रविवार, 31 मई 2020

ये उस समय की बात है...


सब्जियों वाले बगीचे में कुएं के किनारे मेरा भी एक छोटा सा हिस्सा था, जिसके बगल में मुख्य माली की झोपड़ी थी, जिसमें वो रहता था। मुझे अपनी इन उगाए गयी चीजों पर गर्व था और एक दिन जब मैनें देखा कि मेरे पेड़ों को पानी की जरुरत हैं और जब मैने इस संबंध में कदम उठाया तो फिर भारत की जाति व्यवस्था का पता चला।... कुएं के बगल में पानी से भरा बर्तन था। मैने उसे उठाया , लेकिन मुख्य माली ने जिसे मैं अपना दोस्त और सलाहकार समझती थी, उसने उसे छीन लिया और जमीन पर पटक दिया। मैने अविश्वास से उसे घूरा लेकिन उसके चेहरे पर जबरदस्त गुस्से को देखकर अपने बंगले और मां के पास दौड़ी चली गयी। हांलाकि उनके लिए मुझे पूरी तरह से समझाना असमभंव था कि कुछ हिंदू यह समझते हैं कि यदि किसी गैर-हिंदू ने उनके खाने या खाने के बर्तनों को छुआ तो वो अब अपवित्र हो जाते हैं और उनका फिर से उपयोग नहीं हो सकता। इसका किसी के गरीब या अमीर होने से मतलब नहीं है, इसका मतलब इस बात से हैं कि आपने किस जाति में जन्म लिया है। आप हिंदू नहीं बन सकते , आप हिंदू बनकर जन्म लेते हैं। महाराज जो कि मिलिनेयर थे और माली जो कि काफी गरीब था, दोनों ही जन्म से ब्राह्मण थे। हमारे घरेलू नौकर जो कि निचली जाति के थे, खासकर स्वीपर और हालांकि उन्हें माली की तुलना में ज्यादा मेहनताना मिलता था लेकिन वो उसके द्वारा नीची निगाहों से देखे जाते थें।

( जोआन एलन की किताब मिस्सी बाबा टू बड़ा मैम- द लाइफ ऑफ अ प्लांटर्स डॉटर गल नॉर्दर्न इंडिया, 1913-1970  का एक अंश )



जोआन एलेन आगे लिखती है कि महाराज अपने गैर-हिंदू अतिथियों की शानदार खातिरदारी करते थे और खाने की मेज पर उनके साथ बैठते भी थे , लेकिन न तो वे खाने को छूते थे और न ही उनके सामने खाना खाते थे।

जोआन के पिता जॉन हेनरी दरभंगा महाराज के स्वामित्व वाले पंडौल एस्टेट के मैनेजर थे और फिर दरभंगा महाराज ने जब कलकत्ता के मैनेजिंग एजेंट्स के साथ मिलकर पंडौल से केवल छह मील की दूरी पर चीनी का कारखाना लगाने का फैसला किया तो उन्होंने जॉन हेनरी को चीनी कारखाने का मैनेजर बनाया।

जोआन की लिखी इस किताब की शुरुआत होती है सन 1896 से जब जोआन के पिता अलस्ट्र, ब्रिटेन से भारत के लिए रोजगार के सिलसिले में निकले। नील की खेती से जुड़े लेकिन फिर अफ्रीका में चल रहे बोअर युद्ध के लिए भारत से निकल अफ्रीका पहुंच गए। यहां बताता चलूं कि महात्मा गांधी भी इस कालखंड में अफ्रीका में थे और बोअर युद्ध में अंग्रेजों की मदद के लिए उन्हें केसर-ए-हिंद का तमगा भी मिला था, जिसे जालियांवाला बाग नरसंहार के बाद उन्होंने लौटा दिया था। बोअर युद्ध से वापस लौटने के बाद दरभंगा महाराज ने उन्हें पंडौल एस्टेट का मैनेजर नियुक्त किया और फिर मुजफ्फरपुर में होने वाले सालाना मीट में मेबल यानि की अपनी होने वाली पत्नी से भी मुलाकात हुई।

