सोमवार, 30 सितंबर 2013

चुनार बरास्ते मिर्जापुर – समय सुस्त , इतिहास पस्त

82.5 डिग्री पूर्वी देशांतर , मिर्जापुर, उल्टा प्रदेश , इंडियन स्टैंडर्ड टाइम वाली रेखा यहां से गुजर जाती है , बिना किसी हरहर खटखट के। लेकिन मिर्जापुर की सड़कों और गलियों में समय कमोबेश ठहरा सा ही लगा। उत्तर-पूर्व वाले न जाने कब से चिल्ला रहे हैं भाई कब करोगे बदलाव। न जाने कितने असंख्य घंटो की लाश बिछाई है यहां के घंटाघर ने । कहते हैं कि कलियुग है , कोई फरियाद नही , कोई न्याय नही और वैसे भी अमरीकी असीम न्याय से तो आप वाकिफ हैं ही। पिछले साल द वीक में रिपोर्ट पढ़ी मिर्जापुर के कलॉक टावर पर समय रुक गया है। यानि इस घंटाघर को इस घनघोर अपराध का दंड इसी जमाने में मिला। घंटाघर पर टंगी घड़ी मर चुकी है, अब कोई टिक-टिक नही , पिछले करीब दर्जन भर साल से। आश्चर्य कि हम अब भी इस मरी घड़ी के चक्कर में चकरा रहे है। खैर ... अपना अपना दुर्भाग्य।

दरअसल इतिहास में ताकाझांकी का लालच हमें मिर्जापुर खींच लाया था । मिर्जापुर मेरे लिए दरअसल वो टाइममशीन थी , जिसमें घुस जाउं , वर्तमान को गच्चा दूं और इतिहास में गोता लगाऊं। इतिहास कुछ मेरा वाला और कुछ राजा-महाराजा-बादशाहों-हाकिमों वाला। जिन लोगों ने नीरजा गुलेरी की चंद्रकान्ता से बचपन की शुरुआत की हो , चुनारगढ़ का जिक्र उनके मानवी शरीर में चुनचुनी या फिर खुजली तो जरुर पैदा करेगा। बात उस दिन की कर रहा हूं जब पता चला कि चुनार कुछ दर्जन भर किलोमीटर पर है। आपसे क्या छिपाना, खूंखार शिवदत्त, मासूम कलावती , चालू तारा , पंडित बदरी और सेनापति सोम सब खूबसूरत बचपन का हिसाब मांगते दिखे। कलावती का अथाह प्रेम , शिवदत्त-तारा का प्लैटोनिक रिश्ता , चाणक्य का चुनारी संस्करण बदरीनाथ , सोमनाथ की लॉएल्टी ... न जाने इनने दिल-दिमाग के कोनों को कितना एक्सपैंड किया , इसे कूतना सरासर नमकहरामी होगी ।

जब समझदारी शैशवावस्था में ही थी , हम मालवीय जी की बगिया बीएचयू में घुसपैठ कर बैठे। ठीक उसी दिन जब बैंडिट क्वीन वाली फूलन देवी कत्ल कर दी गयी। फूलन को बंदूक उठाए हमने अपने बचपन में तब देखा था जब दलसिंहसराय में लक्ष्मी कचड़ी वाले के सुबहिया दुकान पर आलूदम खाने पहुंचे। माथे पर लाल पट्टी लपेटे फूलन वाला पोस्टर कचड़ी-आलूदम के खोमचे से सटी दीवार पर चिपका पड़ा था। खैर बात यह है कि यह फूलन भी मिर्जापुर वाली है।

खैर बीएचयू में चर ही रहे थे कि पता चला बगल में ही नौगढ़, विजयगढ़, चुनारगढ़ विराजमान है। गर्दन के नीचे खुजली मचने लगी। एक सुबह आठ-दस दोस्त कूच कर गए शिवदत्त-तारा-कलावती की तलाश में। इतिहास ग्रेजुएशन में सब्जेक्ट था तो इतना तो पता चल ही गया अपने सासाराम वाले शेरशाह को दिल्ली का शाह बनाने में चुनार ने कोई कम कंट्रीब्यूट नही किया। ... तो हम मिर्जापुर की सड़क पर थे, चुनार वाले किले के पथ पर।

