शनिवार, 10 नवंबर 2012

लगभग 29 बरस का जीभ ... चटकारी-खट्टकारी यादें ...

क्वालालम्पुर के इंस्टीट्यूट ऑफ स्ट्रैटेजिक एंड इंटरनेशनल स्टडीज से बुलावा आया था। आने-जाने के बिजनेस क्लास टिकट के साथ एक फॉर्म भी भरने को था। डायटरी रिस्ट्रीक्शन यानि खाने में मनाही की वस्तु के आगे मैने बीफ भर दिया, प्रीफरेंस का कॉलम खाली ही छोड़ दिया। वैसे भी क्या भरता ? चावल-दाल-चोखा , रोटी-सब्जी और कभी-कभार मटन-चिकेन-अंडा के अलावा कुछेक ही चीजें है जो मुझे अच्छी लगती है। कह सकते है कि एक तो इनकी आदत सी हो गयी है और दूसरा कि अब मैं इन आदतों का लगभग गुलाम हो गया हूं। नेपाल के अलावा किसी विदेशी धरती से अब तक मेरा पाला नही पड़ा था , ऐसे में खान-पास से जुड़े जोखिमों के बारे में अंदाजा भी नही था। वैसे भी खाने का जुड़ाव मेरे मामले में पेट से ज्यादा मन से ही अधिक रहा है।

पालम हवाई अड्डे से उड़ान भरने के साथ ही खाने और पीने की तमाम सामग्रियां सामने से आने-जाने लगी। एक नमकीन सी दिखने वाली चीज लगभग मैं अपनी जीभ को समर्पित ही करने वाला था कि कहीं से पोर्क शब्द उछल कर मेरे कानों में छलांग लगाता हुआ पहुंचा। दिमाग को मानो लकवा मार गया और जीभ से उत्सर्जित तरल एकबारगी अंतर्ध्यान हो गया। खैर आगे के करीब 5-6 दिन कमोबेश ऐसे ही रहे। आइटीनरी में कमोबेश हर सुबह-शाम क्वालालम्पुर के मशहूर पांच सितारा होटलों और मशहूर भोजनालयों में भोजन कराए जाने का इंतजाम था , लेकिन अक्सर जूस, ब्रेड और अंडे से ही काम चलाना पड़ता। संयोगवश मंडेरिन ओरियंटल ,जहां हमारे रहने का इंतजाम था , उनके मेन्यू में स्टीमड राइस और दाल तड़का का इंतजाम था ,जो अक्सर पूरे दिन की मीटिंग , सेमीनार और भ्रमण के बाद शरीर को संभाले रहता। खैर तीन-चार दिनों के बाद पेट को तब सुकून मिला जब वहां एक दक्षिण भारतीय रेस्तरां में राइस-रसम खाने को मिला और वो भी देशी स्टायल में, वरना तो पांच सितारा होटलों में खाने के साथ तमाम लटके-झटकों से दो चार होना पड़ता ।मलेशिया में तमिलों की आबादी अच्छी-खासी है, और लगातार उनकी संख्या में इजाफा भी हो रहा है। जब नई नवेली खुबसूरत राजधानी पुत्राजाया में हमलोगों की मुलाकात मलेशियाई प्रधानमंत्री से हुई तो पता चला कि हजारों की संख्या में ऐसे तमिल यहां है जो वीजा की वैद्यता खत्म होने के बाद भी अभी भी मलेशिया में हैं ।एक बार मैक्डोनाल्ड भी गया और बर्गर-फ्रैंच फ्राइ के टेबल पर आगमन के साथ ही न जाने कहां से कहीं पढ़ा याद आ गया कि भारत को छोड़कर अन्य जगहों पर मैकडोनाल्ड वाले बीफ से जुड़े किसी प्रोडक्ट का इस्तेमाल करते है। बर्गर-फ्रैंच फ्राय को टेबल पर ही छोड़कर खिसकना पड़ा। खैर इस मलेशियन ट्रैजेडी में मुझे दिल्ली और खासकर दलसिंहसराय की याद अक्सर आती। ऐसे में जबकि वजन खतरे के निशान से थोड़ा ही ऊपर है खाने में थोड़ा भी झोल-झाल खूब अखरता है।