जोआन का जन्म सन 1913 बिहार में हुआ में और शादी दरभंगा में ज्यॉफ्री एलेन से हुई जो कि दरभंगा राज के ही मुलाजिम थे, जो बाद में उनके पिता की ही तरह पंडोल एस्टेट के मैनेजर भी बने। ज्यॉफ्री ने द्वितीय विश्व युद्ध में भाग लिया और युद्धबंदी बने। फरार होकर किसी तरह अपनी जान बचाई और फिर भारत में उत्तर-पूर्व के मोर्चे पर जापानियों के विरुद्ध लड़ाई के लिए भी गए। ज्यॉफ्री फिर पॉलिटिकल सर्विस में आए । एलेन दंपति आजादी के बाद भी काफी लंबे समय तक भारत में रहे... ज्यॉफ्री पहले भारत सरकार के मुलाजिम के तौर पर और भी चाय बगानों का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था इंडियन टी असोशिएशन के अधिकारी के तौर पर।.... और फिर 1970 में भारत छोड़कर एलेन दंपत्ति ब्रिटेन चले गए।




जोआन एलेन की यह किताब सन 1913 से 1970 तक उनके किशोरावस्था/युवावस्था के कुछ सालों को सालों को छोड़कर भारत में उनके द्वारा बिताए गए समय और अनुभव का विवरण है। ब्रिटेन से हजारों मील दूर बिहार के सुदूर इलाके में , जबकि मीलों दूर तक कोई यूरोपीय परिवार नहीं हो, जोआन एलन का बचपना बीता, शादी हुई और फिर बच्चे हुए। यह किताब उस समय के ऐसे यूरोपीय परिवारों-लोगों के मनोभावों, उनके और स्थानीय भारतीय समुदाय के बीच के डायनेमिक्स, स्थानीय सामाजिक स्थिति को जानने का दस्तावेज भी है।

किताब में सन 1934 में बिहार में आए विनाशकारी भूंकप से जुड़े अनुभवों का भी उल्लेख है। जोआन ने लिखा है कि 15 अगस्त 1934 ई. का दिन हमारे लिए काफी डरावना था, उस दिन दोपहर के करीब 2 बजकर 13 मिनट पर भूंकप आया था। "...यह मेरे पिता औऱ मेरे लिए दोपहर के आराम का समय था। उन्होंने लिखा है कि मैं अपने बिस्तर से बाहर जाने के लिए भागी लेकिन जमीन रोलर-कोस्टर की तरह बर्ताव कर रही थी। सामने का लॉन समुद्र की तरह था। वहां घास की सतह की बजाय उसमें तेज लहरें चल रही थी। दो कार जो गैराज के बाहर थे नृत्यरत जोड़े की तरह आगे-पीछे हो रहे थे और जैसे ही नजर उनपर गयी, उसी समय मेरे पैरों के नीचे की जमीन फट गयी, मेरे अगल-बगल दरारें पड़ गयी और इनसे काफी ऊंची गर्म कीचड़ निकलने लगी। मेरे पिता ने हाल ही क्रिसमस में रोलीफ्लैक्स कैमरा दिया था और मैनें सोचा की इसकी तस्वीर लेनी चाहिए और फिर भय की परवाह न करते हुए अंदर जाकर मैं कैमरा ले आई। हालांकि तब तक जमीन से निकल रहे ऊंचे गर्म कीचड़ की तीव्रता काफी कम हो गयी थी।..."



किताब में एवरेस्ट के ऊपर उड़ान भरने के अभियान के पायलट फ्लाइट लेफ्टिनेंट मैक्आइंटर का भी जिक्र है। त्योहारों और दूसरे मौकों पर पंडौल और दूसरे एस्टेट से सभी हाथियों को दरभंगा लाया जाता, जहां महाराज अपने महलों में रहते। महाराज की अगुआई में शहर के सभी ईलाकों में जुलूस निकलता और उच्चाधिकारियों को साथ चलने का आमंत्रण देकर उन्हें सम्मानित किया जाता। जोआन भी जब ऐसे ही एक जुलूस में हाथी की सवारी कर रही थी तो उनके साथ फ्लाइट लेफ्टिनेंट मैक्आइंटर थे जो कि एवरेस्ट के ऊपर उड़ान भरने के अभियान के पायलट थे। दरभंगा महाराज ने हिमालय की तलहटियों में पूर्णिया में अपने एक महल को बेस के तौर पर इस्तेमाल करने के लिए इस अभियान दल को दिया था, जहां से वे एवरेस्ट की फोटोग्राफी के लिए उड़ान भरते।

