रविवार, 19 जून 2016

उपन्यास, अजनबी, आंसू ... और जवान होता रिश्ता...

ऊंघते दिनों में जबकि दोपहर सर पर होता ,ग्राहक गली से बाहर आने से परहेज करते, मैं कई दुकानदारों को मोटी-मोटी किताबों में सर घुसाए हुए देखता । पढने के उनके सामर्थ्य और ललक को देखकर चौंधिया जाता । हम ठहरे विद्यार्थी... बस्ते में किताब होना हमारी मजबूरी ठहरी। दोपहर की घंटती बजती तो सीधे मैदान में... और दोपहर शुक्रवार का हो तो फिर पूछिए मत, खेला पूरे डेढ़ घंटे चलता। गेंद फेंका-फेंकी से लेकर पिट्टो तक सारे खेल खेल-खेल कर पस्त होकर ही वापस लौटते। पढाई उतनी ही करते जितनी क्लास में मास्टर साहब पढ़ा देते और ट्यूशन वाले मास्टर साहब से डांट नही सुननी पड़ती।  लेकिन इन पढ़ाकों के हौसले और जज्बे को देखकर सलाम करने को मन करता। कई बार पान की गुमटी और तंबाकू की दुकानों पर ऐसी भारी-भरकम किताबें पड़ी मिलती। लगता कि पढ़ाई-लिखाई का ठौर-ठिकाना केवल स्कूल ही नही है। इसी जिज्ञासा का परिणाम था कि उपन्यास शब्द ने मेरे शब्दकोष में अपनी जगह बनायी। आकर्षण अभी बाल्यावस्था में ही था कि उपन्यास के जन्म-जन्मांतर के शत्रु अपने-अपने बिलों से बाहर निकलते मिले। किसी ने कहा-निठल्ला पुराण है तो किसी ने बेरोजगारी से इसका द्वंद्व समास यानि लोटा-डोरी वाला रिश्ता बताया। यानि कुल मिलाकर विरोधी पक्ष की बातों का सार यह था कि यह कोढ़ का कारण तो है ही उसका लक्षण भी है। उपन्यास के प्रति उपजा आकर्षण गर्भ में ही मृत हो गया ... हालांकि यह भी कह सकते हैं कि सुसुप्त हो गया। (बाद में पता चल इन भारी-भरकम पोथों को लुग्दी साहित्य भी कहते हैं।)

       साहित्य के नाम पर पाठ्यपुस्तकों से इतर दसवीं तक मैने कोई झांका-झांकी नही की। किताब-पत्रिका की दुकान पर पाठ्यपुस्तकें जहां आलमारियों में गरिमामयी अंदाज में जमी रहती, वहीं इंडिया टूडे, माया, प्रतियोगिता दर्पण से लेकर सरस सलिल आगे मेज पर पड़ी रहती। एकाध बार कनखियों से सरस सलिल को देखा जरुर था। तब तक सरस-सलिल बदनाम पत्रिका के तौर पर युवा और अधेड़ जगत में अपनी प्रतिष्ठा पा चुकी थी। उड़ती-उड़ती चर्चाएं तो खूब सुन रखी थी लेकिन उसके पन्नों तक पहुंचने से पहले ही हिम्मत जबाव दे देती, ऊंगलियां खुद-ब-खुद सिकुड़ जाती और फिर पड़ोस में लटके इंडिया टूडे को इस प्रकार टटोलने लगती कि किसी को मेरी मंशा पर सुई भर का भी शक न हो।

       हालांकि छठी से लेकर दसवीं तक की बिहार बोर्ड की पाठ्यपुस्तकों में मशहूर लेखकों की कहानियां और कविताएं पढ़ी थी। नागार्जुन की 'अमल-धवल गिरी के शिखरों पर बादल को घिरते देखा है' वाली कविता पाठ्यपुस्तक का हिस्सा थी, सुदर्शन की कहानी 'हार की जीत' को छठी क्लास में चाव से न जाने कितनी बार पढ़ा था। हिंदी के हमारे टीचर थे- लड्डू चौधरी । क्लास में खड़ा करवा-करवा कर हर किसी से एक-एक पैरा पढ़ने को कहते । मुझे याद है कि सातवीं क्लास में किसी कहानी के एक पैरा की शुरुआत में डार्लिंग शब्द था और क्लास के बच्चे इस जुगत में थे कि इस पैरा को पढ़ने के लिए उनका ही नंबर आए। वैसे पढ़ने के लिए तो लालू-चालीसा भी पढ़ा था- 'कुंदन राय मरछिया देवी, के संतान, जगत तुम खेवी'। लेकिन मोटे तौर पर यह था कि मेरे लिए साहित्य से संबंध पाठ्यपुस्तकों की परिधि में ही गोल-गोल घूमता रहा।

