बुधवार, 31 अक्तूबर 2012

चुक्का, चौकी और पंचिग मशीन ...

बचपन के दिन थे, कब कौन सी चीज मन को लुभा जाय इस पर दिमाग का आतंक वैसे भी नही रहता। कब फुक्के पर आंख फफकने लगे और कब चींटी देखकर दिल चहकने लगे ,कहना मुश्किल ही होता है। वो तर्क की बेवजह आवाजाही पर लगाम के दिन होते हैं, अनुभव बिल्कुल प्योर होता है, और ग्रे एरिया की कोई गुंजाइश भी नही होती। खैर तब ज्यादातर अल्युमीनियम के पैसों से ही हमारा पाला पड़ता था, लोहे के पैसे भी चव्वनी-अठन्नी से ज्यादा पॉकेट में रहते नही थे और फिर वो टिकते कहां थे। 

उन दिनों हमारे चाचा की दुकान पर एक पंचिग मशीन यानि स्टेपलर हुआ करती थी, जो फट चुके पैकेटों को स्टेपल करने के काम आता था। जब भी कभी चव्वनी के तकादे में वहां जाता, स्टेपलर की खट-खट मन मोह लेती। काम के बाद स्टेपलर के सुस्ताने की जगह दुकान का गल्ले था, जो थी हमारी पहुंच से दिल्ली दूर। स्टेपलर की तरफ मन में एक खिंचाव सा पैदा हो गया और दिन-ब-दिन यह आकर्षण बढ़ता ही चला गया। गाहे-बेगाहे उस पर मालिकाना हक के सपनें देखा करता।स्टेपलर के इस मोह ने कुछ ऐसा करने पर मजबूर कर दिया, जिसे याद कर अब ठहाके लगाने का जी करता है। खैर अब सपनें भी स्टेपलर के ही आने लगे... कभी अपनी किताब के फटेहाल होने को कल्पित करता और खटाखट खट-खट कर उसे ठीक करने की। कभी अलग-अलग पन्नों पर लिखा-पढ़ी कर उसे पंच कर किताब की शक्ल देने के सपने देखता। यानि उसके उपयोगिता की तमाम संभावनाओं को मन एक-एक कर और निरंतर एक्सप्लोर करने में अक्सर जुटा होता। 

उन दिनों चुक्के का खूब चलन था, मिट्टी से बने ये चुक्के लगभग हर परिवार में बच्चों की संख्या के मुताबिक होते, जिनका इस्तेमाल सिक्कों को जमा करने में होता, जिसे मेरे दादा जी बैंक कहा करते थे।... और सच में वो किसी बैंक से कम भी नही था। अक्सर मां-पिताजी बच्चों के किसी डिमांड पर उसे सिक्का थमाते और फिर बच्चों के हाथों ही सिक्का उस चुक्के को समर्पित करवा देते। बच्चों को आश्वस्त किया जाता अरे तुम्हारा ही तो पैसा है। बच्चे जब भी किसी चीज की जिद करते तो घर वाले कहते, अरे सौ सिक्के तो हो जाने दो, फिर खरीद लेना। लेकिन ऐसा भी नही था कि चुक्के पर मालिकाना हक बच्चे का ही हो। कभी घर में पर्याप्त पैसा न होने की हालत में या फिर पापा से बिना पूछे किसी सामान की खरीद में वो चुक्का बड़े काम का होता। कह सकते हैं कि ऐसे मौकों पर पहली नजर चुक्के पर ही लोगों की पड़ती... और हां चुक्के से पैसे के बाहरी दुनिया में निर्गमन में  तार या फिर जीभ साफ करने वाले जीविया की खूब मदद ली जाती, और इस मामले में अक्सर हर कोई अपने को दूसरे पर बीस समझता।