जब-जब जो जो होना है, तब-तब सो सो होना है । जोआन एलन की किताब - मिस्सी बाबा टू बड़ा मैम- द लाइफ ऑफ अ प्लांटर्स डॉटर इन नॉर्दर्न इंडिया, 1913-1970 की खुद के हाथों में कहानी का सारांश भी यही है।

बिहार में यूरोपीय व्यापारियों-प्रशासकों-यात्रियों के अनुभवों-चित्रों से गुजरते हुए एक रोचक शीर्षक पर जाकर ठिठक गया । किताब का शीर्षक था- मिस्सी बाबा टू बड़ा मैम- द लाइफ ऑफ अ प्लांटर्स डॉटर इन नॉर्दर्न इंडिया. 1913-1970। शीर्षक कुछ हटकर था । किताब की इंंटरनेटी समंदर में तलाश शुरु कर दी । ई-कॉमर्स साइटों पर किताब नदारद थी। ... सोचा सीधे पब्लिशर से ही पता करुं । जोआन एलेन की लिखी इस किताब को प्रकाशित किया है बक्सा, लंदन ने।





बक्सा यानि कि ब्रिटिश असोशिएशन ऑफ सीमेट्रीज इन साउथ एशिया । बक्सा का मकसद दक्षिण एशिया और एशिया की दूसरी जगहों पर पहले की यूरोपीय लोगों की कब्रिस्तानों के रखरखाव और संरक्षण के साथ-साथ इससे जुड़े सौंदर्यीकरण और इसके संबंध में जागरुकता लाने का है। बक्सा की साइट पर इसके द्वारा प्रकाशित किताबों की एक सूची भी है। नजर दौड़ायी तो तो विलियम आर्चर औऱ मिल्फ्रैड आर्चर की सन 1931 से भारत की आजादी तक उनके द्वारा बिहारे में बिताए गए समय से जुड़ी उनकी आत्मकथा ने भी मुझे आकर्षित किया। दोनों ही किताबों के लिए बक्सा से संपर्क किया। जेब हल्की ही रहती है तो किताब सबसे सस्ते पोस्टल सर्विस से भेजेने को कहा। किताब की खरीद राशि का भुगतान करने के लिए पेपाल पर अपना खाता भी खोला । बक्सा वाले बंधु ने कहा कि किताब डिलिवर हो जाए तो भुगतान करिएगा।... लेकिन किताबें डाक-व्यवस्था की रपटीली राहों पर रास्ता खो बैठी।  बक्सा वालों से संपर्क किया तो धैर्य धारण करने की सलाह मिली और साथ में ढ़ाढ़स भी । समय-समय पर डाकखाने की परिक्रमा औऱ डाकिया महोदय से भी दरख्वास्त करता रहा। लेकिन शायद उन किताबों की मंजिल ही कुछ और थी। दुखद यह थी कि बक्सा वालों के पास भी इंडिया सर्व्ड एंड ऑब्जर्व्ड की आखिरी कॉपी ही थी। दुख और ज्यादा गहरा हो गया। महीनों इस तरह गुजर गए , लेकिन उम्मीद का दामन अब भी नहीं छोड़ा सा मैने । कुछ महीनों बाद अचानक से आमेजन पर जोआन एलन की किताब नजर आयी और फिर मैने झट से समय गंवाए बगैर किताब का ऑर्डर कर दिया।

अब बात किताब के रोचक शीर्षक पर। दरअसल मिसी बाबा का संबोधन यूरोपीय किशोरियों-युवतियों के लिए उनके भारतीय नौकरों द्वारा प्यार से किया जाता था, वही बड़ा मैम यरोपीय परिवारों की बड़ी मेमसाहिबों के लिए।

शनिवार, 23 मई 2020

मुड़-मुड़ के ...


