-ब-खुद संदेह का धरातल तैयार करती है। इंटरनेट को खंगाले तो तमाम तरह की रपटें मिलेंगी। जैन कमीशन की रिपोर्ट जिसने सरकार गिरा दी, उसके निष्कर्ष मिलेंगें । यह फिल्म इन तथ्यों और निष्कर्षों पर जुल्म करती नजर आती है, बेइंतहा जुल्म। लिट्टे के भारतीय कनेक्शन पर फिल्म चुप्पी साध लेती है। कोलंबों भी भारतीय उच्चावास तक सीमित रह गयी दिखती है। दिल्ली भी नौकरशाहों के माध्यम से ही चित्रित है। राजनीतिक चरित्रों की अनुपस्थिति खलती है। एक बड़े और ज्वलंत मुद्दे पर बनी फिल्म यहीं आकर मात खाती दिखती है और संतुलन खो देती है। केवल `फॉरेन कनेक्शन` के कुछ अस्पष्ट दृश्य और उच्चारण इस असंतुलन को पाट नही सकते।

फिल्म का एक गाना है- निकला हूं सच की तलाश में , ये जग तो है माया तेरा। अन्त में इतना ही कह सकता हूं कि सच की तलाश में देखने आये दर्शकों को यहां माया ही हाथ लगेगी। वैसे भी सच कभी अधूरा नही होता और न ही हो सकता है।

बुधवार, 21 अगस्त 2013

यात्राएं मूर्तिभंजक होती हैं ...

अपनी जिंदगी में अक्सरहां ही हम रुढ़ छवियों से बंधें होते हैं । उन छवियों के मुताबिक विचारते हैं , आचरण करते हैं। हर एक को एक खास शब्द-छवि दे देते हैं और उस पर अटूट भरोसे के साथ उत्तोरत्तर उस छवि को और गहरा करते जाते हैं । फिर अपनी पारिस्थितिकी में ही समान विचार वालों में उसके प्रतिबिंबों की मौजूदगी से उन विचारों-छवियों को वैध मान लेते हैं । यानि कि एक दुश्चक्र है जो कि अनवरत जारी रहता है जब तक की कोई घुसपैठ न हो। कह सकते हैं कि ज्यादातर मामलों में हमारी स्थिति कुएं के मेढ़क समान है... कूपमंडूक जैसी। हां एक चीज जो इस पर खासा चोट करती है - वो है घुमक्कड़ी , अपने परिवेश के बाहर का अनुभव।

संत ऑगस्तीन की मशहूर उक्ति है- पूरी दुनिया एक किताब है और जिन्होंने यात्रा नही की , उन्होंने इसका केवल एक ही पन्ना पढ़ा है। यात्राएं अक्सर अपने पालतू विचारों को चुनौती देती हैं या कहें कि जिन विचारों के आप पालतू जीव होते हैं, उनकी रुढ़ता की जड़ में मट्ठा डालने का काम करती है। इन्हीं रुढ़ विचारों में से एक है- देहाती गंवार-बेवकूफ होते हैं जबकि शहरी चालाक। ऐसे मूर्तिवत विचारों की फेहरिस्त लंबी हैं, लेकिन चर्चा इस बार इसी प्रतिमा की।

चतरा में चाचा जी से भेंट

सरकार के नक्सल-विरोधी अभियान की कवरेज के सिलसिले में एक बार झारखंड जाना हुआ। लोगों के बीच इसकी प्रतिक्रिया जानने के सिलसिले में चतरा के एक गांव में था। कई लोगों से बात हुई। आस पास काफी तादाद में लोग जुटे थे। बिल्कुल नया-नया मैदान में था। बातचीत की टोन और चेहरे-मोहरे से मेरा बिहारी होना साफ झलक रहा है। लोगों से बात कर ही रहा था कि एक बुजुर्ग से शख्स ने अचानक से एक सवाल पूछा- सर कहां के हैं आप ? मैने कहा बिहार से। इतने में उस शख्स के चेहरे पर मुस्कान का तूफान उमड़ने लगा , मानो मन में मंडराते उसके विचारों की पुष्टि हो गयी हो। कहा कि अरे आप तो हमारे भतीजा हैं ! इतने लोगों के बीच मैं हैरान । मैने अपनी शंका उछाली- कैसे ? शख्स का जबाव मिला- अरे पहले बिहार और झारखंड तो एक्के था न , हम और आपके पिताजी भाई-भाई हुए कि नही ?