खैर महीनों विचार-विमर्श के बाद नकदी के दूसरे श्रोतों की अनुपस्थिति में हमारी यानि मेरी और मेरे भाई की नजर इसी चुक्के पर गयी। हम प्लानिंग में जुट गए, क्या कैसे करना है इस पर हमने कई सप्ताह विचार-विमर्श किया। स्टेपलर की कीमत दो-तीन दुकानों पर पता की, कहीं कोई कुछ स्टेपल कर रहा होता तो उस पर भी खूब गौर फरमाया जाता।... और हां उन दिनों हमारे मोहल्ले में उपकार सामान्य ज्ञान की किताब भी खूब चलन में थी। एक पतली वाली और दूसरी मोटी वाली- डायजेस्ट (शायद उस फॉर्मेट में आनी अब बंद हो गयी है, बहुत दिनों से देखी नही है। ), ऐसे में हमने चुक्का फोड़कर इन दोनों अविलंब जरुरतों को पूरा करने का फूलप्रूफ खाका तैयार किया। हमने अपने सोने वाली चौकी के नीचे जमीन पर गड्ढ़ा खोदा और और एक प्लास्टिक की थैली में चुक्के से निकले पैसे को वहां के धुप्प अंधेरे में समर्पित कर दिया। अब उस कमरे में हर दिन झाडू-बहारु का जिम्मा हमने अपने मासूम कंधों पर ही ले ली थी। 

हमारे कस्बे में स्टेशनरी की एक मानी हुई दुकान थी- लाइट हाउस हमने वहां से स्टेपलर तो ले ली, लेकिन अब पकड़े जाने का डर दिलो-दिमाग पर हावी हो गया। खैर दो-तीन बाद चुक्के की अनुपस्थिति को हमारे दादा जी की पारखी नजर ने ताड़ लिया, अब हर रोज सुबह-शाम चुक्का पुराण शुरु रहता। दादा जी चुक्के की खोज के मिशन पर जुट गए थे। हर एक की गतिविधि पर उनकी पैनी निगाह होती। खैर बकरे की मां कब तक खैर मनाएगी वाली स्थिति थी, पकड़ा जाना था और हम पकड़े गए। आखिरकार एक दिन पंचिग मशीन की खट-खट की आवाज उनके कानों को खटक गयी। ... और फिर उसके बाद के अनेकानेक दिन हमारे शामत के दिन थे। उस दिन की हमारी धुलाई-सफाई के बाद भी कई दिनों तक हम धुलते-धुनाते रहें।

सोमवार, 29 अक्तूबर 2012

ये अंदर का मामला है ...

पहले ही कहता चलूं कि ऐसा नही है कि बाकी जगहों पर बेटें-बेटियां-बीवियां, भाई-भतीजे-भौजाइंआ नही है, लेकिन यहां मामला उन सार्वजनिक पदों का है, जिस पर आसीन होने की गलियों और रास्तों का लोकतांत्रिक होने का दावा किया जाता रहा है, और लोकतांत्रिक होना जरुरी भी है, ऐसे में सवाल उठने लाजमी है और जरुरी भी है। हालांकि राजनीतिक दलों का जिक्र संविधान में नही है और न ही इस संबंध में किसी बनावट-बुनावट को प्रीस्क्राइब किया गया है, लेकिन उद्देशिका, संविधान की भावना-भाव-भंगिमा और अब मूल ढ़ांचे के तहत उसके लोकंतांत्रिक होने की उम्मीद तो की ही जा सकती है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में विशाल आकार और जनसंख्या वाले देशों में राजनीतिक दलों के कंधों पर ही लोकतंत्र को प्रतिष्ठित करने की जिम्मेदारी आन पड़ती है, ऐसे में स्वाभाविक है कि राजनीतिक दलों की धमनियों में लोकतंत्र के प्रवाहित होने की उम्मीद लोग किया करते हैं, पाल बैठते हैं। हालांकि ऐसा नही है कि मंत्रिमंडल विस्तार कोई पहली बार हुआ है, और सियासी रसूख वाले खानदानी परिवारों की इसमें बड़ी दखल कोई पहली-पहली दफा है, लेकिन इस को यह कर चर्चा से परे नही किया जा सकता कि ये तो चलता ही है या इसमें नया क्या है। वैसे इंसान उम्मीद ही छोड़ दे , सवाल न करे तो फिर तो फिर आखिर क्या बचा रह जाएगा ? पाश की एक महत्वपूर्ण कविता भी है- सबसे खतरनाक है सपनों का मर जाना।

