मंगलवार, 22 अक्तूबर 2013

जगदलपुर- अनगिनत भारतीय संस्कृतियों का कटान-बिंदु

बचपन में गणित पढ़ने के दौरान हममे से शायद ही कोई होगा जिसने वृत न बनाया हो। एचबी पेंसिल थामे डिवायडर और सफेद कागज यानि कि कच्चा माल मिला नही कि खूबसूरत वृतों का उत्पादन झमाझम शुरु। अपनी रिपोर्टिंग के पंचवर्षीय काल में खूब घूमने-फिरने को मिला। तीन हजार किलोमीटर लंबे और कमोबेश इतने ही चौड़े भारत का केंद्र क्या हो, यह सवाल अक्सर इन यात्राओं या फिर कभी किसी एकांत क्षण में फूटता। गुगल महोदय से कई दौर में दरियाफ्त की , कुछ जानकारियां सामने आयी। मसलन कि अंग्रेज नागपुर को भारत का केंद्र घोषित कर गए और इस लिहाज का एक पत्थर भी इसके सीने पर टांक गए। मसलन की उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर की घड़ी पूरे भारत का समय बताती है। लेकिन भारत बस भूगोल नही है,भारत संस्कृतियों का समुच्चय भी है। चीन की दीवार छलांगने में बस अब गिनती के ही कुछ दिन है। यहां से खाद-पानी पाती सभ्यताओं का एक लंबा इतिहास और वर्तमान है। ऐसे में यह जिज्ञासा लाजिमी है कि भारत की परिधि में मौजूद विभिन्न साभ्यातिक वृतों का आपस में कटान बिंदु क्या हो ?
जीरो माइल- नागपुर

साल 2009, आधुनिक भारत का सबसे बड़ा त्यौहार चुनाव दिल्ली से करीब डेढ़ हजार किलोमीटर दूर छत्तीसगढ़ में अपने परवान पर था। जगदलपुर के चांदनी चौक पर होटल बस्तरिया में यह मेरा तीसरा सप्ताह था। दीपावली गुजर चुकी थी और छठ दरवाजा खटखटा रहा थी। आम तौर पर प्रवासी बिहारी छठ को वापस अपने शहर-गांव एक नजर मारने का मौका नही चूकते। लेकिन दिल्ली से बने रहने के ऑर्डर की नाफरमानी कैसे कर पाता। छठ के दिन की शाम चाय की अनगिनत प्यालियों के साथ होटल के कमरे में ही कट गयी। लेकिन बेइंतहा इंतजार वाली सुबह इस बार अपने नसीब में नही थी, लेकिन सालों की आदत जाती कहां है। ब्रह्ममुहुर्त में ही नींद के प्राण उखड़ गये । अंधेरा छटने के इंतजार में शरीर कसमसाने लगा। दूसरे दिनों की तरह भांति-भांति के अखबार कोंचियाए आने को ही था कि अच्छी खासी संख्या में लोग छठ वाली दौरी सर पर रखे लौटते दिखे। मन ही मन माथा ठोकने लगा कि छठ अटैंड करने का एक खूबसूरत मौका अपनी हाथों से मैने कैसे आसानी से निकल जाने दिया। वो कहते हैं न कि सावधानी हटी , दुर्घटना घटी। यह तो पता था कि बिहारी मूल के लोग ठीक ठाक संख्या में यहां हैं , लेकिन छठ की बात दिमाग से गुजर नही पायी।





बस्तर दशहरा
वैसे भारत के नक्शे पर गौर फरमाए तो यह अंदाज लगाने में ज्यादा मुश्किल नही होगी कि जगदलपुर भारत के उत्तर-दक्षिण और पूर्व-पश्चिम के चौहारे पर जमा है। बगल के कोरापुट से ओडियाभाषी इलाका शुरु हो जाता है वहीं बस्तर कमिश्नरी और तेलुगूभाषी खम्मम भी अड़ोस-पड़ोस में है। वैसे व्यापार के सिलसिले में आए और फिर बस गए जैन/माड़वाड़ी व्यापारी भी अच्छी खासी तादाद में जगदलपुर और बस्तर कमिश्नरी के दूसरे छोटे-मोटे कस्बों में है। और जहां तक आदिवासी संस्कृति की बात है तो बस्तर इसके कुछ अंतिम पते-ठिकानों में से है। यानि कि जगदलपुर शहर में आपको हिंदी भाषा भाषियों के साथ, तेलुगू, ओडिया, मराठी और आदिवासी समाज के अनगिनत भाषाओं को बोलने वाले एक साथ ही मौजूद मिलेंगें।

करीब एक महीना नागपुर में रहा हूं और अच्छा खासा समय महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, आंध्रप्रदेश, मध्यप्रदेश और इससे सटे भारत के मध्य के इलाके में गुजार चुका हूं । ऐसे में कोई जिज्ञासु तमाम भारतीय सभ्यताओं के कटान बिंदु के बारे में मेरी राय ले तो मैं नागपुर से करीब 500 किलोमीटर पूर्व जगदलपुर पर ही मुहर लगाउंगा।


सोमवार, 14 अक्तूबर 2013

एक स्वर्णिम इतिहास की कब्र पर उगा जंगल है पटना ...