अब जबकि जीभ-उदर और बाकी शरीर के साथ मैं 29 साल की दहलीज पर हूं और लगभग आधी उम्र निकल चुकी है गाहे-बेगाहे इस जीभ को दलसिंहसराय से दूर होना खटकता है। मदन का समोसा-सिंघारा और आलू की चटनी, चमन लाल का रसकदम, परदेशी झाल-मूढ़ी, लक्ष्मी कचड़ीवाले का आलूदम , बोढ़न का भूंजा और महीने-दो महीने पर समस्तीपुर मार्केट से आयातित समोसे की याद जीभ पर अविरल तरल प्रवाह पैदा करती है।

सबसे पहले बताता चलूं कि रसकदम दलसिंहसराय की खासियत है । कवरेज के सिलसिले में खूब घूमना हुआ है, लेकिन रसकदम की उपस्थिति को कहीं और दर्ज कर पाने में असफल ही रहा हूं । ऐसे में तिरुपति के लड्डू, धारवाड़ का पेडा और हैदराबादी हलीम की तरह दलसिंहसराय के रसकदम का ज्योग्राफिकल इंडिकेशन के रुप में पंजीकृत होने का मेरे लिहाज प्रॉपर हक बनता है। छेना के ऊपर शुद्ध खोए की मोटी परत और फिर उस पर लिपटा पोस्ता दाना यानि तीन स्तरों पर निर्मित इस मिष्टान्न के अद्भुत स्वाद ने न जाने कितने जीभों को जीवंत किया है। हालांकि दलसिंहसराय में रसकदम कई दुकानों पर सजे मिल जाएंगे, लेकिन चमनलाल की चमक के सामने सब फीके है। रसकदम का विशुद्ध अनुभव चाहिए तो आपको कम से कम 24 घंटे पहले ऑर्डर करना पड़ेगा। आगमन से पहले ही उनकी विदाई का मुहुर्त निकल चुका होता है।

वैसे लक्ष्मी की दुकान के आलूदम ने भी जीभ को सिसकारी लेने पर कम मजबूर नही किया है। छोटे-छोटे उबले आलू पर मिर्च पाउडर और मसाले की परत अलौकिक स्वाद से भरपूर होती। कई लोगों को सुबह-सुबह रोटी साथ ले जाकर आलूदम के साथ चटकारे लगाते देखा। मसाले का संतुलित मिश्रण और मिर्च के तीखेपन के चार्म से बच पाना संभव भी नही था। वैसे बोढ़न के आलूदम में भी खासा दम था। स्कूल में टिफीन की छुट्टी में हम भागकर सीधे उसी की रेहड़ी पर धावा बोलते । हालांकि मसाले में उतना तीखापन नही होता , लेकिन स्वाद लाजवाब होता।

अब के जमाने में स्वदेशी क्या और परदेशी क्या , ग्लोबलाइजेशन और लिबरलाइजेशन का जमाना जो है , लेकिन परदेशी के नाम पर हमारे यहां कुछ था तो वो था- परदेशी झाल-मूढ़ी। झाल-मूढ़ी के मार्केट में परदेशी झालमूढ़ी ने दलसिंहसराय और आस-पास के इलाके में कोई कम क्रांति नही मचाई। नीबूं का अचार, करारी-तीखी मिर्च , मूंगफली, झिल्ली और तमाम प्रकार के मसालों के साथ जब झाल-मूढ़ी तैयार हो रही होती तो परदेशी झाल-मूढ़ी के ठेले पर भीड़ खिंचने लगती। कह सकते है कि झाल-मूढ़ी के स्टैंडर्डाइजेशन में परदेशी की भूमिका हमारे इलाके में एतिहासिक रही है। अगल-बगल के इलाकों में जब भी लोग जाते तो झाल-मूढ़ी सेवन के समय सामने वाले पर कटाक्ष करते नही चूकते- अरे इसमें परदेशी वाली बात कहां। वैसे चुनौती परदेशी को भी कोई कम नही मिली , मुकाबले में स्वदेशी झाल-मूढ़ी के ठेले ने ताल ठोका , लेकिन परदेशी के सामने जो भी आया टिक नही सका। आरएसएस के कैडरों को भी अक्सर परदेशी झाल-मूढ़ी को प्रीफर करता पाया।