कुछ दिनों पहले जेएनयू की लाइब्रेरी की दीवार पर उदय प्रकाश की एक कविता चस्पां दिखी थी, जिसका एक हिस्सा था-

कुछ नही सोचने और कुछ नही
बोलने पर
आदमी
मर जाता है

खैर ... यूपीए-2 मंत्रिमंडल की इस तीसरे फेरबदल या विस्तार में 7 काबीना स्तर और 11 लोगों को राज्यमंत्री के रुप में शपथ दिलायी गयी। ऐसा में सोचा कि एक बार नजर डालूं कि आखिर बहू-बेटों-बेटियों की कितनी तादाद है इस बार।

मानव संसाधन मंत्रालय का पदभार संभालने वाले और आंध्र प्रदेश के काकीनाडा से सांसद एमएम पल्लम राजू के पिता एम एस संजीवी राव 1982-84 तक इंदिरा गांधी मंत्रिमंडल में केंद्रीय मंत्री रह चुके हैं और एम एम पल्लम राजू नौंवी लोकसभा में सबसे युवा सदस्य थे। वैसे राजनीति में अक्सर युवाओं को भागीदारी देने की बात की जाती रही है, लेकिन राजनीति में युवाओं की खेप का गलियारा अक्सर राजनेताओं के आंगन से ही निकलता मालूम होता है। पल्लम राजू अकेले नही है जिनके नाम राजनीति में युवापन के प्रतीक है, दिल्ली विधानसभा के अब तक के सबसे युवा विधानसभा अध्यक्ष अजय माकन भी सियासी रसूख रखने वाले खानदानों में से है। उनके चाचा और दक्षिणी दिल्ली से पूर्व सांसद ललित माकन का भी खासा जलवा था। बताते चले कि ललित माकन पूर्व राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा के दामाद थे। ललित माकन की हत्या के बाद अजय माकन अपनी खानदानी जिम्मेवारी निभा रहे है। ललित माकन के दामाद अशोक तंवर अभी सिरसा से लोकसभा के सांसद है ।

नई संस्कृति मंत्री की जड़े राजघरानों से होकर गुजरती है। जोधपुर राजघराने में जन्मी चंद्रेश कुमारी कांगड़ा के कटोच राजघराने की बहू है। हिमाचल में वीरभद्र सिंह के मुख्यमंत्रित्व काल में मंत्री भी रही और अब कहा जाता है कि हिमाचल न लौटने के एवज में उन्हें कैबिनेट में जगह मिली है। विधि और न्याय के कैबिनेट मंत्री का पदभार संभालने वाले अश्विनी कुमार भी पंजाब के मशहूर राजनीतिक परिवार से है । उनके पिता प्रबोध चंद्र पंजाब विधानसभा में अध्यक्ष के पद पर आसीन रहे हैं। सूचना एवं प्रसारणमंत्री का स्वतंत्र पदभार संभालने वाले मनीष तिवारी के नाना सरदार तीरथ सिंह जहां पंजाब (पेप्सू) के कांग्रेस सरकार में जहां मंत्री रह चुके हैं वही पिता वी एन तिवारी भी राज्यसभा में मनोनीत सांसद थे।