पटना की बीमारी के पीछे का पैथोजेन यानि रोगाणु हर नए टीके को भकोस लेता है , म्यूटेट हो जाता है  । टीका बेचारा चकमा खा जाता है, बीमारी है कि मौजूद रहती है , खिलखिलाती है ,बस उसका हुलिया बदल जाता है । दरअसल सामाजिक न्याय की कई तगड़ी खुराकों को पस्त कर देने का नाम है पटना।

साल 2005 , करीब पंद्रह साल के बाद पटना का हुक्मरान बदल दिया गया। वजह साफ थी , सालों पहले जिस चेहरे ने राज्य बदल देने की बात की थी , वो खुद ही बदल गया। बाकी देश जहां अर्थव्यवस्था के हवाई सफर पर था , बिहार बदहाली की नई कहानी रच रहा था। ब्राह्मणवाद का विरोध कर लालू पटना की गद्दी पर बैठे और बिहार को विकास का भरोसा दिलाया था। लालू की दूसरी पारी की पहली तस्वीर कई ब्राह्मणों से कई किलो फूलों का माला गले में गटक जाने की थी। सामाजिक न्याय के मसीहा की इस बदली तस्वीर ने मगध की चिरपरिचित शांति पर सामाजिक न्याय मार्का मुहर लगा दी। कोट और हैट पहने लालू बिहार की तरक्की के लिए विदेश फिरते तो दिखे, लेकिन जमीं पर तरक्की का कोई निशान भी न छोड़ पाएं। ... लेकिन मगध अपने चेहरे पर चिरपरिचित शांति लपेसे अपनी जगह पर जमा रहा। सामाजिक न्याय की नयी फसल इक्का दुक्का जाति ने अपनी मनमर्जी से काटकर अपने दरवाजे पर रख ली।

साल 2005 को पैदा हुई उम्मीद भी अब मूर्च्छित हो चली है। बीते कुछ सालों से अफवाह गर्म थी कि राज्य रास्ते पर चल पड़ा है । देश भर की अखबारें पटना में सूर्योदय की खबरों से पटी पड़ी थी। लेकिन अभी दशक भी नही गुजरा था कि लगने लगा कि मगध की चिरपरिचित शांति की लपटों ने पाटलिपुत्र का दामन नही छोड़ा है। अभी कुछ दिनों पहले की ही बात है , लक्ष्मणपुर-बाथे कांड के आरोपी पटना की ऊंची अदालत द्वारा बरी कर दिये गये। एक साल के नवजात से लेकर बुढ़े-बुर्जुगों तक की हत्या के मामले में प्रशासन अदालत की नजर में सही सबूत नही पाया। लक्ष्मणपुर बाथे का यह मामला और आरोपियों का बरी होना कोई अकेला मामला नही है। मियांपुर, बथानी टोला , नगरी जनसंहार में आरोपियों के बरी होने के मामले के साथ इसे देखा जाना जरुरी है। आखिर ऐसा क्यों हैं कि राज्य समाज के कमजोर तबके को न्याय दिलाने में नाकाम होती दिख रही है।

दरअसल मगध की शांति के नव महारथियों के तिकड़म उस वक्त नुमाया हो गए जब हजारों की भीड़ आतंक मचाती पटना पहुंची और पटना की छाती पर चढ़कर सत्ता को खुलेआम मुंह चिढ़ाया । पटना का प्रतिरोध नदारद था। पटना दब्बू साबित हुई, हुक्मरान नजर चुराते रहे। सत्ता के सीने पर उत्पात मचाती यह भीड यह वो भीड नही थी जेपी के बुलावे पर गांधी मैदान आ जमी थी। ना इस भीड़ का सचिवालय के सामने की उन आदमकद मूर्तियों से कोई साम्य था जो सन बयालीस के आंदोलन में आजादी के लिए होम हो गयी । इस घटना ने 2006 में पैदा हुई उम्मीदों के आगामी पराभव का संकेत दे दिया था। इस भीड़ की मौजूदगी पटना के बीमार होने का बयान था।  उस बीमार पटना का जिसके पैरो तले की जमीन उन सभ्यताओं और महामानवों की कब्रों से पटी पड़ी है जिन्होंने हजारों साल पहले दुनिया भर के लोगों को अचंभित कर दिया था। यह भीड़ उन मुखिया जी की मौत पर तांडव मचा रही थी जिन्होंने गर्भ में पल रहे बच्चों के कत्ल को यह कहकर जायज ठहराया कि इससे नक्सलियों की नई खेप पैदा होगी। यह महज दुर्संयोग नही है कि इन मुखिया जी के हत्यारे भी पाटलिपुत्र की जेल की बजाय हवा में है। दरअसल मगध की शांति सही और गलत के बीच चयन का जोखिम नही पाल सकती। वह तो क्षुद्र स्वार्थों से संचालित होती है।