कोई भी किताब हाथ लगी और शीर्षक पढ़ने के बाद थोड़ी सी भी उम्मीद झलकी तो सबसे पहले इंडेक्स वाले पन्नों को पलटता हूं । दलसिंहसराय, समस्तीपुर, दरभंगा, बिहार, पटना की तलाश करता हूं... या कुछ और शब्द जो इसके इर्द-गिर्द मंडराते हों। अपने इलाके के अतीत को जानने की जिज्ञासा और कुलबुलाहट किसे नहीं रहती। इतिहास और राजनीति-विज्ञान वैसे भी स्नातक में मेरे विषय रहे हैं। ऐसे में यह जिज्ञासा तो नैसर्गिक है । इधर आजादी से पहले बिहार में समय बिता चुके कई विदेशियों के संस्मरण पढ़े हैं, कुछ अंग्रेज अधिकारियों के अनुभवों को भी पढ़ा है। आमेजन, फ्लिपकार्ट पर भी गाहे-बेगाहे किताबों को ढ़ूंढ़ता रहता हूं।

कुछ सालों पहले इंटरनेट पर विचरते महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह कल्याणी फाउंडेशन की वेबसाइट पर जा पहुंचा। मन प्रसन्न हो गया । कितना कुछ, कितने ही कोनों में हमारे आस-पास होता रहता है और हम उससे अनजान रहते है । वेबसाइट पर फाउंडेशन द्वारा प्रकाशित किताबों की एक अच्छी-खासी सूची थी और उस पर से तुर्रा यह कि सारी किताबें अपने ही इलाके से जुड़ी । फटाफट कुछ किताबों को दरभंगा से मंगवाने का जुगाड़ भिड़ाया।... और इन्हीं किताबों में से एक है- ट्रांसफॉर्मेशन ऑफ बिहार – यूरोपियन डिस्कोर्सेस, जिसके लेखक हैं कलकत्ता विश्वविद्यालय में इस्लामिक इतिहास और संस्कृति विभाग में प्रोफेसर रहे श्री अनिरुद्ध रे। किताब में इंट्रोडक्शन यानि परिचय लिखा है पटना विश्वविद्यालय में इतिहास विभाग में प्रोफेसर रहे श्री सुरेंद्र गोपाल ने।



किताब क्या था...  रहस्यमयी तिलिस्म की चाबी थी या फिर अपने अतीत की पोटली.... आईना था विदेशियों की नजर से सत्रहवीं से उन्नींसवीं सदी के बिहार को जानने का। अग्रेंज, फ्रेंच, जर्मन अधिकारियों, यात्रियों, व्यापारियों, पुजारियों की नजर से देखा गया बिहार । कोई भी विषय, व्यक्ति , स्थान, संस्कृति एकांगी नही होती, बहुपक्षीय होती है। सबकी अपनी-अपनी दृष्टि , अपनी-अपनी पसंदगी-नापंसदगी, अपने-अपने बायसेस ।

लेखक के शब्दों में किताब का उद्देशय सोलहवीं सदी से उन्नीसवीं सदी के शुरुआती सालों में यूरोपीय यात्रियों के लिखे पर नजर डालना है । किताब के शुरुआती अध्याय में बिहार में गतिविधियों के केंद्र के बिहारशरीफ से हटकर फिर से पटना के केंद्र बन जाने की कहानी है। बिहारशरीफ की ओर मुड़ने वाली गंगा नदी की शाखा सिकुड़ रही थी और पटना हुगली से नदी मार्ग और दिल्ली और आगरा से संड़क मार्ग से भी जुड़ा था। ... और फिर पटना शोरा और अफीम के उत्पादन-केंद्र और व्यावसायिक गतिविधियों के केंद्र के तौर पर उभरकर सामने आया।... और हां पटना का बाजार केवल अफीम, शोरे और सिल्क के लिए ही मशहूर नही था, दुसरी जरुरी चीजों के लिए भी यह खरीद-बिक्री के केंद्र के रुप में उभरकर सामने आया था। यह दौर ऐसा था जब आर्मेनियाई व्यापारियों के साथ-साथ डच, पुर्तगाली, अग्रेंज, फ्रेंच व्यापारी पटना के कारोबारी कोने में शोरा, अफीम, सिल्क के लिए एक दूसरे के कंधे से कंधा टकरा रहे थे, जब तक कि ईस्ट इंडिया कंपनी ने पहले प्लासी और फिर बक्सर के युद्ध के बाद अपनी एकछत्र सत्ता नहीं स्थापित कर ली।