औऱ फिर मदन-रतन का समोसा और उसके साथ मिलने वाली आलू की चटनी की भी याद कोई कम नही आती। इस 29 साला सफर में आलू की चटनी की जगह मैदे से बनी लाल चटनी खाने का दुख भी झेलने को भी मिला। लेकिन क्या किया जाय समोसा मजबूरी जो ठहरी और जमाने की चाल से चाल तो मिलानी ही पड़ेगी न।


वैसे दो और चीजों की याद किए हुए बिना बात अधूरी ही रह जाएगी। हमारे ही मोहल्ले के सुधो हलवाई के हाथों का बना स्वादिष्ट पेड़ा और बंका जी की बिस्किट फैक्ट्री का बॉबी बिस्कुट। मंगलवार को जब सवा रुपया हनुमान जी के प्रसाद के लिए हाथ में आता तो बाकि सलाहों की परवाह के विपरीत पेड़ा ही मेरी पहली पसंद होती।

यादें और भी है , लेकिन उनकी चर्चा अगली बार।

गुरुवार, 8 नवंबर 2012

उस अपहरण का चश्मदीद हूं मैं... जिसकी कहीं कोई खबर नही...

इंद्रविहार से मुखर्जी नगर के रास्ते पर था। रात के करीब ग्यारह बज रहे थे। हवा में हल्की-हल्की ठंडक थी। दूसरे दिनों के मुकाबले मैनें ऑटो के बजाय पैदल चलना ही बेहतर समझा... और वैसे भी इस वक्त इस तरफ इक्का-दुक्का ही ऑटो नजर आते हैं, और वो भी अक्सर भरे हुए। सड़क पर चहल-पहल काफी कम हो चुकी थी और मुखर्जी नगर बाजार के शुरु होने के एन पहले वाले मोड़ पर मैं लगभग पहुंचने को था। एकाएक विपरीत दिशा से तेजी से सरपट भागती एक ऑटो महज कुछ मीटर दूर रुकी। इंजन की गुर्राहट अभी भी बनी हुई थी, ड्राइवर के हाथ अब भी हैंडल पर थे। ऑटो से दो लोग उतरे , बिजली की तेजी से बगल में तफरीह मार रहे कुत्ते को उन्होंने अपने लपेटे में लिया, ऑटो में बैठे तीसरे शख्स ने कुत्ते को पैरों के नीचे दबाया... किसी भी प्रतिरोध को कुचलने की नीयत से ...और फिर वो चलते बने। घटना कुल जमा बीस-पच्चीस सेंकेंड में आयी-गयी हो गयी। अब फिर वही शांति और वही ठंडी-ठंडी हवा , लेकिन दिमाग पर एक कुलबुलाहट जम गयी।