... और आप तो जानते हैं कि हमलोग अतुल्य भारत वाले हैं। खोदा पहाड़ निकली चुहिया मार्का। चुनार पहुंचे और सारी दिल-दिमाग की सारी चुनचुनी शांत हो गयी। दीवारें दरकी हुई, किले का कारागार मानवीय नायट्रोजन से गंधाया हुआ और आस-पास का हर 5 से 50 बरस वाला इतिहासकार इरफान हबीब । पहुंचने के साथ ही इतिहासकारों की युवा टोली ने चारों तरफ घेरा डाल दिया । हमलोग भी होशियार। पंद्रह रुपए के पैकेज में चुनार के इतिहास को समझाने-समझने का करार हुआ। अब देखिए एक पर एक गोला फलां जगह पर धर्मेंद्र का घोड़ा हिनहिनाया , फलां जगह पर राजा साहब नाच देखते थे और फलां जगह पर रानी नहाती थी। शिवदत्त, कलावती और तारा तो खैर गायब थे ।लगा मानो चुनारगढ़ की चहारदीवारी के भीतर इतिहास का कत्ल हो चुका हो और लाश भी मौके से गायब कर दी गयी हो। इक्का-दुक्का संरचनाएं बची थी , और जो बची थी उनके कत्ल के भी पूरे इंतजामात थे।यानि कुल मिलाकर मामला ऐसा था कि चुनार के इतिहास, वर्तमान और रहस्य पर चूना पोता जा चुका था। (यादें)




बुधवार, 25 सितंबर 2013

गोलघर , तुम तो धोखेबाज निकले …

ईस्ट इंडिया कंपनी के इंजीनियर जॉन गार्स्टिन ने शायद सपने में नही सोचा होगा कि उसकी गलती को पटना अपने सर-माथे उठा लेगा। वारेन हेस्टिंग्ज भी नरक में बैठा हंस पड़ेगा, जब उसे मालूम होगा कि हजारों साल के समृद्ध इतिहास को समेटे पाटलिपुत्र की पहचानों में उसके द्वारा बनवाया गया अनाज का वो गोदाम भी है जो उसने सेना के लिए अनाज जमा करने के मकसद से बनवाया था । ... और खैर मेगास्थनीज तो अपना सर ही पीट लेगा , जो चंद्रगुप्त मौर्य के काल में पाटलिपुत्र पहुंचा और मगध की राजधानी की ठाठ-बाट देखकर दंग रह गया ।  आखिर आप ही बताइए दिल्ली का कुतुब मीनार और लाल किला , आगरा का ताजमहल , कलकत्ता का विक्टोरिया की तर्ज पर पटना की पहचान गोलघर से हो ,कितना जायज है।

जॉन गार्स्टीन
बचपन की बात है । जी. के. की किताबों में मन खूब रमता था। रट्टा मारकर राज्य राजधानी रटने से सफर जो शुरु हुआ वो अब भी बदस्तूर जारी है। समय के साथ सामान्य ज्ञान (जी के) की किताबें भी बदली। पहले वीणा बिहार दर्पण की जगह उपकार मिनी सामान्य ज्ञान , और फिर उपकार डायजेस्ट और फिर भारी भरकम सामान्य ज्ञान दिग्दर्शन और आगे न जाने कितने अगड़म-बगड़म । यानि बाहर की अनंत दुनिया ने शुरु से ही आकर्षित किया। लेकिन दो चीजें शुरुआत से ही जम गयी। पटना का गोलघर और कलकत्ता का विक्टोरिया। लेकिन तब दलसिंहसराय से बाहर की मंजिल या तो अपना पुश्तैनी गांव पान पतैली था या फिर नानीघर रोसड़ा यानि सारा मामला अपने जिले की चौहद्दी के भीतर का।

जब भी पटना दूरदर्शन पर शाम का बुलेटिन आता स्क्रीन पर गोलघर लटकता दिखता, रोजाना के इस दूरदर्शनी दर्शन के बीच गोलघर के लिए आकर्षण तीव्र से तीव्रतर होता गया। भांति-भांति की बातें सुन रखी थी इस मुए गोलघर के बारे में । सुन रखा था कि गोलघर पर चढ़िए तो पूरा पटना साक्षात दिखता है। हालांकि पटना कितना दिखता है , इस पर भिन्न-भिन्न संप्रदायों के अलग-अलग दावे थे। किन्हीं का आधा तो किंन्ही का पूरा दिखने का दावा , और वो भी पूरे प्रामाणिक आंकड़ों के साथ। इन्हीं परिस्थितियों में एक दूर के रिश्ते के जीजा जी अवतरित हुई , जिनके भाई साहब पटना में डॉक्टर बनने को कोशिशरत थे। मौका माकूल था , हम भी पटना गमन के लिए उनके साथ संलग्न हो गए।