किताब में दिलचस्प जानकारियां है और रोचक प्रसंग हैं। यात्रा के कष्ट, कारोबारी अनिश्चितता और अनदेखी दुनिया का आकर्षण है। कई ऐसे मौकों का भी जिक्र है जबकि वैश्विक राजनीति का असर पटना के कारोबारी कोने पर दिखा , जैसे कि तुर्की के बादशाह के अनुरोध पर मुगल सत्ता ने यूरोपीय कंपनियों के पटना के बाजार से शोरा खरीदने पर पाबंदी लगा दी। और किस प्रकार से यूरोपीय देशों के आपस में बनते-बिगड़ते रिश्तों ने पटना के बाजार पर भी अपना असर दिखाया। किताब पटना की बसावट और बुनावट के बारे में भी बहुत कुछ कहती है। सत्रहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में पटना से सटे इलाकों का जिक्र करते हुए निकोलस डी ग्राफ ने लिखा है कि पटना शहर घने जंगलों से घिरा है, जिसमें राइनोसेरॉस(गैंडें) और दूसरे भारी-भरकम जंगली जानवर पाए जाते हैं।

यह भी कम दिलचस्प नही कि पटना के सूबेदार के बुलावे पर पुर्तगाली फादर परेरा जब पटना पहुंचे और नवाब मुकर्रब खान  से उनकी मुलाकात हुई तो उन्हें पता चला कि नवाब कैथोलिक थे। दरअसल मुकर्रब खान को जब खंभात का गवर्नर बनाया गया तो उसी दरम्यान 1610 ई में फादर पीमेंटा ने ज्यां टुटेफॉइस के नाम के साथ उसे बैप्टाइज किया था । हालांकि दस सालों बाद वो ईसाई तौर-तरीकों से दूर था। सार्वजनिक रुप से वो खुद को मुस्लिम बताता था जबकि निजी तौर पर खुद को ईसाई बताता था।

किताब में समरु का भी जिक्र है... वाल्टर रिनहार्ड सोम्बर उर्फ समरु... स्विस मूल का जर्मन। कलकत्ता में फोर्ट ऑफ विलियम में बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला के समय हुई ब्लैकहॉल की घटना से तो हम परिचित है, लेकिन पटना के इस ब्लैकहॉल से कम ही लोग परिचित होगें। मीर कासिम और अंग्रेजों के बीच जंग छिड़ गयी थी। मीर कासिम आगे-आगे और अंग्रेज दस्ता पीछे-पीछे। जब अंग्रेज दस्ता पटना के लिए लिए आगे बठा तो मीर कासिम ने समरु को बंदी बनाए गए कंपनी के अंग्रेज अधिकारियों और कर्मचारियों को मौत के घाट उतारने का आदेश दिया। किताब में तीन समकालीन फ्रांसिसीयों की इस संबंध में लिखे का उल्लेख है- जेंटिल, रेने मेडेक और काउंट ऑफ मोडावे। इनमें से ही एक जेंटिल का लिखा विवरण, जो इसी किताब से लिया गया है -