मेरे दिमाग पर कुत्ते की शक्ल उभर आयी और फिर उसके चेहरे पर के भाव। आखिर वो भौंका क्यों नही ...और फिर उठाइगिरी की इस पूरी प्रक्रिया में उसके अंग-प्रत्यंग असामान्य रुप से इतने शांत क्यों थे... कोई प्रतिरोध नही... मानो खामोशी के साथ उसने इसे अपनी नियती तय मान ली हो। फिर दिमाग में आशंकाओं-कुशंकाओं के अनगिनत रेशे आपस में एक-दूसरे से उलझते चले गए। पहला ख्याल तो यह आया कि हो सकता है इस अचानक के आदमीय आघात के लिए वो कुत्ता बिल्कुल भी तैयार न हो। फिर ख्याल आया कि कुत्ता की जगह कोई आदम होता तो शायद उसकी भी यही हालत होती। वैसे भी उसके भौंकने पर क्या होता, शायद कुछ कुत्ते जुट जाते। और फिर वो कुत्ते भी जुट कर क्या कर लेते ? आखिर रफ्तार ऑटो के कब्जे में थी। उसके भौं-भौं से उसके बचाव में किसी आदमी-औरत के जुटने की कोई गुंजाइश भी नही है, शायद यह वो जानता होगा। वैसे भी दिल्ली में हर साल सैकड़ों की तादाद में बच्चे गुम होते है, उनमें से कितनों की खबर वापस मिल पाती है। वैसे भी अक्सर हम ऐसे सुझावों और पोस्टरों से दो-चार होते है कि – आपके जान-माल की जिम्मेवारी आपकी है। दो दिनों से दिल्ली की सड़कों पर औरतों के हाल पर द हिंदू की एंकर स्टोरी पढ़ रहा हूं, और खैर बीच के पन्नों की तो पूछिए मत...। दिन की, रात की, घर की, घर के बाहर की... सिक्योरिटी की श्योरिटी कहीं भी नही दिखती... और हां अनजाने चेहरे और जाने-पहचाने चेहरे दोनों ही इस मामले में एक दूसरे को टक्कर देते दिखते हैं।

खैर फिर लगा कि आखिर कुत्ते इनके निशाने पर क्यूं ? मन में तमाम तरह के ख्यालों ने घर करना शुरु कर दिया। अक्सर लोगों को कहते सुना है कि उत्तर-पूर्व और खासकर नागा लोग जहां रहते हैं, उनके मुहल्ले के कुत्तों पर जान की आफत बन जाती है। मेरे कई मित्र उत्तर-पूर्व के हैं और मैनें कई बार उनसे पूछा भी और यह भी एक सालों साल चलने वाली कहानी ही निकली, जिसकी जड़ में पीछे तथ्यों की बजाय पूर्वाग्रही मानसिकता निकली। अक्सर जब भी चुनाव होता था और पारा- मिलिट्री का पहरा लगाया जाता तो सुनने को मिलता कि फलां गावं में नागा बटालियन ठहरी और कुत्तों का कत्लेआम हो गया। हालांकि सब अलां गाव- फलां गाव का जिक्र करते, ऑथेंटिसिटी सिरे से गायब रहती। खैर इस मामले में इतना तो साफ था कि न तो ऑटो का ड्रायवर और न ही बाकी के तीन लोग दूर-दूर तक कहीं से भी उत्तर-पूर्व के हों। उन चारों शख्सों की शक्लो-सूरत और संरचनात्मक बनावट-बुनावट उनके उत्तर भारतीय होने की गवाही दे रही थी।

फिर ख्याल आया कि हो सकता है क्लिनिकल ट्रायल के लिए बेचारे को पकड़ लिया गया हो। अक्सर सुनने को मिलता है कि दवाओं के परीक्षण के लिहाज से भारत बड़ी प्रयोगभूमि के रुप में विश्वपटल पर उभर कर सामने आया है।... और फिर इंसानों पर जब मनमाने तरीके से एक्सपरिमेंट-ट्रायल हो रहे हों तो फिर इन कुत्तों की क्या बिसात और तिस पर सड़कों पर के...। दो घटनाएं एकाएक दिमाग की नसों में घुस गयी... नसें फूलनें लगी। पहला कि आंध्रप्रदेश में महिलाओं पर गर्भाशय के कैंसर से संबंधित दवाओं के क्लिनिकल ट्रायल की और दूसरा कॉमनवेल्थ खेलों को चमक देने के लिए सड़कों-स्टेशनों पर रहने को मजबूर लोगों को दिल्ली के बाहर ले जाकर छोड़ देने की। लगा जब इंसानों की जान यहां इतनी सस्ती है तो फिर कुत्तों की क्या और क्यों डिमांड ?