अब पटना तो पहुंच गए लेकिन गोलघर ले जाने से हमारे जीजा जी मुकर गए। मामला सरासर धोखे का था, लेकिन आखिर फरियाद किससे की जाय। तीन-चार दिन गुजर गए। सामने के कब्रिस्तान को देख-देखकर दिमाग मुरझाने लगा। हालांकि इतना बड़ा कब्रिस्तान भी मेरे लिए किसी अजूबे से कम नही था। आखिरकार जीजाजी के भाई के रुम पार्टनर को मुझ पर तरस आ गया। एक दोपहर कब्रिस्तान को घूर ही रहा था कि अचानक गोलघर के लिए कूच के दिव्य वचन उनके मुख से फूट पड़े । कमरे के कोने में पड़ी सायकिल को पुचकारा गया। हैंडल और सीट के बीच की पाइपनुमा पर टंगकर न जाने कितनी गलियों से गुजरकर पहले गांधी मैदान और फिर गोलघर पहुंचा। गर्मी के दिन थे। धूप आसमान से बरस रही थी। मुश्किल से दर्जन भर दर्शनार्थी होंगें। कुछ सीढ़ियों पर, कुछ गोलघर के ऊपर तुलसी-चौरा जैसी बनी संरचना के इर्द-गिर्द और एक-दो मलाई बरफ वाले ठेले के आस पास धूप से झोंटा-झोंटी करते। बालू और ईंटें इधर-उधर बिखरी हुई थीं। धूप ने पहले ही दिमाग के तरल को सोख लिया था, लेकिन सालों से जो इच्छा मन में कुलबुला रही थी उसने इन कमजोर क्षणों में ग्लूकोन-डी की खुराक दी।

किसी तरह ऊपर चढ़ा , धूप का तीखापन त्वचा को पारकर हड्डियों तक पैठ गया। नजर इधर-उधर की, एक तरफ गंगा मैया लहरा रही थी तो एक तरफ गांधी मैदान पसरा हुआ था। तुलसीचौरा जैसी सरंचना पर शरीर टिकाकर गोलघर को महसूस करने लगा । इस स्तूपाकार संरचना के शीर्ष पर बैठा-बैठा इतिहास और वर्तमान को मथने लगा। फिर खुद ब खुद भीतर से सवाल फूटा- आखिर गोलघर की जिद किस लिए ? ठग लिये जाने का भाव दिल-दिमाग में उफान मारने लगा, जैसे आपने दाम तो दूध वाली कुल्फी के दिए हों लेकिन कुल्फी वाला आपको रंगीन पानी वाला थमाकर चला गया हो। आखिर क्या है इसमें ऐसा कि पटना की पहचान गोलघर से की जाय । पांव के अगल-बगल गुटखेबाजी के निशान जमकर थे। मधु और शिखर की पन्नियां बिहार में प्रचलित ब्रांडों का एलान कर रही थी। सीढ़ियां मरम्मत की मांग कर रही थी। गोलघर की दीवारें पुताई को तरस रही थी। अंदर जाने का दरवाजा न जाने किस जमाने से बंद था। अगल-बगल की हालत किसी दूरदराज के गांव के प्राइमरी स्कूल की याद दिला रहा था।


गोलघर के हाथों मिले इस धोखे ने मन खट्टा कर दिया । वो कहते हैं न, रहा भी न जाय और सहा भी न जाय , वही वाली बात हो गयी। यानि बिल्कुल शादी का लड्डू टाइप वाला मामला ठहरा , खाए तो भी पछताए और न खाए तो भी पछताए।

सोमवार, 23 सितंबर 2013

हर कब्र पर रखा पत्थर सफेद क्यूं हैं ?