बिहार के कटिहार संसदीय क्षेत्र से पूर्व लोकसभा सांसद और अब महाराष्ट्र से राज्यसभा सांसद कृषि राज्य मंत्री तारिक अनवर भी सियासी रसूख वाले परिवार से आते हैं। उनके दादा बैरिस्टर शाह मोहम्मद जुबैर तीस के दशक में बिहार-उड़ीसा प्रदेश कांग्रेस समिति के अध्यक्ष थे और पिता शाह मुश्ताक अहमद बिहार विधानसभा के सदस्य। रेलवे राज्यमंत्री के रुप में नियुक्त और रायलसीमा इलाके के कर्नुल सीट से सांसद कोटला जय सूर्यप्रकाश रेड्डी के परिवार का भी राजनीतिक इतिहास रहा है। उनके पिता कोटला विजयभास्कर रेड्डी दो बार आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। सूर्यप्रकाश रेड्डी जब पहली बार लोकसभा के लिए 1994 में चुने गए थे तो उनके पिता विजयभास्कर रेड्डी मुख्यमंत्री पद पर आसीन थे।

आदिवासी मामलों के मंत्रालय की राज्यमंत्री बनी रानी नाराह के पति भरत नाराह वर्तमान तरुण गोगोई सरकार में मंत्री है। असम की तरफ से क्रिकेट खेल चुकी रानी नाराह बीसीसीआई में विलय तक वुमेंस क्रिकेट असोशिएशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष पद की शोभा भी बढ़ा चुकी है। वैसे रक्षा राज्य मंत्री के पद पर नियुक्त लालचंद कटारिया की भी खेलों से जुड़ी पृष्ठभूमि रही है और वो कबड्डी के राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी रह चुके हैं। लालचंद कटारिया भी विधायक रह चुके अपने पिता रामप्रताप कटारिया की राजनीतिक विरासत संभाल रहे हैं। स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण राज्यमंत्री अबु हाशिम खां चौधरी जहां कांग्रेस के कद्दावर नेता रहे ए बी ए गनीखां चौधरी के भाई हैं वहीं दीपा दाशमुंशी पूर्व केंद्रीय मंत्री प्रियरंजन दासमुंशी की पत्नी है। प्रियरंजन दासमुंशी अभी कोमा में है, ऐसे में उनकी विरासत अब उनकी पत्नी संभाल रही है। वैसे कुछ अन्य नामों पर गौर करें तो केंद्रीय मंत्रिमंडल में संचार और सूचना प्रौद्योगिकी राज्यमंत्री के रुप में नियुक्त श्रीकाकुलम से सांसद किल्ली कृपरानी की अनेक उपलब्धियों से से एक उनकी किताब `हंड्रेड ईयर सागा ऑफ नेहरु फैमिली` भी है। वो तेलगूदेशम पार्टी के हैवीवेट येर्रन नायडू को हरा कर लोकसभा के लिए चुनी गयी है। अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री के रहमान खान कभी लोकसभा से नही चुने गए और बीते दो दशकों से राज्यसभा के सदस्य है। वो राज्यसभा के उप-सभापति भी रह चुके हैं।

अन्त में ... साल 1981 में प्रकाश मेहरा के निर्देशन में और अमिताभ-जीनत अभिनीत एक फिल्म आयी थी, जिसका एक मशहूर गाना था मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है ...। आज के राजनीतिक परिदृश्य यह लाइन फिट बैठती है... आखिर यह बेटे-बेटियों, भाई-भतीजों का ही आंगन तो है।

पोस्ट-स्क्रिप्ट--- नए श्रम और रोजगार राज्यमंत्री और केरल के मावेलीकारा से चुने गए के. सुरेश के निर्वाचन को केरल उच्च न्यायालय ने स्कूल-सर्टिफिकेट में उनके ईसाई धर्मालंबी (उन्होंने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया था) दर्ज होने के बावजूद दलितों के लिए आरक्षित सीट पर चुनाव की वजह से खारिज कर दिया था, लेकिन एक साल बाद सर्वौच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय के आदेश को इस आधार पर खारिज कर दिया कि वो पुनर्धर्मातंरण के बाद ईसाई नही रह गए थे।

गुरुवार, 25 अक्तूबर 2012

डफली-वाले , काजोल और दुर्गा-पूजा ...