फिर अचानक करीब सवा दर्जन भर साल पहले की याद अचानक से दिमाग में तैर गयी। हुआ यूं था कि खेल-खेल में मुहल्ले के कुत्ते ने खेल भावना का परित्याग कर दिया। मेरा पैर उस कुत्ते की दांतों की जद में आ गया। ऐसे में सलाहों की बाढ़ आ गयी। जड़ी सुंघाए जाने से लेकर एक प्रख्यात चमत्कारी बाबा के द्वारा पीठ पर थाल सटाने तक की। फिर मोटे-मोटे निड्ल वाले सुइओं के अपने दर्दनाक अनुभवों से भी तीन-चार लोगों ने मेरा परिचय करवाया। इन सुझावों के बीच एक सुझाव यह भी आया कि सात दिनों तक उस कुत्ते पर नजर रखिए । यदि कुत्ते का देहावसान न हो या फिर उसके आचरण में कोई बदलाव न हो तो मानिए कि आप सुरक्षित है। मुझे लगा शायद इन चारों में से कोई या फिर इनका कोई सगा-संबंधी शायद उस कुत्ते के नख-दंत का शिकार हुआ हो औऱ ऐसे में किसी ने उसको भी ऐसी ही सलाह दी हो। फिर लगा कि दिल्ली कोई दलसिंहसराय तो है नही... और फिर सरकारी अस्पतालों में यहां इंजेक्शन भी मुफ्त उपलब्ध है। (वैसे सभी सुझावों को दरकिनार कर मैने डॉक्टर के शरण में ही जाने में भलाई समझी और संयोगवश पतले निड्ल वाली इंजेक्शन से ही पाला पड़ा।)

इसके अलावा और भी कई आंशकाओं को टटोला-खंगाला, लेकिन जिस आंशका का दावा सबसे ज्यादा दमदार लगा वो बताता हूं।... हालांकि बता दूं कि मैं कोई कुत्तों का एक्सपर्ट नही हूं कि उसकी आंखों में झांककर उसके पितृपक्ष और मातृपक्ष की सात पीढ़ियों या फिर उसके खानदान को उलट-पलट कर रख दूं , लेकिन इस बात की पूरी संभावना बनती दिखी कि कुत्ता जरुर चालू अर्थों में खानदानी रहा होगा, यानि ब्ल्यू ब्लड। हालांकि आप भी इस पर सहमत हो यह जरुरी नही। हमने अक्सर बड़े-बुजुर्गों को कुत्ते के साथ टहलता या उन्हें टहलाता देखा होगा और आए दिन बड़े-बुजुर्गों पर हमले की खबरों को भी देखा-पढ़ा है। मुझे लगा कि ऐसी ही किसी घटना और छीना-झपटी में यह कुत्ता पट्टे के बाहर की आवारा दुनिया में भटक आया होगा, और फिर ऑटो में मौजूद उन चारों शख्स में से किसी की पारखी नजर पर उसका खानदान खटक गया होगा। अब आप और हम जानते ही है कि दुनिया पैसों की है, ऐसे में किसी पैसेवाले को कुछ पैसे की एवज में उसने उसकी गर्दन थमा दी हो।

मंगलवार, 6 नवंबर 2012

`मेमोरी प्लस` वक्त की जरुरत है ...

सबसे पहले ही यह डिस्क्लेमर दे दूं कि न तो मैं मेमोरी प्लस का कोई ब्रैंड एंबेसेडर हूं और न ही मुझे पता है कि यह किस कंपनी का प्रोडक्ट है। सुनता-पढ़ता और विज्ञापनों में देखता आया हूं, इसलिए यहां मेमोरी प्लस का जिक्र किया है। वैसे आप कोई और भी मेमोरी एन्हांसिंग उत्पाद खाने-खिलाने (या फिर दूसरों को इसके खाने खिलाने की सलाह देने) के लिए स्वतंत्र है।

