“सब्जियों वाले बगीचे में कुएं के किनारे मेरा भी एक छोटा सा हिस्सा था, जिसके बगल में मुख्य माली की झोपड़ी थी, जिसमें वो रहता था। मुझे अपनी इन उगाए गयी चीजों पर गर्व था और एक दिन जब मैनें देखा कि मेरे पेड़ों को पानी की जरुरत हैं और जब मैने इस संबंध में कदम उठाया तो फिर भारत की जाति व्यवस्था का पता चला।... कुएं के बगल में पानी से भरा बर्तन था। मैने उसे उठाया , लेकिन मुख्य माली ने जिसे मैं अपना दोस्त और सलाहकार समझती थी, उसने उसे छीन लिया और जमीन पर पटक दिया। मैने अविश्वास से उसे घूरा लेकिन उसके चेहरे पर जबरदस्त गुस्से को देखकर अपने बंगले और मां के पास दौड़ी चली गयी। हांलाकि उनके लिए मुझे पूरी तरह से समझाना असमभंव था कि कुछ हिंदू यह समझते हैं कि यदि किसी गैर-हिंदू ने उनके खाने या खाने के बर्तनों को छुआ तो वो अब अपवित्र हो जाते हैं और उनका फिर से उपयोग नहीं हो सकता। इसका किसी के गरीब या अमीर होने से मतलब नहीं है, इसका मतलब इस बात से हैं कि आपने किस जाति में जन्म लिया है। आप हिंदू नहीं बन सकते , आप हिंदू बनकर जन्म लेते हैं। महाराज जो कि मिलिनेयर थे और माली जो कि काफी गरीब था, दोनों ही जन्म से ब्राह्मण थे। हमारे घरेलू नौकर जो कि निचली जाति के थे, खासकर स्वीपर और हालांकि उन्हें माली की तुलना में ज्यादा मेहनताना मिलता था लेकिन वो उसके द्वारा नीची निगाहों से देखे जाते थें।“
( जोआन एलन की
किताब ‘मिस्सी बाबा’ टू ‘बड़ा मैम’- द लाइफ ऑफ अ प्लांटर्स डॉटर गल नॉर्दर्न इंडिया, 1913-1970 का एक अंश )
जोआन एलेन
आगे लिखती है कि महाराज अपने गैर-हिंदू अतिथियों की शानदार
खातिरदारी करते थे और खाने की मेज पर उनके साथ बैठते भी थे , लेकिन न तो वे खाने
को छूते थे और न ही उनके सामने खाना खाते थे।
जोआन के पिता
जॉन हेनरी दरभंगा महाराज के स्वामित्व वाले पंडौल एस्टेट के मैनेजर थे और फिर
दरभंगा महाराज ने जब कलकत्ता के मैनेजिंग एजेंट्स के साथ मिलकर पंडौल से केवल छह
मील की दूरी पर चीनी का कारखाना लगाने का फैसला किया तो उन्होंने जॉन हेनरी
को चीनी कारखाने का मैनेजर बनाया।
जोआन की लिखी इस किताब की शुरुआत होती है सन
1896 से जब जोआन के पिता अलस्ट्र, ब्रिटेन से भारत के लिए
रोजगार के सिलसिले में निकले। नील की खेती से जुड़े लेकिन फिर अफ्रीका में चल रहे
बोअर युद्ध के लिए भारत से निकल अफ्रीका पहुंच गए। यहां बताता चलूं कि महात्मा
गांधी भी इस कालखंड में अफ्रीका में थे और बोअर युद्ध में अंग्रेजों की मदद के लिए
उन्हें केसर-ए-हिंद का तमगा भी मिला था, जिसे जालियांवाला बाग नरसंहार के बाद