दुर्गा-पूजा की दशमी के दिन चाहे-अनचाहे सिनेमाघर जाता रहा हूं , कम ही बार हुआ है कि नही गया होउंगा। अव्वल तो हमारे यहां पर्व-त्योहारों पर नयी-नयी फिल्में सिनेमाघरों में लगती थी और दूसरी बात यह कि सिनेमा हमारे परिवार में बीमारी जैसी मानी जाती थी। लोग सिगरेट, शराब के बाद व्यसन की श्रेणी में अगला नाम सिनेमा का ही लेते थे। ऐसे में दुर्गा-पूजा और छठ ही कुछ ऐसे गिने-चुने मौके थे जब सिनेमा के मसले पर थोड़ी-बहुत ढ़ील मिल जाती थी। दूसरी वजह यह भी कि परिवार में अधिकांश लोगों की दुकान होने की वजह से कम ही ऐसे मौके आते थे जब सिनेमा के लिए लोगों को फुर्सत मिल पाती थी। सातों दिन सुबह से रात दुकान पर बैठने और सिनेमा और वो भी रात का शो ,जो किसी टैबु की ही तरह ही था इन मौकों को काफी खास बना देता था। कह सकते है यह वो जमाना था जब सिनेमा किसी उत्सव की तरह था औऱ एक शो का टिकट न मिलने पर तीन घंटे रुककर अगले शो की टिकट के लिए लाइन में लगने से भी लोगों को परहेज नही था। चूंकि इन मौकों पर अगल-बगल के गांवों से लोग मूर्तियां देखने, समोसा-चाट खाने और फिर सिनेमा देखने के त्रिआयामी लक्ष्य के साथ भी जुटते तो फिर ठेलमठाल भी गजब भी होती।

दुर्गा पूजा पर कई फिल्में देखी- अभिषेक-करीना की रिफ्यूजी से लेकर मिथुन की देवता तक। भीड़ इतनी कि एक-दो बार डीसी का टिकट लेकर बेंच पर बैठना पड़ा और न तो पीठ-पीठ का अंतर रहा और न पसीने-पसीने का। ककड़ी पर छिड़का नमक घुलकर बगल वाले के पनियाबरफ से टपकते रंगीन तरल के साथ घुल जाने वाली स्थिति कह सकते हैं आप।

प्रकाश झा की चक्रव्यूह फ्रायडे अवतरण के सिनेमाई संस्कार के उलट दशमी के दिन रीलिज हो रही थी तो सोचा चलो परंपरा भी निभाता ही चलूं। बतरा पहुंचा तो पाया कि चक्रव्यूह का पोस्टर चिपका होने के बावजूद स्टूडेंट ऑफ द ईयर ही पर्दे को प्राणवान कर रही थी। टाइमिंग ऐसी कि कहीं दूसरी जगह जाने का स्कोप भी नही था। सोचा करण जोहर के डायरेक्शन में सालों बाद कोई फिलम आयी है , ठीक ठाक ही होगी। हालांकि फिल्म उनके पुराने फिल्मों की सस्ती नकल निकली। एक ऐसा स्कूल जिसमें पढ़ने के अलावा सारे कर्म और कांड होते हैं , एक ऐसा बाप जो अपने बेटे की पराजय की संभावना पर जहरीली मुस्कान बिखेरता है और एक ऐसी मां जो अपनी बेटी को अपने सहपाठी को रिझाने के लिए पुश-अप ब्रा से लैस करने की मानसिकता रखती है । ... औऱ सबसे अव्वल तो स्टूडेंट ऑफ द ईयर की ट्रॉफी जो पढ़ाई पर कम और ट्राइथॉलोन की कसौटी पर फिट होने की ज्यादा डिमांड रखती है मानो इवी लीग यूनिवर्सिटी में जगह पाने की बजाय ओलंपिंक के लिए क्लाविफाइंग मुकाबला हो।

