मंगलवार, 11 जुलाई 2017

जय जय जीएसटी

सुनने में आ रहा है कि जीएसटी लागू होते ही रेलगाड़ियां खुद-ब-खुद समय पर दौड़ने लगी... जो बच्चें कल तक स्कूल का नाम सुनते ही चिल्ल-पौं मचाने लगते थे, आज सुबह उठकर खुद ही स्कूल जाने की जिद करने लगे... अस्पताल में मरीजों की हालत में आश्चर्यजनक सुधार देखा गया ... और जो खाज-खुजली-अपरस-एक्जीमा ग्रस्त थे वे अचानक से पूरी तरह दुरुस्त हो गए... मुंह के छाले, दांतो का दर्द और गले की खराश तो जीएसटी के उच्चारण मात्र से ही गायब हो रहे हैं।
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कल रात करीब साढ़े बारह बजे ऑफिस से वापस घर आ रहा था। मंडावली के पास एक आइसक्रीम वाले का ठेला अभी भी जगा हुआ था। अचानक से टैक्सी ड्राइवर ने अपना दिव्य ज्ञान उड़ेला कि अब तो जीएसटी के बाद सब को जल्दी ही नींद आ जाया करेगी। दिमाग थका हुआ था लेकिन इस दिव्य ज्ञान ने इसके बावजूद उसमें सक्रियता की धारा प्रवाहित कर दी। फिर उसने कुछ इस अंदाज में कि मानो यह ज्ञान उसके पास एक्सक्लूसिव हो, बताया कि जीएसटी के बाद सबको रोटी मिलेगी... फिर क्या है... सब जल्दी सो जाएंगें। मेरे एक सहयात्री भी थोड़े-बहुत जीएसटी विशेषज्ञ निकले... उन्होंने कहा कि इतना तो मुझे नही पता है... लेकिन यह तो तय है कि दिल्ली में भीड़-भाड़ कम हो जाएगी। मेरी जिज्ञासा अब पूरी तरह जाग गयी थी। मैने उनसे पूछ ही लिया- आखिर कैसे ? उन्होंने तत्काल छूटते ही जवाब दिया कि -- जब लोगों को दिल्ली वाली कीमत पर सामान उनके दरवाजे पर ही मिलेगी तो कोई दिल्ली क्यूं आएगा ? जीएसटी के फायदों की फेहरिस्त उतनी ही लंबी है जितनी की इसके विशेषज्ञों के नामों वाली लिस्ट ... वैसे सुनने में तो यह भी आ रहा है कि जीएसटी इस बार मानसून पर अल-नीनो के प्रभाव को बेदम कर देगा... लेकिन जो सबसे बड़ा फायदा सुनने को मिल रहा है वो यह है कि जीएसटी लागू होने के बाद पत्नियों ने अपने-अपने पतियों की बातों पर ध्यान देना और कहीं-कहीं तो मानना भी शुरु कर दिया है।
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(जीएसटी पर मेरे दो फेसबुक पोस्ट)

"उसने कहा था" ...

चंद्रधरशर्मा गुलेरी जी के जन्मदिन के मौके पर आज डीडी भारती पर उनकी मशहूर कहानी `उसने कहा था` पर बनी टेलीफिल्म आ रही थी।... फ्रांसीसी मोर्चे पर जर्मनों से मुकाबले के बीच लहना सिंह(किरण कुमार) जख्मी पड़ा था। टांग और छाती में गोली लगी थी, लेकिन लहना सिंह की जान अपने सूबेदार हजारा सिंह(रजा मुराद) और उसके बेटे भोला में अटकी हुई थी। आखिर सूबेदारनी और 'अपनी लाजो' से लाम पर जाने से पहले उसने एक वादा जो किया था। बचपन में देश की धरती पर जन्मा प्रेम का रंग परदेश में और गाढ़ा हो रहा था। साथी सिपाही वजीरा(पेंटल) फ्रांस की भीषण ठंड के बीच लहना सिंह की कुर्बानी पर जब भी उसे टोकता तो लहना सिंह का जवाब होता- तुम नही समझोगे।
टेलीफिल्म का एक दूसरा दृश्य : लहना सिंह की चाची जब लाम पर जाने की खबर से डर जाती है तो लहना सिंह का जवाब होता है- फौजी को देश की रक्षा वास्ते जंग पर जाना पड़ता है । वहीं नजदीक के गांव में ही सूबेदारनी भी लाम पर जा रहे पति और बेटे को लेकर चिंता में डूबी है। सूबेदार हजारा सिंह का ठसक भरा जवाब होता है- उनका नमक खाया है तो नमकहलाली तो करनी ही पड़ेगी।
टेलिफिल्म के इन दृश्यों से गुजरते हुए बरबस ही उस फेसबुक पोस्ट की याद आ गयी, जिसमें प्रधानमंत्री की इजरायल यात्रा के दौरान उनके हैफा स्मारक जाने की आलोचना की गयी थी। टिप्पणी करने वाले का विरोध इस बात को लेकर था कि हैफा में जर्मनों और तुर्की के सैनिकों के खिलाफ मुकाबले में मरे ब्रिटिश भारतीय सैनिक अग्रेंजों की तरफ से लड़ रहे थे।
क्या देश, राष्ट्र , धर्म, नमक की परिभाषाएं स्पष्ट, स्थिर, निरपेक्ष और ठोस है ? क्या सौ साल पहले और अब इन शब्दों के मायने एक से हैं ? वर्तमान की आंखों से क्या अतीत को न्यायपूर्ण तरीके से देखा जा सकता है ? मुझे लगता है कि हैफा में मरे ब्रिटिश भारतीय सिपाहियों को नीची निगाहों से देखने वालों को ' उसने कहा था' एक बार जरुर देखनी चाहिए।... फिर भी वे नही समझ पाये तो ऐसे में लहना सिंह का जवाब ही दोहराया जा सकता है कि- तुम नही समझोगे।