अभी ज्यादा दिन नही गुजरे जब अमेरिका के पैट्रिक और कैथरीन रैडिक ने अपनी मां की मौत पर खुशी जाहिर की । अखबार में अपनी `श्रद्धां`जलि में उन्होंनें लिखा कि मां की मौत के बाद उन्होंने `डिंग-डौंग, द विच इज डेड` गाकर जश्न मनाया आपकी हमारी पहली प्रतिक्रिया  इस पर क्या होगी ?  शायद हम उन्हें मनोरोगी करार दें। हममें से अधिकांश लोग ऐसे होंगें जो किसी मृतक के दर्शनोपश्चात सीने पर दांया हाथ रखकर बुदबुदाते हैं कि भगवान इनकी आत्मा को शांति दें। फिर आखिर क्या वजह होगी इन रैडिक भाई-बहनों ने बकायदा अखबार में प्रकाशित करवाया कि उनकी मृत्यु पर हम जश्न मनाते हैं और दुआ करते हैं उनकी मां मौत के बाद के जीवन में हर उस दुख को झेले जो उनने अपने बच्चों यानि उन पर ढ़ाए। यह `श्रद्धां`जलि दरअसल इनके लिए इन पर ढ़ाए गए जुल्मों के बदले के समान था। पैट्रिक रैडिक के मुताबिक यह `श्रद्धां`जलि चाइल्ड एब्यूज के खिलाफ उनकी अभिव्यक्ति है। इस चर्चित `श्रद्धां`जलि की बात दुनिया भर में फैली। आखिर लिपे-पुते , ऑल वाज वैल मोड वाले श्रद्धांजलियों के प्रचलन के बीच यह अजूबे जैसा जो था।

इस श्रद्धांजलि ने कई प्रश्न भी खड़े किए हैं। किसी की मौत के बाद मूल्यांकन का तरीका क्या हो ? क्या इतिहास  पर चूने की सफेदी मार देनी चाहिए ? भले-बुरे, सही-गलत को एक ही तराजू से तौलना कितना सही है लीपा-पोती मार्का श्रद्धांजलि क्या बुराई को प्रोत्साहित नही करेगी और अच्छाई हतोत्साहित नही होगी ? और फिर ईमानदारी की मांग करते इस वैज्ञानिक समय में किसी के बारे में आखिरी विचार व्यक्त करते वक्त बेईमानी क्यूं बरती जाय ?

बीते साल की बात है, बाल ठाकरे जी गुजर गए। श्रद्धासुमन अर्पित करने वालों की भीड़ उमड़ पड़ी। शवयात्रा कई चैनलों से लाइव टेलीकास्ट की गयी। मातोश्री से इंटरनेटी दुनिया तक लोग इस `महामानव` की दर पर मत्था टेकते नजर आए। लेकिन श्रद्धांजलियों के इस समंदर में इस इतिहास को मानो डुबो दिया गया कि किस तरह दक्षिण से लेकर पूरब तक के गरीब मजदूर-टैक्सीवाले-रेहड़ीवाले इनकी वजह से कष्ट झेलने को मजबूर होना पड़ा।

अभी कल ही की बात है। समाजवादी पार्टी के नेता मोहन सिंह इस दुनिया से कूच कर गए। कई लोगों ने उनकी ईमानदारी से लेकर उनकी समाजवादी शख्सियत के गुण गाए। लेकिन आप ही बताइए आय से अधिक संपत्ति का मामला हो या बेशर्म परिवारवाद का , रिटेल में एफडीआई पर मुहर हो या न्युक्लियर डील को समर्थन , जो शख्स इसके बावजूद भी नेताजी का अनुगामी या सहकर्मी रहा हो क्या उसका समाजवाद संदिग्ध नही हो जाता।

ऐसे में बड़ा सवाल है कि आखिर लीपा-पोती मार्का श्रद्धांजलि का यह दौर कब तक चलता रहेगा और ईमानदार मूल्यांकन की शुरुआत कब होगी।

शुक्रवार, 13 सितंबर 2013

रामाधीरों को रास्ता खाली करना होगा ...