बथनाहा का बहुरुपिया
साल 2008 की बात है। बिहार के एक बड़े हिस्से में बाढ़ धधक रही थी। कवरेज के लिए पूर्णिया जाना हुआ। पत्रकारिता में उस समय नया-नया था, दूध के दांत तब तक अपनी जगह जमे थे। बाढ़ कवरेज का पहला दिन था। पूर्णिया शहर से कुछ किलोमीटर दूर बथनाहा राहत शिविर की रिपोर्ट बनाने के सिलसिले में वहां पर था। अचानक से एक काफी बुजुर्ग शख्स ने मुझे पकड़ लिया। कहने लगे कि आपको चलना ही होगा, कोई नही गया है हमारे तरफ... और भी लोगों से कह-कह कर थक गया हूं। बहुत ही बुरा हाल है हमारे यहां, बस 10-12 किलोमीटर पर है। मैनें कहा- ठीक है चलिए। अब वो सज्जन हमारे साथ सूमो में , और उनके साथ के कुछ लोग पीछे बाइक से। खैर वहां से निकला तो 10-12 किलोमीटर न जाने कब पीछे छूट गए। पहले मुख्य सड़क , फिर छोटी सड़क, फिर कच्ची ... गांव अभी भी उन सज्जन के शब्दों में कुछ ही दूर पर था। अब तो खैर आगे जाना और भी मुश्किल था , गाड़ी बमुश्किल ही आगे जा रही थी । एक दो बार तो गाड़ी के रास्ते के लिए पीछे बाइक से आ रहे सज्जनों ने रास्ते पर मिट्टी काटकर भी भरा। कड़ी धूप में सब पसीने-पसीने । सूमो में बैठे सज्जन रास्ते भर बाढ़ से लेकर ब्रह्मांड की समस्याओं से मुझे अवगत कराते रहे। शायद गांव के मंदिर में पूजा-पाठ की पार्टटाइमिंग भी करते थे। खैर हम किसी तरह बचते-बचाते गांव पहुंचे... पतली सी कच्ची सड़क के दोनों तरफ सैकड़ों लोग बिखरे पड़े थे। अस्थायी झोपड़ियां बनी थी और मैले कपड़ों में बच्चों से लेकर बुजुर्गों की अच्छी-खासी संख्या धूप-पानी-भूख से संघर्षरत थी। आगे सड़क कटी हुई थी और कोसी भटककर यहां प्रवाहमान थी। मैं अभी अगल-बगल माहौल भांप ही रहा था कि इतने में सूमो में मौजूद शख्स फटाक से निकले और कमर भर पानी में चले गए। अभी तक जो शख्स पूरी तरह नॉर्मल दिख रहा था, मेरे साथ सामान्य तरीके से बातचीत कर रहा था , अचानक से पानी के बीच आंसू उगलने लगा। मैं हैरान-परेशान । लोगों की अच्छी खासी भीड़ पानी के भीतर और पानी से बाहर उसके चारों तरफ जमा होने लगी। वह आदमी लगातार मेरी तरफ देखे जा रहा था और रोए जा रहा था और इस रोने और देखने के बीच बोल भी रहा था। दरअसल उसके निशाने पर गांव का मुखिया था। उसके मुताबिक गांव के मुखिया ने राहत-सामग्री हड़प ली थी । इऩ आरोपों के बीच उसकी अतिनाटकीयता और अचानक से उसकी भाव-भंगिमा के बदलाव ने कुछ सेकेंडों के लिए मेरी चेतना लुप्त कर दी । जब होश आया तो उस गांव के राजनीतिक प्रपंच में खुद के उपयोग किए जाने का अहसास हुआ।


सोमवार, 19 अगस्त 2013

कब्रगाह बनती स्कूलें , घंटा बनते मास्टर साहब...