      बारहवीं के बाद पटना से बनारस पहुंचने के बाद उपन्यास से पुनर्परिचय हुआ ... और इस बार जो रिश्ता बना वो समय के साथ और-और जवान होता जा रहा है। हुआ यूं कि बीए फर्स्ट ईयर के शुरुआती दिन थे। पहली बार घर से दूर एकदम छूट्टा टाइप हुए थे। कोई रोकने-टोकने वाला नही। दिन में क्लास जाओ और शाम में कॉमन-रुम में टीवी भकोसो। फिल्म,न्यूज,गाना जो भी चले भकोसते रहो। रात के खाने के बाद तमाम तरह की फिल्में कॉमन रुम में चलती । चलती तो फिर रुकने का नाम न लेती। कुछ वीर-बांकुरे सुबह गोधूलि-बेला तक फिल्म का पान करते। ऐसे ही दिनों में एक मित्र जो कभी-कभार होस्टल में आतिथ्य फरमाते गुनाहों का देवता लेकर अवतरित हुए। हम भी पूरे फ्री थे। संयोग से मांगने पर उन्होंने अपनी आदत के विपरित वो किताब दे भी दी। एक बार जो बैठे उठा ही नही गया। सुधा, विनती, चंदर में ही घूमने लगे। अक्षय कुमार, विपाशा बसु वाली फिल्म अजनबी कॉमन रुम में चलनी शुरु हो चुकी थी। अगल-बगल के कमरे खाली हो गए थे ... और मैं रोया जा रहा था । सुधा और चंदर का दुख मेरे अंदर धंस सा गया। शुक्र था कि पूरी की पूरी लॉबी वीरान थी और कोई संयोगवश भी मेरे कमरे में नही आया । किसी ने यह नही पूछा कि मेरा कोई स्वर्ग सिधार गया है क्या।  यह उपन्यास से मेरे रिश्ते की शुरुआत थी। उपन्यासों के अजनबी पात्र अब अपने लगने लगे।



शुक्रवार, 3 जून 2016

“दुनिया वालों से दूर, जलने वालों से दूर ... “

कई महीनों से कहीं घूमने नही जा पाने की वजह से बीवी के निशाने पर था । घूमने के मुद्दे पर घमासान वार्ता चल ही रही थी कि अचानक एक क्षण ऐसा आया जब घूमने की तिथि पर न्यूनतम साझा सहमति बन गयी। हालांकि जाना कहां है, इस पर पक्के तौर पर मुहर नही लगी।

      इन्हीं दिनों हम कॉपरनिकस मार्ग के अपने ऑफिस से टहलते-टहलते सफदर हाशमी मार्ग के कोने पर खड़े हिमाचल भवन के करीब से गुजर ही रहे थे कि शिमला जाने का विचार अकस्मात उभरा। अंदर ही हिमाचल टूरिज्म वालों का एक छोटा सा ऑफिस है। हमारे दिए दिनों में उनके शिमला के होटलों में बस एक दिन की ही बुकिंग उपलब्ध थी । हिमाचल टूरिज्म वालों ने चैल जाने का विकल्प सुझाया - चैल पैलेस में बचे दूसरे दिन के लिए कमरा खाली था । छत्तीस के छत्तीस न सही लगभग बत्तीस-तैंतीस गुण तो मिल ही गए। बस-होटल की बुकिंग कर-कराकर ही हम वापस लौंटें ।
शिमला

चैल पैलेस


       कुछ ऐसा ही वाकया कुछ सालों पहले हुआ जब राजकुमार हिरानी की टीम को थ्री इडियट्स की शूटिंग के लिए इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस स्टडीज से अनुमति नही मिली तो चैल पैलेस विकल्प के तौर पर अचानक से उभरा और बेचारे रणछोड़ दास चांचड़ के बाप के भस्म में परिवर्तित होने के बाद के दृश्य यहां फिल्माए गए।
इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस स्टडीज