"बेटा तुमसे ना होगा" ... सुनते-सुनते जे पी सिंह के कान-दिमाग पक गए। रामाधीर बरगद बना बैठा था, उस जमाने में भी जबकि धर्मेंद्र-देवानंद जलवा बरपा रहे थे सिनेमा से परहेज करता था। जे पी सिंह नए जमाने का था , लेकिन रामाधीर उसका बाप था जो उसी सामंती परंपरा का हिस्सा था , जहां बाप चिता में गुम हो जाने तक `बाप` बने रहने की जिद पाले रखता है। यह मामला महज जे पी सिंह बनाम रामाधीर सिंह का नही है , यह पीढ़ियों के बीच का संघर्ष है जहां बाप समय के साथ परिधि पर जाने से सिरे से इंकार कर देता है और बेटा संस्कारों की संकरी गली में घुटता रहता है । जे पी सिंह विद्रोही निकला जिसने संस्कारों के आगे घुटने टेकने से इंकार कर दिया। यह महज बाप-बेटे का भी मामला नही है , यह गुरु-चेले के बीच का मामला भी हो सकता है। यह हर उस परिस्थिति की परछाई है जिसमें पुराना अपने पांव अंगद के माफिक जमा रखना चाहता है , वरिष्ठता की चाबुक बरसाता रहता है और सामने वाले से उफ तक न कहने की उम्मीद रखता है । वासेपुर की दुनिया किसी मंगल ग्रह की छाया नही है , हमारे बीच की कहानी है। ताजा मामलों में बीजेपीपुर में इसकी परछाई दिखाई दे रही है तो कोई आश्चर्य नही। आखिर जे पी सिंह के सामने विकल्प कौन-कौन से थे आखिर कब तक संस्कारों के चक्रव्यूह में अपनी महत्वाकांक्षा का गला घोंटता। ऑटोमेटिक हथियार, शार्प शूटर , शाहरुख-सलमान से लैस लेकिन रामाधीर की इच्छाओं पर कठपुतली की तरह नाचने को मजबूर।

राजनीति हो या कारोबार या फिर हमारा-आपका घर ... आखिर कब तक उन संस्कारों को ढ़ोए जो बदले जमाने के साथ आउटडेटेड हो गए हैं। ज्वाइंट फैमिली न्यूक्लियर फैमिली में कंवर्ट हो रही है जिसमें हर एक अपनी उड़ान अपनी मर्जी से तय कर रहा है, नयी कंपनियां स्थापित हो रही है जहां रिश्तों की बजाय प्रोफेशनलिज्म जगह पा रही है , बच्चें अभिभावकों की सार्वकालिक इच्छा डॉक्टर/इंजीनियर की बजाय नए क्षेत्रों में अपनी मर्जी से विचर रहे है, ऐसे में इतिहास पर प्रलाप भविष्य को बेहतर बनाने की बजाय बदतर ही करेगा।

आडवाणी कोपभवन है और चेले मान-मनौव्वल में जुटे हैं। यह तो आडवाणी जी को भी पता है समय किसी का इंतजार नही करती और न ही कहीं ठिठक सकती है। ऐसे में जिद की भी एक सीमा है , जिससे परे इतिहास भी धूमिल होगा , भविष्य की क्या कहिए ? उन्हें समझना होगा कि यह जे पी सिंह का समय है जो अपनी बारी के इंतजार में बुढ़ा रहा है।


नोट- इस पोस्ट का किसी भी खास विचारधारा से कोई लेना-देना नही है

बुधवार, 11 सितंबर 2013

भगवान मूच्छड़ क्यूं नही होते ?