मेरा एक मित्र दिल्ली में इन दिनों मास्टरी कर रहा है। दसवीं की भूगोल की क्लास थी। सामने के बेंच पर बैठे एक गंभीर से दिखने वाले विद्यार्थी से उसने पूछा कि गैलेक्सी क्या है ? बच्चे का जवाब था- नया वाला मोबाइल।

अब दूसरे मास्टर साहब और उनके चेले की कहानी सुनिए ---
मास्टर साहब ने क्लास में खड़ा करवाकर हर एक बच्चे से पूछा बताओ आगे चलकर क्या बनोगे । ज्यादातर बच्चों ने इंजीनियर, डॉक्टर और एकाध ने टीचर बताया। एक बच्चे ने कहा- आई एस आई का सीक्रेट एजेंट। मास्टर साहब अचंभित। कान-आंख-कांख के साथ दिमाग खुजलाते हुए पूछा- क्यूं भाई ? बच्चे का जवाब था देश के दुश्मनों को मारने के लिए। मास्टर साहब के दिमाग का खाज बढ़ गया और बच्चा था कि देशभक्ति के सार्वजनिक एलान के बाद फूलती धमनियों को किसी तरह जज्ब करता रहा।

आपको लगा होगा कि ये सब मनगढ़ंत है , लेकिन आप खुद भी इस नुस्खे को आजमा कर देख सकते हैं । दिल्ली से दरभंगा तक सरकारी स्कूलों का दौरा करें , सवालों के जवाब आपको ऐसे ही उटपटांग मिलेंगें। इससे इतर इक्का-दुक्का जवाब शायद ही आपको मिले। अभी हाल में ही कुछ विद्यालयों में नवीं-दसवीं की उत्तर-पुस्तिका से दो-चार हुआ। उत्तर और कॉमेडी लाफ्टर शो की स्क्रिप्ट में शायद ही आफ अंतर कर पाएंगे। मसलन ग्रह गोल होता है , तारा तिकोना होता है। हिमालय की उत्पत्ति के संबंध में कौन-कौन सी विचार धाराएं हैं का जवाब था- समाजवाद और कांग्रेस। (और आपको अब भी कोई शंका हो तो भारत में शिक्षा की हालत पर गैर सरकारी संगठन `प्रथम` की बासी और ताजा `असर` रिपोर्ट पर नजर डाल सकते हैं) ।अब आप पूछेंगें कि फिर छात्र उत्तरोत्तर अगली कक्षा में कैसे ? भाई साहब हर किसी को अपना परफॉर्मेंस बेहतर चाहिए... और फिर शिक्षक भी हम-आप जैसे इंसान ही तो हैं। मामला ठीक वैसा ही है जैसा क्राइम तो दिन दुना- रात चौगुना की रफ्तार से बढ़े, लेकिन थानेदार हो कि एफआईआर करने से ही इंकार कर दे।