हालांकि सालों बाद काजोल को पर्दे पर देखना सुखद था , भले ही सीन कुछ सेकंड का हो ,और एक बात और, `कुछ-कुछ होता है` में शाहरुख की बेटी अंजली इस फिल्म में बतौर सहायक हीरोईन एपीयर हुई है। वैसे डीन के रुप में रिषी कपूर भी डफली बजाते हुए देखे जा सकते हैं - वैसे इस बार उनकी डफली के निशाने पर मदमाती जया प्रदा की जगह माचोमैन रोनित रॉय हैं।

बुधवार, 24 अक्तूबर 2012

वो बक्सा अब भी किसी कोने में हैं ...

उस बक्से की पेट में काफी कुछ था- स्प्रिंग की गर्दन और रुई की दाढ़ी वाला बूढ़ा जो गाहे-बेगाहे हिलते गर्दन से रह-रह अपनी उपस्थिति का अहसास कराता था, टिन की कमानी और उससे जुड़ी लाल-पीली चिड़ियानुमा आकृति जो कमानी दबाए जाते ही चांय-चांय करती थी, काले शरीर और सफेद चोंच वाली चुटपुटिया बंदूक जिसकी 25 गोलियों का एक पैकेट 25 पैसे में ही मिलता था, जो ट्रिगर की खट-खट के साथ पट-पट का साउंड करती थी, एक कालिया वाला पीपुह जिसे ओठों के बीच दबाते ही नाक के अगल-बगल प्लास्टिक की मूंछ उभर जाती और फूंकने पर पी-पी की आवाज निकलती ... और भी न जाने कितना कुछ।

पर्व-त्यौहार उस बक्से का वसंत होता, उसे नई-नई खुराक मिलती, नए-नए खिलौने पुरानों के बीच जगह बनाते और हमारी हलचलों के चक्रवात के केंद्र में यह बक्सा होता। दो कमरों के किराए के घर में भी उस बक्से की अपनी एक खास जगह थी और स्कूल के बाद की दौड़ इस बक्से वाले कोने पर ही जाकर खत्म होती।

दुर्गा-पूजा इस बक्से के लिहाज से खास था, आखिर दस दिनों तक मेला जो लगता था। एक तो अच्छी-खासी छुट्टियां उस पर से गांव-कस्बा-जिले के हाट-मेलों में जाने का बारंबार मिलने वाला मौका । अष्टमी-नवमीं को गांव जाना होता और मेले का मजा गांव से बेहतर कहीं होता भी नही था। दस पैसे में लोहे के छल्ले से चौकी पर बिखरे सामानों पर निशाना लगाते... चेक-मार्गो साबुन से लेकर सौ रुपए के नोट तक पर, पानी भरी बाल्टी के तल पर रखे गुल के डिब्बे की ओर दूने की उम्मीद में सिक्का तैराते, बंदूक से बैलून पर निशाना लगाते और सर कटे आदमी, चार हाथ-चार पांव वाले अजब-गजब आदमी को देखते। कभी-कभार मौत के कुएं में झांककर बाइक पर स्टंट देखने का आनंद भी मिलता... और फिर रात को जग्गा डाकू वाला नाटक भी देखते। उन दिनों जबकि पॉकेट खर्च चव्वनी के लगभग हुआ करती थी, दुर्गा पूजा- दशहरे पर इस चव्वनी की जगह अठन्नी-रुपए हाथ आते। जनसंख्या की राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय समस्या के विपरीत चाचाओं-फूफाओं-फूआओं-मौसे-मौसियों की अच्छी खासी संख्या हम बच्चों के लिए वरदान हुआ करती। दोपहर से ही हम चाचाओं की दुकानों पर तगादे पर पहुंच जाते और चव्वनी-अठन्नी हाथ में आने के बाद ही विदा लेतें और फिर किसी बुआ से 5 रुपए का नोट मिल जाता तो समझिए की चांदी ही चांदी। उस पर से साथ में अगर घूमने निकले तो झिल्ली-कचड़ी का बोनस अलग से।