टीवी-अखबार से नजदीकी रिश्ता-नाता है इसलिए अक्सर ऐसे किसी प्रोडक्ट के इस्तेमाल की गुंजाइश या कहे तो जरुरत की आशंका बनी रहती है। आजकल या कहे तो बीते कई सालों से जब भी अखबार पलटता हूं या फिर चैनल चैंज करता हूं खुद को कंफ्यूज महसूस करता हूं। हमने औऱ आपने अक्सर किताबों में पढ़ा होगा कि भारत गांवों का देश है और बहुसंख्यक आबादी गांवों में रहती है। लेकिन यहां अखबार पलटिए, चैनल खंगालिए गांव तो कमोबेश गायब ही मिलता है। गांव अगर थोड़ा-बहुत कहीं बचा है तो वो भी दूरदर्शनी कोने में सिमटा-चिपटा है। वैसे भी अगर टीवी-अखबारों-बहसों में कहीं गांव मौजूद दिखा तो समझिए कि या तो जरुर किसी सिंचाई घोटाले या फिर जमीन घोटाले की बात हो रही होगी, उस पर भी स्टोरी का ट्रीटमेंट ऐसा कि मानो गांव योजना की शक्ल में दिल्ली-मुंबई के मंत्रालयों से निकला और घोटालों की शक्ल में फिर वापस दिल्ली-मुंबई में ही चक्कर काटने लगा। कुछ फाइलों में दफन हो गया और कुछ मॉलों-अपार्टमेंटों में, और फिर थोड़ा बहुत टीवी-अखबार की बहसों में ताकि सामाजिकता और सरोकार के थप्पे का पर्दा भी बना रह जाय। ...और वहां भी नेताओं और विशेषज्ञों से बात बाहर जा ही नही पाती, किसान-मजदूर की चर्चा होती है लेकिन उनके चेहरे नही होते और अगर गलती से हों भी तो आवाज गायब मिलती है।

अभी हाल में प्रकाश झा की चक्रव्यूह देखी, लेकिन वहां भी चक्रव्यूह के बंवडर के बीच चकरघिन्नी के माफिक कंपित होते किसानों-मजदूरों का चेहरा तो दिखा लेकिन आवाज सुनने को नही मिली। नक्सलियों-पुलिस-कॉरपोरेट के अलावा शायद ही किसी के हिस्से में कोई डायलॉग आया हो।

पूरे देश की खबर देने का दावा करने वाले तमाम राष्ट्रीय चैनलों पर अवतरित होने वाले चेहरों को उंगलियों पर गिना जा सकता हैं। वही गांधी परिवार, आडवाणी-गडकरी-मोदी, मुलायम-मायावती और उनके घोषित-अघोषित प्रवक्ता और घोषित-अघोषित विरोधी। चैनलों पर तालिबान-स्वात, ओबामा-रोमनी-सैंडी की खबरें तो खूब दिख जाएंगी, लेकिन दंतेवाड़ा-गढ़चिरौली या तो गायब मिलेगा या फिर घिसे-पिटे फुटेज को ही महीनों तक दोहराया-तिहराया जाता रहेगा।

वैसे करप्शन के इसी ठेलमठाल वाले जमाने में जबकि तमाम आकार-प्रकार के करप्शन `तमसो मां ज्योतिर्गमयउच्चरित करते हुए एक दूसरे से गुत्थमगुत्था है तो मेमोरी प्लस और एनासिन तो इस वक्त की अनिवार्य आवश्यकता ही बन जाती है। अब आप ही देखिए बीते दो-तीन सालों से एक मामला खत्म होता नही कि दूसरा उसके सर पर चढ़ा-धमका होता है। सीडब्ल्यूजी, टू जी, आदर्श जैसे घोटालों की बारीकियों में लोग उलझे ही थे कि लवासा और तमाम रिएल एस्टेट घोटाले नमूदार होने लगे। घोटालो-घपलों से ऐसे में माथा बजबजाने लगा है... और आप ही बताइए लोग किस-किस को और किन-किन चीजों को याद करे। वैसे भी सुशील शिंदे कोलगेट पर प्रतिक्रिया देते हुए कह चुके है कि बोफोर्स की तरह इसे भी भूल जाएगी जनता।

