बुधवार, 14 अप्रैल 2021

समयचक्र में पिसती-बिछड़ती सतुआनी

 

अभी कल ही व्हाट्सऐप वार्तालाप बक्से में आइसलैंड में खदकते ज्वालामुखी की तस्वीरें मिली थी। जाग्रत ज्वालामुखी से लावा भभक-भभककर आस-पास पसर रहा था। आज सतुआनी के दिन बचपन के उन दिनों की याद सहसा आ गयी जब सत्तू की शांत ज्वालामुखियों के क्रेटर में हम ऊपर से पानी उड़ेलते रहते , अपने इस अनुमान तक कि इतना पानी पर्याप्त है सत्तूई पहाड़ को सत्तू के गोलों-गुठलियों में परिणत करने के लिए। ज्वालामुखी के क्रेटर में पानी प्रवाहित कर और चीनी मिश्रित कर सत्तू को खूब घोला-साना जाता। ... और फिर छोटी-छोटी गुठलियों में तब्दील कर उदरस्थ किया जाता। सतुआनी का अर्थ हम बच्चों के लिए सत्तू की यही छोटी-छोटी गुठलियां थी।... इस पर्व में और कोई रस्म हम बच्चों के जिम्मे नहीं थी।



ग्लोबलाइजेशन और कालचक्र के चपेट में होली, दीवाली, दूर्गापूजा जैसे भारी-भरकम त्यौहार आने से तो बच गए , लेकिन सतुआनी, जूड़-शीतल, अनंत चतुर्दशी जैसे त्यौहार की अब गिनती की ही सांसे बची जान पड़ती है।

वैसे सत्तू के रुप-गुण विविध, बहुआयामी हैं। नमक के साथ भी स्वादिष्ट और चीनी के साथ भी कमतर नहीं। लू चल रही हो, सर भट्ठी बना जा रहा हो, माथा फटा जा रहा हो। ग्लास में पानी उड़ेलिए , सत्तू भरे कुछ चम्मच डालिए, नमक मिलाइए, फिर चम्मच से दे खटाखट और फिर ऊपर से नींबू की कुछ बूंदे छिड़क दीजिए ।सत्तू तरल रुप में गले में गटगटागट किए जाने के लिए प्रस्तुत हो जाता है। एकबारगी ही आराम महोदय कहीं भी विचरित हो रहे हों , आपके दिलोदिमाग को नाभिक स्वीकार कर उसकी ओर अभिकेंद्रीय बल की जकड़ में तीव्र गति से संचरण के लिए मजबूर हो उठेंगें।

गर्मी की आहट के साथ ही सत्तू अपनी गरिमामयी उपस्थिति के साथ वातावरण में विराजमान हो जाता। शुद्धता के आग्रही नर-नारी अपने चाक-चौबंद निरीक्षण में चना पीसवा कर किचन की तिजौरी में पर्याप्त मात्रा में सत्तू का प्रबंध कर लेते। दलसिंहसराय में सत्तू वैसे तो बाकी दुकानों में भी उपलब्ध होती लेकिन लोगों की पहली पसंद होती – पूजा सत्तू। हालांकि पूजा सत्तू को टक्कर देने की कोशिशें कम नही हुई, लेकिन दलसिंहसराय में मेरे सक्रिय दिनों तक किसी को वो प्रतिष्ठा, वो बुलंदी हासिल नहीं हुई।

सच कहूं तो सत्तू का सेवन अब गाहे-बेगाहे ही करता हूं लेकिन एक जमाना था जब घर से नानीघर जाने-आने या फिर किसी और सिलसिले में बस-अड्डे जाना-आना होता तो ऐसी कोई आशंका ही नही थी कि वहीं किसी कोने-स्टॉल में विराजमान स्टील टोपियों में सत्तू की पर्वत-श्रृंखलाओं की ओर ध्यान खुद-ब-खुद न खींचा चला जाए। टोपिए में सत्तू के पीत पहाड़ों की तराई में छिले हुए प्याज कतारबद्ध होकर बारी-बारी से अपने कतरे जाने का इंतजार कर रहे होते और हरी मिर्चियां देवदार के वृक्षों की तर्ज पर जगह-जगह पहाड़ में खुंसी हुई होती। ऐसे में कुछ गर्मी से मुकाबले के लिए और कुछ जीभ की मजबूरी ... अक्सरहां ही कम से कम एक ग्लास सत्तू का पान करने से नही चूकता।