इसी मेले में पहली बार जीके यानि सामान्य ज्ञान की एक पतली-दुबली किताब भी ली थी। अब आप ही कहिए जब बेचने वाला लगातार बताए जा रहा हो कि कौन पेड़ इंसानों जैसा दहाड़ मार कर रोता है , किस मछली के दो दिल होते है और किस पेड़ से करंट निकलती है के जवाब इस किताब में है तो ऐसे में कोई भी जिज्ञासु विद्यार्थी क्या करें, सो हमने भी पढ़ाई में अपनी दिलचस्पी का हवाला दे-देकर किताब अपनी मम्मी से खरीदवा कर ही मानी।

खैर बात अब उस बक्से की, जिसकी बात से बात शुरु हुई थी। उस बक्से के साथ अपना रिश्ता काफी पुराना था। कह सकते हैं उस जमाने से जब चमचमाते रग-बिरंगे प्लास्टिक-रेक्सीन के स्कूल बैग कुछ चुनिंदा पीठों पर ही विराजमान होते। बच्चें उन दिनों टीन, अल्यूमीनियम और स्टील के बक्से में किताब-कॉपियां-पेंसिल-कलम और कॉमिक्स स्कूल ले जाते। टिफीन के समय इन बक्सों को गेंदों से मारधाड़ खलते समय अपना ढ़ाल बनाते और बारिश होने पर छाते की तरह इससे सर ढ़ांपते। उस पर न जाने कितनी कीलें ठुक चुकी थी, टिन के पत्तर के दो-तीन पैबंद भी उस पर उग आए थे लेकिन छठी क्लास तक हमारा और उस बक्से का साथ रहा।

खैर स्कूल बैग के साथ कड़ी टक्कड़ में ये बक्सें आउटडेटेड करार दिये गए, लेकिन इस बक्से ने हार नही मानी। उसके जीवट की दाद देनी होगी , नई परिस्थितियों में भी उसने अपने लिए जगह बना ली है। अब उस बक्से में दुकान के पुराने पुरजें पड़े रहते हैं और अब भी एक कोने में पड़ा है, शायद दुर्गा-पूजा की याद उसे भी आ रही होगी मेरी तरह ही। 

सोमवार, 22 अक्तूबर 2012

पवित्र लीलाओं का पुर्नपाठ जरुरी ...

रामलीलाओं की लीला फिर अपने उफान पर है। अभी दिल्ली में हूं और इन दिनों जिधर से भी गुजरता हूं, पंडाल तना - मंच बना मिलता हैकभी गहराती रात के समय विचरण करें तो अधिकांश पार्क और खुले स्थान अयोध्या, किष्किंधा या फिर लंका में तब्दील मिलेंगें। राम `तुझे देखा तो यह जाना सनम` की बैकग्राउंड पर रोमांटिक उतारु हुए दिख सकते हैं और रावण `नायक नही खलनायक हूं मैं` की तर्ज पर अट्टाहास करते हुए देखा जा सकता है। बुराई पर अच्छाई की विजय अक्सरहां हमारी संस्कृति के मूल में, इन परंपरा-कहानियों में बताई-समझायी जाती रही है... और इसमें कोई बुराई भी नही है। समस्या इस बात की है कि इन लीलाओं में इन मूल्यों के प्रतिनिधि शायद ही वर्तमान परिस्थितियों में अच्छाई और बुराई के नवीन मानदंडों पर ठठ पाए, अग्निपरीक्षा से साबुत निकल पाए। 

