गुरुवार, 5 मई 2016

बरास्ते करांची : कभी दलसिंहसराय से लिपटी थी सफेद सिगरेटी चमड़ी...

स्कूल के दिनों में घर से बाहर निकलता तो लिखा देखता – “पनामा पीने वालों की बात ही कुछ और है “। साथ ही आधे उजले और आधे पीले डब्बे से कुछ सिगरटें बाहर खुली हवा में ताका-झांकी करती दिखती। अपनी सफेद काया में हर जाति-धर्म-उम्र के लोगों को अपनी ओर खींचने की अकुलाहट उनमें साफ-साफ दिखती। हालांकि खैनी और बीड़ी का जलवा तो था ही, लेकिन गोरेपन को ऐसे इलाके में कौन नकार सकता है जहां हर सास को अपनी बहू और हर संभावित पति को गोरी ही लड़की चाहिए ।

और लगभग यहीं कालखंड होगा जब गोपी बाबू से गणित, भौतिकी, रसायन की ट्यूशन के लिए हम मंसूरचक के रास्ते में उनके मकान की ओर हर शाम रुख करते। इसी रास्ते पर दलसिंहसराय स्टेशन के प्लेटफार्म नंबर 2 के समांतर एक बड़ी चहारदिवारी से घिरी एक जगह थी । बाहर से अंदर का कुछ भी नही दिखता ... सिवाय बड़े-बड़े पेड़ों के आसमान की ओर बढ़ते सर और धड़ । लोग कहते कि यह सिगरेट फैक्ट्री है। वैसे हमारे सामान्य ज्ञान वाली किताब में बिहार के कारखानों की सूची में इसका जिक्र नही था। पता चला कि काफी पहले ही बंद हो गयी।

वैसे तो हमारा इलाका मोटे तौर पर खैनी और बीड़ी टाइप का था, लेकिन शौकीन मिजाज सिगरेट का भी लुत्फ उठाते । जब भी 'सिगरेट फैक्ट्री के करीब से गुजरता जिज्ञासाएं स्वभाविक रुप से जाग जाती । आखिर दलसिंहसराय और सिगरेट के बीच आखिर रिश्ता क्या है, कैसा था ? कितना पुराना है ? क्या अब भी रिश्ते की कोई डोर बची रह गयी है या फिर समय ने सारे पुराने रिश्ते कतर दिए हैं।

फिर धीरे-धीरे समझ में आया कि दलसिंहसराय और सिगरेट के बीच का रिश्ता साधारण सा नही है, एतिहासिक है, और इस एतिहासिक रिश्ते में कोई अनहोनी नही थी । दरअसल सरैसा परगना के तंबाकू की प्रसिद्धि का अपना इतिहास रहा है। इंडियन सिविल सेवा से जुड़े एल एस एस ओ मैली ने 1907 के दरभंगा जिले के गजेटियर में लिखा है कि सरैसा परगना के तंबाकू की ख्याति उत्तर बिहार की सीमा की पाबंद नही थी। सरैसा जिले का सबसे बड़ा परगना था, मुजफ्फरपुर जिले के साथ-साथ मुख्य रुप से यह दलसिंहसराय और समस्तीपुर थाने की परिधि में था। उन्होंने लिखा है कि दरभंगा जिले में तंबाकू के कुल खेत के सात का पांचवा हिस्सा समस्तीपुर और दलसिंहसराय थाने में था।

हालांकि तंबाकू भारत की मौलिक वस्तु नही है, इसके दादा-परदादा विदेशी थे, समंदर पार के, जहां जाने का मतलब ही धर्म-भ्रष्ट हो जाना है। पुर्तगाली इसे लेकर आए और हालत अब ऐसी हो गयी कि किसी भी मोड़ और नाली के ऊपर बनी गुमटी पर तंबाकू की लड़ी, उसे कच-कच कर कतरने वाला यंत्र और प्लास्टिक-स्टिल की चिनौटी न दिखे तो समझिए कस्बा-गांव ही मरा हुआ है, सार्वजनिक बहस की परंपरा समाप्त हो गयी है , समानता खतरे मे हैं , अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सीमित हो गयी है। हालांकि पोलिथीन-प्लास्टिक युग के प्रसार में अब खैनी और चूना भी पैकेटबंद हो चले हैं।

