शनिवार, 3 जून 2017

पुस्तकालय... अनंत संभावनाओं का आकाश

अब जबकि किसी भी किताब की उपलब्धता बस आपके क्लिक करने भर की दूरी और देरी पर है, लोग पैसा भी पहले से ज्यादा खुलकर खर्च करने लगे हैं , फेसबुक-व्हाट्स एप पर काफी कुछ कच्चा-पक्का लोग पढ़ लेते हैं , गुगल महाराज चौबीसों घंटो हुक्म बजाने को तैयार हैं, पुस्तकालय की स्थिति इन नई परिस्थितियों में क्या है। अभी ज्यादा दिन पहले की बात नही है कुछ जागरुक लोगों ने दिल्ली में बंद होते एक पुस्तकालय को आंदोलन के जरिए बचाया था। गाहे-बेगाहे खबर मिलती ही रहती है फलां लाइब्रेरी बंद हो गयी या होने वाली है। क्या पुस्तकालय की कोई जरुरत नही रह गयी है और क्या पुस्तकालय केवल जरुरत भर के लिए है।

 लाइब्रेरी दरअसल है क्या ... क्या केवल किताबों का जखीरा है जो चंद आलमारियों में सिमटी-सजी रहती है। जब हम लाइब्रेरी के खानों को टटोल रहे होते हैं क्या ज्ञात के साथ अज्ञात से भी संवाद करने की कोशिश नही करते हैं। हमारी नजर गाडीं में जुते उस घोड़े के माफिक नही होती जिसके आंखों के बगल में पट्टी लगी होती है, जो केवल और केवल सीधा देखे। हम अपने काम या कोर्स की किताबों के अलावा उन किताबों पर भी एक नजर मार ही लेते है जिनके टाइटल रोचक होते है , आकर्षक होते हैं। इसी दरम्यान किसी ऐसी किताब से भी मुठभेड़ हो जाती है जो आपको वशीभूत है और आप भूल जाते हैं कि आप तो किसी और ही मोती की तलाश में समंदर में गोता लगाने आए थे।

   लाइब्रेरी क्या केवल किताबों का एक ठिकाना भर है, जहां आप किताबों के लिए आए और फिर फुर्र हो गए। मैनें न जाने कितने प्रेम-प्रसंगों को यहां की बेंचों पर जवान होते देखा और दम तोड़ते भी देखा है। प्रेम और पढ़ाई का ऐसा शानदार विलयन यहां तैयार होता है कि उसकी पृथकता की कल्पना कोई कूढ़ मगज ही कर सकता है। विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी के कुछ दैनिक उपभोक्ता तो बस प्रेम की तलाश में ही यहां पर्यटन करने आते थे। फिर प्रेम पनपा नही कि उड़नछू। ऐसे भी जोड़े बनते देखे जिन्होंने आगे चलकर साथ-सात अग्नि के चारों और चक्कर भी लगाए। मुझे लगता है कि इनकी अगली पीढ़ियों को लाइब्रेरी की इन बेंचों का शुक्रगुजार होना चाहिए और कम से कम चार साल में कुंभ की तर्ज पर तीर्थयात्रा पर यहां जरुर आना चाहिए। वैसे बॉलीवुड पर भी इन लाइब्रेरियों का कम अहसान नही है। जब नायक-नायिका प्री-प्रेम स्टेज पर ही होते हैं तो एक दूसरे की नजर बचाते हुए यहां की रैकों और किताबों के बीच छुप्पन-छुपाई खेलते हैं। रैको में सजी किताबें लुका-छिपी का जरिया बन जाती है। यहीं कोई नायिका जानबूझकर अपना रुमाल भूल जाती है जिसे नायक छूटते ही लपक लेता है।

   वैसे कई बार यह भी देखने को मिलता है कि कुछ किताबें जिनकी आपको बेसब्री से तलाश होती है, जो किसी भी वेबसाइट पर अवेलेवल नही होती, दुकानों से गायब होती है, जो आखिरी बार सालों पहले छपी होती है वो लाइब्रेरी के किसी कोने में दुबकी पड़ी होती है।

  लाइब्रेरी से मेरा प्रथम परिचय तब हुआ जब छठी क्लास में हाई स्कूल में पहुंचा, लेकिन तब यह केवल दर्शन भर मामला था। सैकड़ों किताबे लोहे की जाली के पीछे आलमारियों में धूल खाती दिखती लेकिन शायद ही किसी को मैने जाली के उस पार किताबों के करीब पांच सालों के दरम्यान देखा होगा। जब दसवीं में था तो कुछ उत्साही लड़कों ने रीडिंग रुम शुरु किया जहां कभी-कभार जाता रहता था। लेकिन वहां किताबों के नाम पर मोटा-मोटी पुस्तक महल प्रकाशन की कुछ किताबें थी। जहां तक मुझे याद है खाड़ी युद्ध के बारे में और विश्व की 101 कुख्यात हसीनाओं के बारे में भी पहली बार वहीं पढ़ा था।

  सही मायने में पहली बार लाइब्रेरी को पहली बार निहारा मैने पटना में , जब मैट्रिक परीक्षा देने के बाद पढ़ाई के लिए पटना गया। खुदाबख्श लाइब्रेरी में अंदर जाने की तो कभी हिम्मत तो नही जुटा पाया लेकिन उसी परिसर में कर्जन रीडिंग रुम मेरी पसंदीदा जगह बन गयी। दर्जनों की संख्या में अखबार और मैग्जीन ... समंदर ही था मेरे लिए। पहली बार टाइम और न्यूजवीक मैग्जीन वहीं मेरे हाथों में आयी। मई-जून की गर्मी में भी मुसल्लहपुर हाट के नजदीक अपने कमरे से अक्सर कर्जन रीडिंग रुम के लिए निकल पड़ता। बीएचयू आने के बाद तो सेट्रल लाइब्रेरी पसंदीदा ठिकाना बन गया मेरे लिए । हालांकि ऑफिस की लाइब्रेरी तो है ही , लेकिन साहित्य अकादमी लाइब्रेरी की मेंबरशिप भी ली हुई है।

  दरअसल पुस्तकालय संभावनाओं का अनंत आकाश है, जिसमें कोर्स और कार्यालय की सीमितता नही होती। वह एक सार्वजनिक स्पेस होता है जहां हम अपनी सीमाओं को चुनौती देते हैं । इतिहास, संस्कृति, साहित्य, विज्ञान की सैकड़ों धाराएं वहां प्रवाहमान होती है, समंदर सृजित करती है।