सोमवार, 14 अक्तूबर 2019

शोरा कितना सोना था !!!

शोरा शब्द से परिचित तो था लेकिन रट्टूमल तोते की तरह। विद्यार्थी जीवन में इतिहास की गली से गुजरता तो शोरा शब्द से कई बार दो-चार होता, लेकिन कुछ भी भेजा भिड़ाने के बजाय छलांग मारकर इस शब्द को लांघ जाता। ...आखिर शोरा होता क्या है- फल, फूल, खनिज या खाद्यान्न ? ठोस है या तरल ? मुझे नही लगता सौ में निन्यानवे विद्यार्थी यह जानते होगें। ज्ञान ज्यादातर मामलों में हमारे यहां निगलने, उगलने, और उल्टी करने की सामग्री होती है। मैं सालों तक किराने की दुकान में टिन में मिलने वाले लिसलिसे से पदार्थ छोआ को ही शोरा समझता रहा । मेरी बुद्धि में यह बात कैसे समायी... मालूम नही, लेकिन शोरा पढ़ते ही दिमाग में छोए का आगमन हो जाता।

  सालों भर बाद पता चला कि शोरा कोई ऐरी-गैरी चीज नही, बल्कि धमाकेदार वस्तु है...  शोला पैदा करने वाली सामग्री है... और एक जमाना ऐसा भी था कि जब बिहार के शोरे को लेकर ब्रिटिश, फ्रैंच, डच और अमीर आर्मेनियाई कारोबारी आपस में भिड़े पड़े थे। यूरोप के जंगी इतिहास में बिहार के शोरे ने भी कम चिंगारियां पैदा नही की। दुनिया जब यूरोपीय ताकतों की जंगी कुश्ती का अखाड़ा बन गयी थी, उनकी ताकत लगातार पसर रही थी तो बिहारी शोरे ने उनको बारुदी बरकत दी।

बारूद बनाने के लिए सब से आवश्यक रसायन है शोरा। शोरा वैसे तो फारसी भाषा का शब्द है, लेकिन अंग्रेजीदां लोग इसे साल्टपीटर,  हिन्दी वाले क्षार(खार) और विज्ञान की भाषा बोलने वाले इसे पोटैशियम नाइट्रेटकहते हैं। शोरा एक प्रकार से नमक का खार होता है, जिसे मिट्टी से प्राप्त किया जाता है। वैसे आजकल इसे सोडियम नाइट्रेट और पोटैशियम क्लोराइड से बनाया जाता है । बारूद 3  रसायनों गंधक, शोरा और लकड़ी के कोयले के चूरे को आपस में मिलाकर बनाया जाता था।

यूरोपीय ताकतों का भारत के प्रति आकर्षण केवल मसालों, अफीम, कपड़ों तक ही सीमित नहीं था, उन्हें अपने पसरते साम्राज्य और प्रतियोगी ताकतों से मुकाबले के लिए भरपूर शोरा भी चाहिए था। सत्रहवीं शताब्दी की शुरुआत से  कई यूरोपीय ताकतों जैसे कि पुर्तगाली, डच, अंग्रेज, फ्रेंच, डेनिश ने पूरब से शोरे के आयात के लिए कारोबारी कंपनियां बना डाली थी। ... और फिर यह कारोबार फलता-फूलता गया। बिहार में शोरा उत्पादन का मुख्य केंद्र- हाजीपुर, तिरहुत, सारण , पूर्णिया थे। कंपनी के कारिंदे बिहार के अंदरुनी इलाकों से शोरा को इक्ट्ठा करते और फिर कंपनी की फैक्ट्रियों में इसे और ज्यादा रिफाइन किया जाता। बैलगाड़ियों और नावों में लदकर पहले यह पटना और फिर बड़ी नौकाओं को जरिए हुगली पहुंचता। हुगली बिहार से यूरोप के बीच शोरे के इस सफर का एक बड़ा पड़ाव था।यह जानकारी भी कम रोचक नहीं कि कलकत्ता को बसाने के लिए जाने जाने वाले जॉब चारनॉक ने 1665 ई. में साल्टपीटर यानि शोरे के स्टोरेज के लिए पटना में ईस्ट इंडिया कंपनी के पहले वेयरहाउस का निर्माण करवाया।