आवासीय और प्रवासीय दोनों ही टाइप के बिहारी अक्सर बातचीत में बुद्ध, महावीर से लेकर चंद्रगुप्त , अशोक के बिहार की धरती से संबंद्ध होने का हवाला देते है। शिक्षा की चर्चा होती है तो नालंदा, विक्रमशीला पर गर्वान्वित होते हैं। दरअसल वर्तमान की बदतरी का दलदल उन्हें इतिहास का आश्रय लेने को मजबूर करता है। खुद को दिलासा देने और सामने वाले के सवाल से उबरने को वे इस डिफेंसिव मैकेनिज्म का इस्तेमाल करते हैं।

और वैसे भी उस पटना से क्या उम्मीद की जाय, जिसकी पहचान गोलघर है। सेना के लिए बना गोदाम , जिसके जन्मदोष ने उसे कहीं का न छोड़ा, दरवाजे बाहर की बजाय अंदर से खुलने वाले। कूपमंडूक पटना का सौ फीसदी सटीक प्रतीक है गोलघर।

बुधवार, 2 अक्तूबर 2013

राइट टू रिजेक्ट का इस्तेमाल यानि कि आप कायर हैं ...

1.आप राहुल भैया को भी वोट नही देंगें , आप नरेंद्र मोदी के घोर विरोधी हैं , आप `आप` वाले केजरीवाल को किसी लायक नही मानते , आप सपा, बसपा को भी वोट नही देंगें , निर्दलीय पर भी मुहर नही लगाएंगें , आप राइट टू रिजेक्ट पर बटन दबाएंगें ... दरअसल आप पलायनवादी है ... आपको मुफ्त की खाने की बीमारी है ... जब इतना ही असंतोष है तो चुनाव में खड़े हो जाइए और यदि बचना ही चाहते हैं तो अपने आस पास के किसी शख्स को जो आपकी नजर में परफेक्ट हो उसको मैदान में लाइए ... वरना इतना याद रखिएगा राइट टू रिजेक्ट वाले बटन का इस्तेमाल आपकी कायरता का प्रमाण पत्र है, और कुछ भी नही ... इस थोथेबाजी का कोई मतलब नही कि कोई भी आपके मानदंडो पर खरा नही ... हम कम से कम इतना तो कर ही सकते है कि उम्मीदवारों की तुलना कर कम बुरे इंसान को लोकतंत्र के मंदिर में स्थापित करें । राइट टू रिजेक्ट वाला बटन नकारात्मकता का परिचायक है ... और आपके पास इसके लिए यदि समाज की बेहतरी का तर्क है तो फिर फिर इतना तो याद रखना ही होगा कि बेहतर समाज का निर्माण सकारात्मक प्रयासों से ही संभव है।

2.आप राइट टू रिजेक्ट वाला बटन दबाएंगें क्योंकि आपके मुताबिक सारे अयोग्य हैं , आप चुनावी मैदान में भी नही उतरेंगें क्योंकि आपके मुताबिक फिर आपको ब्लैक मनी के समंदर का गोताखोर बनना पड़ेगा (और आप तो ईमानदारी की प्रतिमूर्ति हैं न, ऐसा पाप कैसे कर सकेंगें) ... कोई नया मैदान में आएगा तो कहेंगें कि वोटकाटू हैं या फिर हो न हो यह भी अपनी गाड़ी का डीजल चुनाव के बाद वसूलेगा ... आप ही सोचिए आपके पास जब कुछ नही करने के अनगिनत तर्क है, अनेकों मजबूरियां हैं तो उनका क्या जो चुनावी दंगल में चित-पट में लगे हैं ... ऐसे में आपके राइट टू रिजेक्ट वाले बटन का इस्तेमाल आपके स्वार्थपने को साबित करेगा कि जो आजन्म ईमानदार दिखने का स्वार्थ भी पाले हुए है और सामने वाले को गरियाने-गलियाने का मौका भी नही छोड़ना चाहता ... राजनीतिक दल समाज से अलग किसी बियावान जगत की पैदावार नही है , वो आपकी इन्हीं छद्म ईमानदारी और स्वार्थपने की फसल काट रहे हैं ... इसलिए बेहतर उम्मीदवार पर मुहर ही एकमात्र विकल्प है ... और वो एक कहावत तो आप जानते ही हैं - आप बदलिए , जग बदलेगा ।

(फेसबुक पर किए दो अपडेटों का समुच्चय)

न्युरॉनों से मनुहार

तंत्रिका तंत्र के 
करोड़ों न्यूरॉनों के गुच्छों में
न जाने कौन सा गुच्छा
सुस्त हो गया है
या फिर सुप्त हो गया है
कि हंसी और हताशा 
दोनों ही हालातों को बयां करने में
चेहरा असमर्थ होता है

शरीर की भाव-भंगिमा
चेहरे का चाल-चलन
और मन के बीच का स्वाभाविक विद्युत-प्रवाह
समय के चक्रव्यूह में
अभिमन्यु बन चुका है

द्रोणाचार्य विपक्षी खेमे में है
अर्जुन को आवाज लगाई जा रही है।