कई दोस्त हैं, जो दिल्ली समेत कई राज्यों में मास्टरी में जुटे हैं। अक्सरहां ही उनसे बातचीत होती रहती है। केंद्रीय विद्यालय, सैनिक स्कूलों, नवोदय और गिने चुने विद्यालयों को छोड़ दे तो पाएंगें कि सरकारी विद्यालय खुद ही रास्ता भटक गए हैं। इन स्कूलों के प्रिसिंपल दाल-चावल की डंडीमारी में जुटे हैं या फिर बच्चों की वर्दी-किताब और दूसरी सुविधाओं पर कब्जा जमाने में। ठेका पर के शिक्षकों की हालत या तो बदतर है या फिर वो भी प्रिसिंपल को कुछ ले-देकर मजा लूट रहे हैं। उनके अनुपस्थिति का उपस्थिति में जादुई परिवर्तन शिक्षक-प्रिसिंपल दोनों के बीच प्रेम-सौहार्द को दिन-ब-दिन प्रगाढ़ कर रहा है। खैर खस्ताहाल शिक्षा-व्यवस्था की दरारों को और चौड़ा करने में सरकारी नीतियां भी कम गुनहगार नही। शिक्षकों के पद सालों से खाली पड़े हैं लेकिन भर्ती की जगह ठेका को नियम सा बना दिया गया है। अब आप ही बताइए इन चिप्पियों-पैबंदों से आखिर कब तक काम चलेगा ? स्कूलों में एक तो ठेके के शिक्षकों का नया अछूत वर्ग विकसित हुआ हैं, वही दूसरी ओर इन शिक्षकों में से अधिकांश की सीरियसनेस सिरे से गायब है।...और वैसे भी प्रिसिंपल साहब दाल-चावल की डंडीमारी करेंगें तो बाकी के शिक्षक कितने संजीदा होगें , कल्पना की जा सकती है।

समस्या केवल इतनी ही नही है। शिक्षकों को उत्तोरत्तर मंदिर के घंटे की तर्ज पर इस्तेमाल किया जा रहा है। बच्चों के स्वास्थ्य की जिम्मेदारी से लेकर जनगणना-मतगणना तक उनकी खूब जुताई होती है । पहले मिड-डे मील की जिम्मेदारी और अब फूड-टेस्टिंग की भी । कुछ दिनों पहले छपरा में करीब दो दर्जन बच्चों की मौत के बाद मिड-डे मील और शिक्षा व्यवस्था को लेकर एक बहस उठी। आज इन बच्चों की कब्र उसी स्कूल में दफन है जहां घर के बाहर पहली बार बाहरी दुनिया में उन्होंने कदम रखा । कहते हैं हजारों साल पहले छपरा के इलाके में गौतम ऋषि का आश्रम था। इंद्र के फेर में उनकी पत्नी अहल्या यहीं अपने पति से शापित हुई और पत्थर हो बैठी । राम वनवास के दिनों में जब इधर से गुजरें तो अहल्या का उद्धार हुआ । ... शायद छपरा के गंडावन में अकाल मरे बच्चों और बीमार स्कूल की कब्र समाज औऱ सरकार को शिक्षा-व्यवस्था का उद्धार करने को प्रेरित करे। इतनी उम्मीद तो की ही जा सकती है।

पोस्ट-स्क्रिप्ट-
उम्र के इस पड़ाव पर रोजगार के साथ शादी के चर्चे-किस्से तो दोस्तों तो लाजिमी हैं। एक ठेके पर के शिक्षक के रिश्ते के लिए लड़कीवाले उसके घर पहुंचे। लड़के और उसके पूज्य बाबू का डिमांड आया- ग्यारह लाख का। ग्यारह अंक तो वैसे भी शुभ होता है आप तो जानते ही हैं। लड़की के भाई ने थोड़ी देर तक न जाने क्या-क्या सोचा और फिर लड़की के भाई ने लड़के वालों से सवाल पूछा आपके घर में कोई ब्याहने लायक लड़की है क्या ? अब लड़के वाले हतप्रभ ... पूछा क्यों ? भाई ने बोला हमारे घर में भी ठेके वाले चार-चार हैं और हम पांच-पांच में करने को तैयार है ?