उन्होंने लौटा दिया था। बोअर युद्ध से वापस लौटने के बाद दरभंगा महाराज ने उन्हें
पंडौल एस्टेट का मैनेजर नियुक्त किया और फिर मुजफ्फरपुर में होने वाले सालाना मीट
में मेबल यानि की अपनी होने वाली पत्नी से भी मुलाकात हुई।
जोआन का जन्म
सन 1913 बिहार में हुआ में और शादी दरभंगा में ज्यॉफ्री एलेन से हुई जो कि दरभंगा
राज के ही मुलाजिम थे, जो बाद में उनके पिता की ही तरह पंडोल एस्टेट के मैनेजर भी
बने। ज्यॉफ्री ने द्वितीय विश्व युद्ध में भाग लिया और युद्धबंदी बने। फरार होकर
किसी तरह अपनी जान बचाई और फिर भारत में उत्तर-पूर्व के मोर्चे पर जापानियों के
विरुद्ध लड़ाई के लिए भी गए। ज्यॉफ्री फिर पॉलिटिकल सर्विस में आए । एलेन दंपति आजादी के बाद भी
काफी लंबे समय तक भारत में रहे... ज्यॉफ्री पहले भारत सरकार के मुलाजिम के तौर पर और भी चाय
बगानों का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था इंडियन टी असोशिएशन के अधिकारी के तौर पर।.... और फिर 1970 में भारत छोड़कर एलेन
दंपत्ति ब्रिटेन चले गए।
जोआन एलेन की
यह किताब सन 1913 से 1970 तक उनके किशोरावस्था/युवावस्था के कुछ सालों को सालों को छोड़कर
भारत में उनके द्वारा बिताए गए समय और अनुभव का विवरण है। ब्रिटेन से हजारों मील
दूर बिहार के सुदूर इलाके में , जबकि मीलों दूर तक कोई यूरोपीय परिवार नहीं हो,
जोआन एलन का बचपना बीता, शादी हुई और फिर बच्चे हुए। यह किताब उस समय के ऐसे
यूरोपीय परिवारों-लोगों के मनोभावों, उनके और स्थानीय भारतीय
समुदाय के बीच के डायनेमिक्स, स्थानीय सामाजिक स्थिति को जानने का दस्तावेज भी है।
किताब में सन
1934 में बिहार में आए विनाशकारी भूंकप से जुड़े अनुभवों का भी उल्लेख है। जोआन ने
लिखा है कि 15 अगस्त 1934 ई. का दिन हमारे लिए काफी डरावना था, उस दिन दोपहर के करीब
2 बजकर 13 मिनट पर भूंकप आया था। "...यह मेरे पिता औऱ मेरे लिए दोपहर के आराम का समय था।
उन्होंने लिखा है कि मैं अपने बिस्तर से बाहर जाने के लिए भागी लेकिन जमीन
रोलर-कोस्टर की तरह बर्ताव कर रही थी। सामने का लॉन समुद्र की तरह था। वहां घास की सतह
की बजाय उसमें तेज लहरें चल रही थी। दो कार जो गैराज के बाहर थे नृत्यरत जोड़े की
तरह आगे-पीछे हो रहे थे और जैसे ही नजर उनपर गयी, उसी समय मेरे पैरों के नीचे की जमीन फट
गयी, मेरे अगल-बगल दरारें पड़ गयी और इनसे काफी ऊंची गर्म कीचड़ निकलने लगी। मेरे पिता ने हाल ही क्रिसमस में रोलीफ्लैक्स कैमरा दिया
था और मैनें सोचा की इसकी तस्वीर लेनी चाहिए और फिर भय की परवाह न
करते हुए अंदर जाकर मैं कैमरा ले आई। हालांकि तब तक जमीन से निकल रहे ऊंचे गर्म कीचड़
की तीव्रता काफी कम हो गयी थी।..."