पोस्ट-स्क्रिप्ट-- सालों पहले दिल्ली में बेरसराय अपने चाचा जी से मिलने जाना हुआ। संयोगवश चाचाजी तो कमरे पर नही थे, लेकिन उनका रुम पार्टनर मौजूद था। चेहरा जाना-पहचाना लग रहा था, लेकिन कहीं मिले हो इसकी गुंजाइश कम ही थी। आखिर दिल्ली आए हुए कुछ ही दिन हुए थे। रह-रह उनके चेहरे पर नजर चली जाती, आखिर कहां देखा हैं मैने इन्हें। काफी समय तक दिमाग को झकझोरने के बाद भी चेहरा पकड़ में न आया। उनके रुम पार्टनर भी इस बात को ताड़ चुके थे। उन्होंने कहा कि लगता है आपको मेमोरी प्लस की जरुरत है। इतना सुनते ही दिमाग पर लगा ताला खटाक से खुल गया। अरे इनका ही चेहरे तो द हिंदू अखबार के क्लासिफाइड सेक्शन में मेमोरी प्लस के डब्बे के साथ अपीयर होता है। इस बात का एलान करते हुए कि- पहले मुझे कुछ भी याद नही रहता, मेरा खुद पर भरोसा उठ गया था, मेरा आत्मविश्वास डगमगाने लगा था, फिर एक दोस्त की सलाह पर मैने इसका सेवन किया, अब मैं दुगुने उत्साह के साथ तैयारी कर रहा हूं दी। शायद उनका नाम सुनील जैन था, एकदम कंफर्म नही कह सकता। ऐसे में आप मुझे मेमोरी प्लस खाने की सलाह दे तो कोई आश्चर्य नही।

नोट- कृप्या अपने रिस्क पर किसी भी याद्दाशत बढ़ाउ उत्पाद का सेवन करें

शुक्रवार, 2 नवंबर 2012

झूठ इतने बुरे भी नही होते ...

कल बातचीत के क्रम में सुनने को मिला कि राजेंद्र प्रसाद जो भारत के प्रथम राष्ट्रपति होने के अलावा एक अच्छे खासे वकील भी थे, अपने एक मुव्वकिल के साथ नाव से गंगा नदी पार कर रहे थे। मुव्वकिल अपने जमा किए तथ्यों को लगातार बताए रहा था और फिर यह प्रक्रिया जब लगभग समाप्ति के कगार पर थी, हवा के एक तेज झोंके ने उन कागजातों पर कहर बरपा दिया, कागजात मां गंगा की भेंट चढ़ गए। अब मुव्वकिल हैरान-परेशान, जिन तथ्यों-सूचनाओं को जुटाने में उसने सालों लगा दिए, वो पवन देवता की अठखेलियों की बलि चढ़ गए। लेकिन राजेंद्र प्रसाद के चेहरे पर आश्वस्ति का भाव था। उन्होंने उसे कागज-कलम लाने को कहकर चिंतामुक्त हो जाने को कहा... औऱ फिर क्या था रांजेद्र बाबू सूचनाओं-तथ्यों को मुव्वकिल के बताए अनुसार उच्चरित करते रहे और मुव्वकिल लिखता चला गया।