...उसी समय समरु आया। कुछ दूरी से नवाब को सलाम करने के बाद हमलोगों से थोड़ी दूरी पर वो बैठ गया। कासिम अली ने उसे करीब आने को कहा। उसके बैठते ही नवाब ने मुझे जाने को कहा... जैसे ही मैं नवाब के खेमे से निकला , समरु उठा उसने नवाब को सलाम किया और अंगर्जों के कत्लेआम की तैयारी के लिए चला गया।। एक फ्रांसिसी चैट्य्यू ने समरु के आदेश को मानने से इंकार कर दिया... फिर समरु खुद नवाब के आदेश पर अमल करने के लिए निकल गया।... खुले में खाना खा रहे अंग्रेजों पर उसने गोली चलानी शुरु कर दी... पैंतालीस अधिकारी और कर्मचारी इस दुखद घटना में मारे गए। ... - जेंटिल, फ्रांसिसी चश्मदीद

सबसे दाएं-  पटना में मृत अंग्रेजों की याद में स्तंभ, कलाकार- सीताराम (कंपनी कलम)
समरु

किताब को पढ़ते समय मेरी नजर सिंघिया पर जाते ही बरबस अटक गयी। नानीघर रोसड़ा की ओर जब भी जाना होता , सिंघिया से गुजरकर ही जाना होता। सिंघिया तक बस पहुंचती तो दिल को ठंडक मिलती कि चलो बस अब मिनटों की ही बात है। आगे गंडक नदी ... और फिर कुछ मिनटों में रोसड़ा। सन 1731 में डूप्ले जब चंद्रनगर में फ्रेंच कंपनी का डायरेक्टर बनकर आया तो फ्रांसिसी कारोबार को विस्तार देने में जुट गया। सन 1733 ई में उसने पटना में फैक्ट्री लगाने का फैसला किया और फिर ग्रोइस्ले को पटना स्टेशन की कमान सौंपी। दरअसल डूप्ले का मकसद पटना से अच्छी किस्म का शोरा कम कीमत पर खरीदना और फ्रांसिसी सामग्रियों की पटना में बिक्री का था। पटना बंगाल और दिल्ली के साथ भूटान, तिब्बत जैसे दूर-दराज के इलाकों के लिए भी व्यापारिक केंद्र था। बिहार में फ्रांसिसी कारोबार की और ज्यादा पैठ के लिए शोरा खरीदने के लिहाज से ग्रोइस्ले ने छपरा और सिंघिया में फ्रांसिसी लॉज शुरु करने की सिफारिश की। हालांकि ये सिंघिया मेरे नानीघर के करीब वाला सिंघिया ही है या नही है, यह अब भी मेरे लिए रहस्य ही है।

अनिरुद्ध रे की इस किताब को पढ़ने का एक फायदा यह हुआ कि बिहार में अपना समय बिताने वाले और यात्रा करने वाले यूरोपीय लोगों की लिखी किताब की एक लंबी सूची अपने हाथ लग गयी । गाहे-बेगाहे इंटरनेट पर इन किताबों को तलाशता रहता हूं।

भविष्य, वर्तमान, अतीत समरेखीय क्रमिक बिंदु होते हैं। अतीत का निरपेक्ष पाठक स्वाभाविक रुप से ज्योतिषी बन जाता है। आखिर भविष्य के भवन की बुनियाद अतीत पर ही तो खड़ी होती है। ऐसे में इतिहास का अध्ययन न केवल दिलचस्प होता है, बल्कि बेहद जरुरी भी।

खैर अब इस किताब के पीछे का किस्सा । हुआ यूं कि 1998 में दरभंगा में कामेश्वर सिंह स्मृति व्याख्यान देने के लिए डॉ अनिरुद्ध रे को बुलाया गया। रे साहब ने अठाहरवीं सदी में बिहार में आए फ्रेंच ईस्ट इंडिया कंपनी के अनुभवों और विचारों पर अपना भाषण `थ्री यूरोपियंस इन लेट मेडाइवल बिहार` दिया। ऐसे में जबकि बिहार के इतिहास पर काम करने वाले इतिहासकारों ने फ्रेच श्रोतों पर खासा ध्यान नहीं दिया है , कल्याणी फाउंडेशन ने रे साहब को फ्रेंच और दूसरे अन्य युरोपीय श्रोतों के जरिए बिहार के इतिहास पर काम करने का जिम्मा सौंपा।... और उसकी ही परिणति है - `ट्रांसफॉर्मेशन ऑफ बिहार – यूरोपियन डिस्कोर्सेस`।