शुक्रवार, 9 अगस्त 2013

आलू अनुसंधान -- शिमला वाया पटना

ईस्ट ईंडिया कंपनी का दूत टॉमस रो जब अपने भारत प्रवास पर था तो मुगल-मल्लिका नूरजहां के भाई आसफ खान ने उसके सम्मान में दावत दी । टॉमस रो के साथ ही यात्रा कर रहे एडवर्ड टेरी ने अपने यात्रा-वृतांत `अ वोएज टू ईस्ट इंडिया` में इस दावत का खास तौर पर जिक्र किया है (टेरी के ही मुताबिक यह टॉमस रो साहब का इस टाइप का इकलौता सम्मान था)। भांति-भाति के रुप-रंग के चावल से बने व्यंजनों और मुर्ग-मुसल्लम के बीच आलू भी इस दावत में उपस्थित था । इसके अलावा टेरी ने अपनी किताब में भारत के भारत के उत्तरी इलाकों में सेव और नाशपाती की विभिन्न किस्मों के अलावा गाजर और आलू की हाजिरी पर भी हामी भरी है। भारतीय इतिहास में आलू का यह शायद सबसे पुराना जिक्र है।
पता नही कितने `राष्ट्रवादियों` की भावना इससे आहत हो जाए, लेकिन सच यही है कि आलू की नस्ल भारतीय नही है । यह बिल्कुल उसी तरह अपनी है, जिस तरह गांधारी, हेलेना और न जाने कितनी बहुएं हमारे यहां आयी और हमारे सेक्यूलर नेचर ने उन्हें अपना बना डाला।... आलू का आगमन भारत में पूर्तगालियों के आवागमन के दौरान हुआ, जिन्होंने सबसे पहले इसे भारत के पश्चिमी किनारे पर उगाया, जहां इसे बटाटा कहा जाता था। खैर इस पोस्ट का मकसद आलू की हिस्ट्री-ज्योग्राफी-सोशियोलॉजी का बखान नही है, असल मकसद इसके पटना-कनेक्शन से है।

बिहार सहित भारत का पूर्वी छोर वो इलाका है जहां सरकार इन दिनों हरित-क्रांति-2 के लिए कमर कस रही है। आबादी जहां दिन-दूनी रात चौगुनी की रफ्तार से उफन रही है और डेवलपमेंट की मानो आंखें फूटी हुई है  । बीमारू राज्यों का भी सबसे बीमार हिस्सा। हालांकि आशीष बोस के दिए इस शब्द से इन दिनों परहेज किया जा रहा है । कभी-कभी लगता है कि आखिर विकास इनकी चौखट तक आते-आते क्यों हांफने लगता है ? फौरी तौर पर कभी अपनों को तो कभी औरों को गरिया-गलिया कर तेजी से वाष्पित होते दिमागी तरल पर लगाम लगा दी जाती है , लेकिन कभी-कभी दिमागी रिएक्टर के तीव्र वाष्पीकरण  पर भारी-जल औऱ ग्रेफाइट वाले पुराने नुस्खे असरहीन से होते लगते हैं। ऐसे में यदि अतिवादी ख्याल आ जाए कि कहीं न कहीं कुछ गड़बड़झाला है तो मुझे लगता है कि मुझे माफ किए जाने की जरुरत है। उन तर्कों-तथ्यों को जुटाकर मन को शांत करने की कोशिश करता हूं कि इसके बदतर वर्तमान के पीछे अतीत में इसके साथ का सौतेला बर्ताव है।

खेती से प्राण पाते इस इलाके से आईएआरआई के स्थानांतंरण का जिक्र तो पिछले पोस्ट में कर चुका हूं , लेकिन इस बार जिक्र साल 1949 में पटना से अपने सफर की शुरुआत करने वाले सेंट्रल पौटेटो रिसर्च इंस्टीट्यूट यानि केंद्रीय आलू अनुसंधान संस्थान की । पटना में 10 एकड़ जमीन पर बैरक समान एकतल्ला इमारत में इस संस्थान ने अपनी आंखें खोली , लेकिन अब अपने जवानी के दिनों में हिल स्टेशन शिमला की पहाड़ियों पर बैठा है। साल 1956 में अनुसंधान की जरुरतों का हवाला देकर इसे शिमला रुखसत कर दिया गया।