बिहार पीजेंट लाइफ- जॉर्ज अब्राहम ग्रीयरसन
दरअसल उत्तर बिहार की जलवायु शोरा उत्पादन के लिए माकूल थी । पशुपालन प्रधान क्षेत्र होने के कारण गांवों के आस-पास की जमीनों में जैवीय नाइट्रेट की अधिकता होती थी। इस जमीन में नाइट्रीकारी जीवाण तेजी से बढ़ते जो अमोनिया को पहले नाइट्रस और फिर बाद में नाइट्रिक अम्ल में तब्दील कर देते। । सूखी घास, लकड़ियां और गोबर बरसात के दिनों में सड़कर जमीन में समाहित हो जाते थे। बरसात के बाद जब जमीन का निर्जलीकरण प्रारंभ होता तब केशकीय क्रियाओं के द्वारा इनका रसायन उभरकर जमीन की ऊपरी परत पर आकर जमा हो जाता है। जमीन या मिट्टी की दीवारों पर सफेद-सफेद सा पदार्थ जम जाता है, जिसे नोनी कहते हैं। जैवीय नाइट्रोजन इस प्रकार पोटेशियम नाइट्रेट में परिवर्तित होकर शोरा बन जाता है।
बिहार पीजेंट लाइफ- जॉर्ज अब्राहम ग्रीयरसन
बिहार में इस शोरा उत्पादन के पीछे थे- बड़ी संख्या में शोरा उत्पादन से जुड़ी नोनिया जाति के लोग। आखिर ये नोनिया है कौन ?  नोनिया जाति के लोगों का पारंपरिक व्यवसाय इसी नोनी मिट्टी को इक्ट्ठा कर इसे परिसंस्करित कर नून यानि नमक बनाने का था। नोनिया न केवल नमक का कारोबार करते थे बल्कि कपड़ों की सफाई के लिए जरुरी नोनी मिट्टी भी लोगों को उपलब्ध कराते थे। (कुछ महीनों पहले यह खबर भी सुनने को मिली कि बिहार सरकार ने मल्लाह और निषाद जाति के साथ नोनिया जाति को अनुसूचित जाति में शामिल करने के लिए एक एथनोग्राफिक अध्ययन के साथ केंद्र सरकार से इस संबंध में अनुशंसा की )

एक कहावत मशहूर थी- बरसा परलो, नोनिया मरलो। कहावत के पीछे की वजह यह थी कि बरसात का पानी जमीन या मिट्टी की दिवारों पर जमा नोनी को अपने साथ बहा ले जाता ।शोरे की मिट्टी इकट्ठा करने और उसे तैयार करने का काम नोनिया करते थे। चूंकि यह मिट्टी नोनी मिट्टी कहलाती थी इसलिए इसे इकट्ठा और कच्चा शोरा तैयार करने वालों को नोनिया कहते थे। मिट्टी की दीवारें पुरानी होने पर नोनी पड़ने से कमजोर हो जाती थी। नोनिया इसे समेट कर ले जाते थे... और फिर इसके परिसंस्करण के बाद शोरा तैयार होता था। कई जगहों पर भी इन अवांछित रसायनों के कारण ऊपर की परत सफेद होती थी, जिस पर कोई फसल उगाना संभव नही था। बड़ी संख्या में नोनिया लोगों की मौजूदगी भी ऐसे में न केवल किसानी के लिए फायदेमंद होती बल्कि नमक जैसी जरुरी और बारुद जैसे विस्फोटक के लिए कच्चा माल बटोरने में भी मददगार होती।

11 टिप्‍पणियां:

  1. Thank u sir,mai bhi history student hu,aur aaj East India company ke bare me padate hue sochane lagi ki ye shora kya hota h.

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    1. मै भी भाई पढ रहा था । इस शब्द को कई बार अनदेखा किया लेकिन हमने आज सोचा की देखें मे शोरा आखिर होता क्या है ।

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  2. बहुत अच्छी जानकारी दी आपने।
    धन्यवाद।

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