चैल पैलेस


         वैसे कहने वाले तो यह कहते हैं कि पाटियाला के राजा भूपिंदर सिंह जब वायसराय की बेटी को शिमला से भगाकर ले गए तो शिमला उनके लिए दिल्ली-दूर हो गया । फिर चैल उनके लिए विकल्प के तौर पर उभरा। राजा साहब तो ठहरे राजा साहब .... उन्होंने चैल में अपना डेरा-डंडा जमा लिया। चैल है भी बेपनाह खूबसूरती समेटे, ऊपर से तुर्रा यह कि ऊंचाई भी शिमला से ज्यादा । ऊंचाई का जिक्र-ए-अंदाज ऐसा कि सुनाने वाले ने अभी-अभी इतिहास में छलांग लगायी हो राजा साहब के और चौड़े हुए सीने को अभी-अभी इंच-टेप से पैमाइश की हो या फिर वायसराय को उनकी बग्घी से ढ़केल कर अभी-अभी लौटा हो । कहने वाले तो ऐसे कहते हैं मानो राजा साहब उनके सामने ही वायसराय की सुपुत्री को लेकर चंपत हो गए हों। कुछ कहते हैं कि बेटी वायसराय की नही थी कमांडर-इन-चीफ लॉर्ड किचनर की थी। हालांकि ठोस इतिहास कहता है कि राजा साहब बमुश्किल एक साल के थे जब चैल पैलेस ने आकार लिया। हिंदुस्तान टाइम्स की एक रिपोर्ट में स्कैंडल प्वांइट की लेखिका मंजू जेदका कहती है कि हो सकता है कि इस कहानी का जुड़ाव भूपिंदर सिंह से न होकर उनके पिता राजिंदर सिंह से हो। वो कहती है कि इस बात के प्रमाण है कि राजिंदर सिंह की एक अंग्रेज पत्नी थी , जिनसे उन्हें एक बेटा भी हुआ था । उनके मुताबिक भूपिंदर सिंह के इस कहानी का किरदार होने की वजह उनकी रंगीन तबियत हो सकती है।... वैसे 'वायसराय की बेटी और महाराजा की दंतकथा' ने किन परिस्थितियों में जन्म लिया , कब कौन सी करवट ली और कैसे वायसराय , लॉर्ड किचनर और चैल पैलेस इससे जुड़ते चले गए, यह जानना रोचक होगा। समय का समंदर कुछ चीजों को अपने पेटे में ले लेता है और कुछ को उछालकर किनारे पटक देता है। शायद कभी भविष्य में इस दंतकथा के पीछे की सत्यकथा भी उद्घाटित हो।

         शिमला की भीड़भाड़ से दूर हम चैल पैलेस पहुंचे तो समय ठहर सा गया । दिल्ली की भागमभाग और शिमला की चहल-पहल चैल पैलेस के चारों तरफ फैले विशालकाय देवदार पेड़ों को लांघ नही पायी । वर्तमान को पृष्ठभूमि में ठेलकर इतिहास मंच पर मुख्य भूमिका में था । अंदर रेस्तरां में फिल्म उजाला का गाना बज रहा था- दुनिया वालों से दूर , जलने वालों से दूर ... आ जा, आ जा चलें कहीं दूर ...। 

          चैल पैलेस की ऊंची छतों और एंटीक फर्नीचर वाले रेस्तरां में बैठे फिल्म दाग का राजेश खन्ना का वो डायलॉग भी याद आया – "इज्जतें , शोहरतें,चाहते, उल्फतें... कोई भी चीज दुनिया में रहती नही ... आज मैं हूं जहां कल कोई और था ...ये भी एक दौर है, वो भी एक दौर था ।" चैल की खूबूसरत सुरंग से होकर मैं अतीत, वर्तमान और भविष्य में एक साथ डुबकी लगाने लगा । .... मैं अपने-आप में सिमटता जा रहा था । चैल एक सुखद संयोग था, स्मृतियों में संजोने लायक । बताते चलें कि राजेश खन्ना, शर्मिला टैगोर और राखी अभिनीत हिट फिल्म दाग के कुछ दृश्य चैल में फिल्माए गए।