हालांकि मैंने भी दो-एक कहानियां राजेंद्र बाबू के बारे में सुन रखी थी ... लेकिन उन सबमें सबसे अव्वल तो यह था कि संविधान लिखा जा रहा था, सैकड़ों चर्चित चेहरे चर्चा में जुटे थे। महीनों तक काम चला, मगजमारी-माथापच्ची के बाद संविधान लिखा गया। लेकिन संविधान लिखे जाने के बाद अचानक से कहीं खो गया, काफी ढूंढ़ा-ढ़ांढ़ी के बाद भी हाथ न आया। सारे लोग माथा पकड़ कर बैठ गए। इतने महीनों और इतने लोगों की मेहनत पर पानी फिरता दिखता रहा था। ऐसे में राजेंद्र बाबू ने इस राष्ट्रीय समस्या से राष्ट्र को उबारा। उन्होंने हूबहू संविधान को उच्चरित कर पूरी संविधान-सभा की मेहनत पर फिरते पानी को सोख लिया, न एक कोमा इधर, न एक कोमा उधर। खैर एक दूसरी सुनी-सुनायी कहानी भी सुना ही दूं ... कहानी के मुताबिक वाकया कोलकाता के प्रतिष्ठित प्रेसीडेसी कॉलेज में उनके पढ़ाई के दौरान का है। हुआ यूं कि परीक्षाएं चल रही थी और किसी कारणवश रांजेद्र बाबू को परीक्षा हॉल पहुंचते-पहुंचते दो घंटे की देर हो गयी। परीक्षा हॉल में घुसते ही मॉनीटरिंग करते अध्यापक ने उनसे कहा कि क्या फायदा है अब एक्जाम देने का। राजेंद्र बाबू के चेहरे पर एक हल्की मुस्कान तैर गयी, फिर उन्होंने तंबाकू अपनी हथेली पर ठोका और फिर परीक्षा समाप्त होने से पांच मिनट पहले ही तंबाकू चुभलाते हुए एक्जामिनेशन हॉल से बाहर निकल गए। अब कहानी सुनाने वाले एक अल्पविराम लिया, अब उसके चेहरे पर उर्जा का ब्रॉडबैंडीय प्रवाह साफ-साफ टपक रहा था... हमसे भी उसी अनुपात में जिज्ञासा की डिमांड करता हुआ। कहानी के मुताबिक कॉपी चेक करने वाले एक्जामीनर ने उनकी परीक्षाकॉपी पर एक टिप्पणी दर्ज की एक्जामिनी इज बेटर देन इक्जामनर। कहानीकार का कहना था कि यह कॉपी अब भी कॉलेज के डिस्प्ले बोर्ड पर है।

खैर कहानियां केवल राजेंद्र बाबू के बारे में ही नही सुनी। लाल बहादुर शास्त्री के बारे में सुना कि वो स्ट्रीट लाइट में पढ़ा करते थे। जब भी चश्मायुक्त उनकी तस्वीर नजर आती तो लगता चश्मे के पीछे का अपराधी जरुर उसी स्ट्रीट लाइट से निकलने धुंधला प्रकाश-प्रवाह होगा।खैर तमाम लोगों के बारे में तमाम कहानियां पढ़ी सुनी। ... और मां बाप भी ऐसी कहानियां सुनाकर सालों तक अपने बच्चे को कोंचते और अक्सर ठुकाई भी कर डालते।

खैर ये तो हुई महापुरुषों की बात, मेरे एक बड़े भाई इंजिनयरिंग कॉलेज में थे और उस समय हम बमुश्किल तीसरे-चौथे में होंगें। मम्मी को जब भी हमें पीटना होता तो उनका उल्लेख बारंबार होता। देखो वो होस्टल में रहता है , क्लास वाले उसको पढ़ने नही देते, परेशान करते हैं। उसे पढ़ाई से दूर करने के लिए उस जबरदस्ती फिल्म देखने पर मजबूर करते है... ऐसे तमाम तरह के किस्से। मेरा उद्देशय उनके संघर्ष को कमतर आंकना नही है, लेकिन आप ही बताइए कि किस होस्टल में ऐसी घटना-परिघटना नही होती।

बचपन से हमलोगों ने न जाने कितने झूठ सुने होगें... और अक्सरहां बालपन में उसे सच भी मान बैठते है। खैर बालपन को बख्श भी दे तो आप उम्र के किसी भी पड़ाव पर हो, रक्त-तंतुओं, अस्थि-मज्जा तक में जो एक इनकी घुसपैठ हो जाती है, लगातार बनी-बहती रहती है। ...लेकिन इन निर्दोष झूठों को खारिज करने की इच्छा भी नही होती। जितनी बार सुनता हूं,  दिमाग को रेस्ट देकर दिल को इस मोर्चे पर लगाता हूं। ऐसे ही न जाने कितने मिथक है जो सच्चाई और तथ्यपरकता की कसौटी पर भले ही खरा न उतर पाएं लेकिन उनके पॉस्टमॉर्टम से परहेज करने का मन करता है। ...और वैसे भी सच कौन जानना चाहता है ...कम से कम मैं तो नही।