बाल्यावस्था से ही रामानंद सागर के रामायण की खुराक मिलनी शुरु हुई और फिर रही सही कसर बी.आर. चोपड़ा की महाभारत के हैवी डोज ने पूरी कर दी। बाकी जय हनुमान , जय गणेश , गंगा मैया तो थी हीं । बात बचपन की है , लेकिन सवाल अभी भी अपनी जगह है। जब भी राम-लक्ष्मण के सफाचट चेहरे को देखता तो एक बार दिमाग में जरुर घूम जाता कि क्या शंकर सुपर सैलून टाइप (दलसिंहसराय का तत्कालीन टीप-टॉप सैलून) के दुकान जंगलों में भी पाये जाते हैं ? …  या फिर अयोध्या से चलते समय इन्होंने अपने झोले में उस्तरा भी रख लिया था। जंगल में तप करने वाले विचरण करने वाले साधु-सन्यासिंयों की बढ़ी हुई दाढ़ी-मूंछ के विपरीत भगवान राम का दाढ़ी-मूंछ विहीन चेहरा खटकता था। ज्यादा दिमाग दौड़ाता तो लगता कहीं पाप तो नही कर रहा। वैसे भी दादी से पूछा गया हर सवाल इस ब्रह्मउत्तर के बाद अपना अस्तित्व खो देता कि अरे भगवान जी हतिन  !!! ऐसे में उनसे इस सवाल के जवाब की उम्मीद क्या करता। चुप ही रहा। साल शुरु होते ही कैलेंडरों को जमा करने का खूब जोश हम बच्चों में खूब रहता। कमरे के कोने-कोने को हम देवता-देवियों की तस्वीरों से पाट देते। उन तस्वीरों में भी अक्सर दाढ़ी-मूंछ तलाशने पर निराशा ही हाथ लगती। हां कुछ बुजुर्ग टाइप के देवताओं की बात दूसरी थी। मसलन ब्रह्मा जी बढ़ी हुई दाढ़ी-मूंछ के साथ दिखते, लेकिन आप ही बताइए राम, कृष्ण , विष्णु , शिव जी के सामने उनकी क्या बिसात। एक बात और , अधिकांश दानवों के चेहरे दाढ़ी-मूंछ से भरपूर होते। अब ऐसा तो है नही कि उनके यहां नाईयों ने हड़ताल कर दी हो। और फिर क्या असुरों की पत्नियों ने अपने पतियों के चेहरे पर उगे घोंसलों पर आपत्ति नही की? कभी-कभी लगता है कि हो सकता है आपत्ति की हो , लेकिन असुर तो असुर ठहरे। लेकिन फिर देवता भी तो पारिवारिक जीवन में कोई खास डेमोक्रेटिक नही थे। लक्ष्मी जी हमेशा विष्णु जी के चरणों में ही नजर आती हैं , माता सीता के कष्टों को कौन नही जानता।

समय बीता , उम्र बढ़ी।  धार्मिक धारावाहिकों की जगह शांति , स्वाभिमान का ट्रेंड शुरु हुआ और फिर तो टीवी पर तिकड़मी सासों-बहुओं ने कब्जा जमा लिया। यह सवाल भी कहीं किसी कोने में दुबक गया। एम.ए. प्रीवियस के दौरान की बात है। बड़ौदा स्कूल के नामी-गिरामी चित्रकार गुलाम मोहम्मद शेख के साथ दिल्ली में नैशनल गैलेरी ऑफ मॉर्डन आर्ट घूमने का मौका मिला। कई चित्रों को बकायदा बैकग्राउंड के साथ समझाया उन्होंनें। मिथिला पेंटिंग , कालीघाट पेंटिंग , बंगाल स्कूल आदि को। कुछ पल्ले पड़ा कुछ भविष्य पर भरोसा कर सिर पर से गुजर जाने दिया। इसी दौरान भगवान शिव की एक पेंटिग पर नजर टिक गयी। अपने चिरपरिचित नीले शरीर , कमर पर मृगछाला, सिर पर जटाजूट तो था ही , लेकिन जो चीज खास थी , वह थी चेहरे पर मूंछ की मौजूदगी। दिमाग उछलने लगा। झट से शेख सर से यह सवाल पूछ डाला। फिर पता चला कि पहले की तस्वीरों में भगवान को मूंछे हुआ करती थी। फिर लगा कि यह सारा गड़बड़झाला भगवान के भक्तों का पैदा किया हुआ है।

आखिर क्या वजह हो सकती है मूंछ-दाढ़ी के गायब हो जाने की ? सच कहूं तो भगवान के भक्तों के इस घोटाले को अब तक समझ नही पाया हूं। शायद आपके पास इसका जवाब हो ?  यदि हो तो बताइएगा जरुर।

शुक्रवार, 6 सितंबर 2013

जय गुरु`देव` !!!