किताब में
एवरेस्ट के ऊपर उड़ान भरने के अभियान के पायलट फ्लाइट लेफ्टिनेंट मैक्आइंटर का भी
जिक्र है। त्योहारों और दूसरे मौकों पर पंडौल और दूसरे एस्टेट से सभी हाथियों को
दरभंगा लाया जाता, जहां महाराज अपने महलों में रहते। महाराज की अगुआई में शहर के
सभी ईलाकों में जुलूस निकलता और उच्चाधिकारियों को साथ चलने का आमंत्रण देकर उन्हें
सम्मानित किया जाता। जोआन भी जब ऐसे ही एक जुलूस में हाथी की सवारी कर रही थी तो
उनके साथ फ्लाइट लेफ्टिनेंट मैक्आइंटर थे जो कि एवरेस्ट के ऊपर उड़ान भरने के
अभियान के पायलट थे। दरभंगा महाराज ने हिमालय की तलहटियों में पूर्णिया में अपने एक
महल को बेस के तौर पर इस्तेमाल करने के लिए इस अभियान दल को दिया था, जहां से वे एवरेस्ट
की फोटोग्राफी के लिए उड़ान भरते।
जब-जब जो जो
होना है, तब-तब सो सो होना है । जोआन एलन की किताब - मिस्सी बाबा टू बड़ा मैम- द
लाइफ ऑफ अ प्लांटर्स डॉटर इन नॉर्दर्न इंडिया, 1913-1970 की खुद के हाथों में
कहानी का सारांश भी यही है।
बिहार में
यूरोपीय व्यापारियों-प्रशासकों-यात्रियों के अनुभवों-चित्रों से गुजरते हुए एक
रोचक शीर्षक पर जाकर ठिठक गया । किताब का शीर्षक था- मिस्सी बाबा टू बड़ा मैम- द
लाइफ ऑफ अ प्लांटर्स डॉटर इन नॉर्दर्न इंडिया. 1913-1970। शीर्षक कुछ हटकर था ।
किताब की इंंटरनेटी समंदर में तलाश शुरु कर दी । ई-कॉमर्स साइटों पर किताब नदारद
थी। ... सोचा सीधे पब्लिशर से ही पता करुं । जोआन एलेन की लिखी इस किताब को
प्रकाशित किया है बक्सा, लंदन ने।
बक्सा यानि
कि ब्रिटिश असोशिएशन ऑफ सीमेट्रीज इन साउथ एशिया । बक्सा का मकसद दक्षिण एशिया और
एशिया की दूसरी जगहों पर पहले की यूरोपीय लोगों की कब्रिस्तानों के रखरखाव और
संरक्षण के साथ-साथ इससे जुड़े सौंदर्यीकरण और इसके संबंध में जागरुकता लाने का
है। बक्सा की साइट पर इसके द्वारा प्रकाशित किताबों की एक सूची भी है। नजर दौड़ायी
तो तो विलियम आर्चर औऱ मिल्फ्रैड आर्चर की सन 1931 से भारत की आजादी तक उनके
द्वारा बिहारे में बिताए गए समय से जुड़ी उनकी आत्मकथा ने भी मुझे आकर्षित किया। दोनों ही किताबों के लिए बक्सा से संपर्क
किया। जेब हल्की ही रहती है तो किताब सबसे सस्ते पोस्टल सर्विस से भेजेने को कहा। किताब
की खरीद राशि का भुगतान करने के लिए पेपाल पर अपना खाता भी खोला । बक्सा वाले बंधु
ने कहा कि किताब डिलिवर हो जाए तो भुगतान करिएगा।... लेकिन किताबें डाक-व्यवस्था
की रपटीली राहों पर रास्ता खो बैठी। बक्सा
वालों से संपर्क किया तो धैर्य धारण करने की सलाह मिली और साथ में ढ़ाढ़स भी ।
समय-समय पर डाकखाने की परिक्रमा औऱ डाकिया महोदय से भी दरख्वास्त करता रहा। लेकिन
शायद उन किताबों की मंजिल ही कुछ और थी। दुखद यह थी कि बक्सा वालों के पास भी
इंडिया सर्व्ड एंड ऑब्जर्व्ड की आखिरी कॉपी ही थी। दुख और ज्यादा गहरा हो गया।
महीनों इस तरह गुजर गए , लेकिन उम्मीद का दामन अब भी नहीं छोड़ा सा मैने । कुछ
महीनों बाद अचानक से आमेजन पर जोआन एलन की किताब नजर आयी और फिर मैने झट से समय
गंवाए बगैर किताब का ऑर्डर कर दिया।
अब बात किताब के रोचक शीर्षक पर। दरअसल ‘मिसी बाबा’ का संबोधन यूरोपीय किशोरियों-युवतियों के लिए उनके भारतीय नौकरों द्वारा
प्यार से किया जाता था, वहीं ‘बड़ा मैम’ यरोपीय परिवारों की बड़ी मेमसाहिबों के लिए।