हुआ यूं कि 1935 तक आलू की प्रजातियों को विकसित करने पर कोई जोर नही था और तब तक आलू की पैदावार बढ़ाने के लिए विभिन्न किस्म की विदेशी प्रजातियों का भारत में आयात किया। 1934 में इंपीरियल एग्रीकल्चर रिसर्च इंस्टीट्यूट , पूसा (समस्तीपुर) के तत्कालीन निदेशक डॉ एफ जे एफ शॉ के इस संबंध में विशेष प्रयास को ब्रिटिश सरकार ने 1935 में मंजूरी दी। साल 1935 में शिमला में आईएआरआई, समस्तीपुर के निर्देशन में  पोटेटो ब्रीडिंग स्टेशन की शुरुआत हुई और फिर कुमाऊं की पहाड़ियों में भुवाली और शिमला की पहाड़ियों में कुफरी में बीज अत्पादन कैंद्र खोले गए। साल 1945 में भारत सरकार के कृषि सलाहकार सर हर्बर्ट स्टीवर्ड ने सेंट्रल पौटेटो रिसर्च इंस्टीट्यूट के अवतरण का खाका खींचा गया और फिर 1946 में इसे जमीन पर उतारने की जिम्मेदारी डॉ एस रामानुजम को मिली। लगभग तीन सालों के बाद अगस्त 1949 में पटना में इस संस्थान ने आकार लिया। एस रामानुजम इस नए-नवेले संस्थान के पहले निदेशक बने। आई ए आर ए के तहत काम करने वाली शिमला की पौटेटो ब्रीडिंग स्टेशन , कुफरी का सीड सर्टीफिकेशन स्टेशन और भुवाली की पौटेटो मल्टीप्लीकेशन स्टेशन को इसके तहत लाया गया। 1952 तक मैदानी इलाके में इसके 16 और पहाड़ी इलाके में 10 केंद्र खुल चुके थे। हालांकि इसे बिहार का दुर्भाग्य ही कहिए कि साल 1956 में इस संस्थान का ट्रांसफर शिमला कर दिया गया। हालांकि अभी भी पटना में शिमला के मुख्य संस्थान के अधीन एक रिसर्च स्टेशन काम कर रहाहै।
सेंट्रल पौटेटो रिसर्च स्टेशन , पटना

शुक्रवार, 2 अगस्त 2013

किसिम-किसिम के `वामपंथी` ...

#कुछ वामपंथियों का वामपंथ पर सर्वाधिकार सुनिश्चित होता है।

#कुछ वामपंथी तो इतने शुद्धतावादी हैं कि दायें देखते भी नही ... मानो दाहिने देखा नही कि उनका वामपंथ प्रदूषित।

#कुछ वामपंथी तो अपना पूरा जीवन ही छद्म वामपंथ को उजागर करने में गुजार देते हैं। ढ़ोगी वामपंथियों की तलाश और उनको खोदने-खुरचने में वो अपना जीवन समर्पित कर देते हैं। अनवरत इस पड़ताल में जुटे रहते हैं कि कौन खालिस वामपंथी है और कौन मिलावटी। कह सकते हैं कि ऑर्गेनिक बनाम केमिकल के झोलझाल की झारु-बहारु में जुटे होते हैं।

#कुछ तो एकदम ही क्रांतिकारी टाइप है, रक्त-उबालू गीत रचते है, दोस्तों के साथ देशी-विदेशी ब्रांडेड दारु गटकते है, लेकिन उनके लिए कोका-काला माने बोतलबंद सर्वहारा रक्त, पीते ही धमनियों में प्रवाहित वामपंथ के दूषित हो जाने का डर। सिगरेट के उठते-बनते हुए छल्लों के बीच इनकी आभामयी तस्वीर की जद में आकर कोई भी अधम संघर्ष के लिए व्याकुल हो जाए।

#कुछ एडजस्टेवल होते हैं- बाल्यावस्था में बालपंथी, किशोरावस्था में वामपंथी और अधेड़ावस्था में दक्षिणपंथी और सब-का-सब रुप खालिस। कालक्रम के अनुसार प्रोग्रामिंग तय होती है।

#कुछ वामपंथी स्वर्णिम चतुर्भुज परियोजना माफिक होते है, राजमार्गों पर महानगरों के बीच संचरित रहते हुए वामपंथ के लिए जीवन समर्पित कर देते हैं।