5 सितंबर आते ही उन्माद सा आ जाता है। गली की मुंडेर पर मास्टर साहब को ढ़ेला मारने को तैयार रहने वाले छात्र भी मुंह में घास दबाए नजर आते हैं। तंबाकू मलने वाले मास्टर से लेकर व्यापारिक बुद्धि वाले टीचर भी गुरुदेव की मुख-मुद्रा धारण कर लेते हैं। हाथ चौबीसों घंटे आर्शीवाद की मुद्रा में होता है और चेहरा-आंखें मौसमी नरमी और नमी की चपेट में आ जाते हैं। एकबारगी किसी को भी लग सकता है कि पूरा भारत गुरुकुल में बदल गया है। बस जंगलों और पशु-पक्षियों की जगह बिल्डिंगें उग आयी हों। लेकिन संस्कार की इस सतह को थोड़ा छीलिए तो लगेगा कि मामला चोंचलेबाजी ज्यादा है , हकीकत कम ।

वैसे मन तो कल ही चुलबुला रहा था कि अपने कुछ `महान` गुरुजनों को याद किया जाय। लेकिन क्या किया, इच्छा बाकियों की तरह सामाजिक संस्कारों की भेंट चढ़ गयी। हांलाकि जहां तक कुछ सीखने की बात है ,तो इन महान मास्टरों का भी योगदान कुछ कम नही है। अनुभव और कल्पना-शक्ति दोनों ही समृद्ध हुई हैं , इससे कोई इंकार नही है।

कुछ दिनों पहले की बात हैं। राजनीति-विज्ञान के हमारे एक मास्टर साहब थे जिन्होंने भारतीय संस्कृति की रक्षा का जिम्मा अपने कंधों पर उठा रखा है। अब भारतीय सभ्यता-संस्कृति तो महान ठहरी , ऐसे में टीचरी लगभग पार्टटाइम मामला था उनका । चेहरा देखने को तरस जाते थे विद्यार्थी।  कुछ दिनों पहले उन्होंने संस्कृति की रक्षा को समर्पित एक अपडेट किया। पूर्व-छात्र ने मौका अच्छा समझा और गरियाया कि क्लास करने तो आते नही थे , चले हैं संस्कृति की रक्षा करने। गुरुदेव ने झट से कमेंट डिलीट किया कि छात्र का यह कमेंट भारतीय परंपरा-संस्कृति को दूषित न कर दे।

अब इतिहास की चर्चा कर रहा हूं तो इतिहास के अपने एक मास्टर साहब का जिक्र कर ही दूं। मध्ययुगीन इतिहास का चैप्टर शुरु होता और वह मास्टर साहब इतिहास में बिला जाते। चेहरा लाल हो जाता , बॉडी का ब्लड-सर्कुलेशन तीव्र हो जाता । शिक्षक कम , संजय की भूमिका ज्यादा निभाते दिखते। ... एक तरफ मुगलों की विशाल सेना थी , दूसरी तरफ मुट्ठी भर राजपूत, लेकिन उत्साह की कोई कमी नही। राजपूतों की तलवारें चमक रही थी। भीषण युद्ध हुआ। हजारों हजार की संख्या में लोग लड़े , लाखों मरे , करोड़ों घायल गुए। और आप ही बताइए जब गुरु-चेला दोनों लड़ाई के मैदान में प्राणपण से घुस गए हो तो मैथमेटिक्स की मौत तो तय है।

अब बात एक और मास्टर साहब की । मास्टर साहब राजपूत थे और एक बेटी के बाप भी। छात्रों में से पहले राजपूत छांटते और फिर दामाद कि फलां उनकी बेटी पर फिट बैठेगा कि नही।... ऐसा हुआ कि एक दिन एक लड़का उनको जंच गया। सुदर्शन व्यक्तित्व और उज्जवल भविष्य से परिपूर्ण । लेकिन एक खटका था। लड़के का आना जाना एक दूसरे मास्टरनी साहिबा के यहां था , जिनकी भी एक बेटी थी। हालांकि मास्टरनी साहिबा जाति से राजपूत नही थी, लेकिन उनका चित हमेशा चिंतित रहने लगा । जब चिंता बर्दाश्त से बाहर हो गयी तो एक दिन लड़के को उन्होंने बुलाया। बेटी दोनों को चाय देने के लिए आई। बेटी के प्रस्थान पश्चात मास्टर साहब ने सवाल पूछा- पसंद है कि नही। लड़का न हां, न ना। तड़ से मास्टर साहब इतिहास में मानो विलीन से हो गए और थर्ड पर्सन के चोले में कहा- देखो बेटा ! राजपूत लड़के एश तो सब जगह करते हैं लेकिन शादी राजपूत में ही करते हैं।  ( क्रमश: )