खैर हुआ यू कि साल 1902 में दुनिया के सबसे बड़े तंबाकू फर्मों में शुमार ‘द अमेरिकन टोबैको कंपनी’ और ‘इंपीरियल टोबैको कंपनी’ ने सालों से छिड़े कीमतों को लेकर होने वाली प्रतिस्पर्धा को खत्म करने का फैसला लिया तो उन्होंने अपने प्रभाव वाले इलाके को छोड़कर बाकी दुनिया के लिए एक नयी कंपनी ‘ब्रिटिश अमरिकन टोबैको कंपनी( बैट)’ बनायी, जो यूके और यूएसए से बाहर के इलाकों में अपना कारोबार जमाती । स्वाभाविक रुप से बैट की निगाह तब के ब्रिटिश उपनिवेश भारत पर भी गयी। बिहार उन महत्वपूर्ण केंद्रों में से एक था जहां बैट ने अपने तंबू गाड़े और फिर दलसिंहसराय की दखल तो अब स्वाभाविक ही थी।

भारत में सिगरेट ने सबसे पहले गोरे साहब की उंगलियों के बीच जगह बनायी, भीतर भूरे साहब इसकी चपेट में आए। कंपनी ने अभी ब्रिटिश प्रवासियों के दायरे से बाहर निकल कर भारतीयों के बीच सिगरेट के प्रचार-प्रसार की शुरुआत ही की थी कि उसे सबसे बड़ा धक्का लगा 1905 के स्वदेशी आंदोलन से। ऐसे में सिगरेट के आयात पर भी लगाम लगी। इन्हीं परिस्थितियों में भारत में सिगरेट उत्पादन के लिए बैट ने नंबवर 1905 में लंदन में पेनिनसुलर टोबैको कंपनी बनायी । जे टी विल्की के प्रबंधन में एक अस्थायी फैक्ट्री करांची में लगी, जिसने स्थानीय तौर पर प्राप्त तंबाकू पत्तों और बोनसाक मशीनों के जरिए जून 1906 में सिगरेट को बाजार के लिए उतारा। लेकिन कुछ समय बाद यह साफ हो गया कि तंबाकू पत्तों के भंडारण और सिगरेट उत्पादन से जुड़े दूसरे कामों के लिए करांची सही जगह नही है। ऐसे में कलकत्ता के करीब गंगा नदी के किनारे बिहार के मुंगेर में नजदीक के तंबाकू उत्पादन-क्षेत्र को देखते हुए मार्टिन एंड को के द्वारा बैट के लिए सिगरेट कारखाना बनाया गया । एफ.ए.पार्किंसन श्रीलंका (तब के सीलोन) से पेनिनसुलर के पहले प्रबंध निदेशक के तौर पर लाए गए।

बैट ने स्थानीय स्तर पर उत्पादित तंबाकू की खरीद के लिए 3 जुलाई 1912 को कलकत्ता में इंडियन लीफ टौबेको डेवलपमेंट कंपनी बनायी। जिसने एक अमरिकी रॉबर्ट सी. हैरीसन के नेतृत्व में काम करना शुरु किया। हैरिसन ने लोगों को ऐसी किस्म के तंबाकू उत्पादन को लिए प्रोत्साहित करना शुरु किया जो सिगरेट के लिहाज से ज्यादा बेहतर हो। हालांकि स्थानीय लोगों के द्वारा तंबाकू की क्यूरिंग या सुखाने की प्रक्रिया बहुत ही अपरिष्कृत थी , ऐसे में 1908 में शाहपुर पटोरी और खजौली के बेकार पड़े नील कारखानों में रिड्रांइग प्लांट स्थापित किए गए। फिर बाद में बढ़ती जरुरतों को देखते हुए साल 1912 में दलसिंहसराय में इन दोनों से काफी बड़ा रिड्रांइग प्लांट स्थापित किया गया। यही वह साल था जब मुंगेर फैक्ट्री के द्वारा स्थानीय स्तर पर उत्पादित तंबाकू से मदारी, बैटलएक्स और रेड लैंप ब्रांड के सस्ते सिगरेट का उत्पादन शुरु हो गया। (क्रमश: )