#कुछ वामपंथी पारस पत्थर समान जादुई शक्ति जड़ित होते हैं, जिसको भी छू दे वामपंथी बना दें। इंसान किसी भी पंथ से हो अचानक वामपंथी दृष्टिगोचर होने लगता है।

#कुछ वामपंथी पत्र-पत्रिकाओं को संपादित करते हैं (अपने रहने-खाने-पीने का जुगाड़ कर लेते हैं) समाज-देश-विदेश पर लोगों को जमकर जागरुक करते है, लेकिन लेखकों को रुपए-पैसे से दूर रखते है ताकि उनमें पूंजीवादी भावनाएं न अंकुरित हो जाए।

#कुछ वामपंथ खालिस अंग्रेजी मार्का है, अंग्रेजी में ही खाते-बतियाते जीवन गुजारते हैं लेकिन हिंदी उनके लिहाज से साम्राज्यवादी है।

#कुछ वामपंथियों का संघर्ष घर के चौखटे से बाहर शुरु होता है और फिर वापस चौखटे की चौहद्दी पर आकर सुस्ताने लगता है। हालांकि संघर्ष की गर्दन पर मालिकाना रस्सी भी बांध देते हैं कि घर से रिफ्रेश होने के बाद वामपंथी संघर्ष फिर वहीं पर जुगाली करता हुआ मिल जाए... और फिर उसको अगले संघर्ष के लिए हांक लें।

#कुछ वामपंथी तो रेडियो-टीवी के लिए कस्टमाइज्ड होते हैं। अंग-संचालन, चेहरे-मोहरे से लेकर हाव-भाव तक टीवी गेस्ट के लिए आदर्श मानदंडों के मुताबिक प्रोग्राम्ड होता है।

#कुछ अपने जाति, लिंग, धर्म, जन्मस्थान के श्रेष्ठता की सच्चाई को छोड़कर पूरी तरह और तरीके से वामपंथी होते हैं। एक अंग्रेजी कहावत का हिंदी अनुवाद भी है कि- अपवाद होना यानि नियम का सत्य होना।

#कुछ छात्र पार्टटाइम वामपंथी होते हैं खासकर तब जब वो वामपंथ पर अनुसंधानरत होते हैं और तब तो उग्र वामपंथी हो जाते हैं जब उनके गाइड भी वामपंथी हों।

#कुछ लोग अपनी रोजगार-स्थली को छोड़कर बाकी जगहों पर वामपंथी होते है, आखिर वामपंथ के विश्राम की भी तो कोई जगह होनी चाहिए। जब अपने संस्थानों में छंटनी होती है तो उस समय मारुति के मुद्दे पर मजदूरों के लिए संघर्ष करते हैं।

#कुछ लोग तब वामपंथी हो जाते हैं जब अमेरिका-यूरोप नही जा पाते हैं या फिर वीजा नही मिल पाता।

#कुछ तो झोला-कुर्ता ओढ़ते ही वामपंथी बन जाते हैं और समय-समय पर मार्क्स-लेनिन-माओ उच्चरित करते दिखते हैं।

#कुछ के कंधे तो इतने मजबूत होते है जो वामपंथ और दक्षिणपंथ को एक साथ सफलतापूर्वक ढ़ोते है।

#कुछ तो पंथी होते हैं वामपंथ वाले उनको दक्षिणपंथी और दक्षिणपंथ वाले उनको वामपंथी मानते हैं। जबकि कुछ को वामपंथ वाले वामपंथी और दक्षिणपंथ वाले दक्षिणपंथी मानते हैं।

नोट-- देहातों की बजाय दिल्ली में तथाकथित वामपंथियों की उपस्थिति/संघर्ष  और उनकी आपसी तू तू- मैं मैं पर टिप्पणी । इस टिप्पणी का जेनुइन वाममार्गियों से कोई और किसी भी तरह का संबंध नही हैं।