बीते दिनों फेसबुक पर एक पिता-पुत्री संवाद खूब चर्चा में रहा प्रसंग अपनी संभावित संतान के सिलसिले में बेटी से एक पिता की बातचीत है। इस बातचीत के क्रम में बेटी रावण जैसा भाई की चाहत बताती है। एकबारगी हास्यास्पद लगने वाली इस चाहत के पीछे के तर्क किसी को भी सोचने को मजबूर करने वाले हैं। छाया जैसी साथ निभाने वाली गर्भवती निर्दोष पत्नी का त्याग करने वाले राम और बहन के अपमान और अंग-भंग के बाद शत्रु की स्त्री को हरण करने के बाद भी स्पर्श न करने वाले रावण के बीच का चुनाव शायद बेटी के लिए ज्यादा मुश्किल भी नही होगा। चौदह साल वनवास और अपहरण की भीषणता के बावजूद सीता की अग्निपरीक्षा आखिर किन मर्यादाओं का सूचक है। ऐसे में मर्यादापुरुषोत्तम का तमगा यूरोपीय यूनियन या फिर ओबामा को शांति के लिए नोबल पुरुस्कार के तुल्य ही मालूम होता है। 

कुछ दिनों पहले नोम चोमस्की का लिखा पढ़ा कि द जेनरल पीपुल डॉन्ट नॉ व्हाट्स हैप्पनिंग, एंड इट डज नॉट एवन नो दैट इट डज नोट नॉ। आजकल वैसे भी आस्था पर कोई भी सवाल लोगों की आंखो और हाथों की खुजलाहट बढ़ाती दिखती है, ऐसे में आस्थाओं-मान्यताओं से जुड़ी धमनियों और शिराओं का शुद्धीकरण तंत्र जो पहले से ही खस्ताहाल था, और भी सिकुड़ता दिख रहा है। जब चरित्र और घटनाएं आस्था की देहरी में सिमट जाते हैं या सिमटने लगते हैं तो पाप-पुण्य की जोड़ी भी एक के साथ एक फ्री की तर्ज पर इससे जुड़ी-गुंथी मिलती है और इन सबसे भी आगे जाकर जब यह पहचान करार दे दिए जाते हैं तो समाज-समुदाय न केवल वैज्ञानिकता-तार्किकता की बलि ले लेता है बल्कि असहिष्णु और अलोकतांत्रिक हो जाता है। बदलते समय को बदमिजाज करार देकर खारिज करने की प्रवृति से परहेज करते हुए आस्था के इन किलों की पवित्रता पर संदेह की जरुरत है, नवीन समतावादी मूल्यों की कसौटी पर इन पवित्र पात्रों-परंपराओं को कसने की जरुरत है। सालों पहले स्टीवन ल्यूक्स के शक्ति के तृतीय आयाम के सिंद्धांत को स्पष्ट करते हुए राजनीति विज्ञान की एक टीचर ने प्रेमचंद के ठाकुर का कुंआ कहानी को उद्धृत किया था। दलितों का कुंआ सूख जाने के बाद की परिस्थिति में बीमार पति के गले को तर करने किए एक दलित औरत रात के सन्नाटे में ठाकुरों के कुंए में बाल्टी डालने की हिम्मत तो जुटाती है, लेकिन पानी नही निकाल पाती । वजह हिम्मत का अभाव नही बल्कि उसके मन में इस सवाल की उत्पत्ति थी कि कहीं उससे कोई पाप तो नही हो रहा ?

पोस्ट स्क्रिप्ट कुछ साल पहले एक पत्रिका में रावण-वध के असर से जुड़ी एक रोचक सामग्री पढ़ने को मिली। ब्राह्मण रावण की क्षत्रिय राम के हाथों मृत्यु के बावजूद जिन ब्राह्मणों ने ब्राह्मणहंता राम की पूजा की, उन्हें तडीपार कर दिया गया ( सरयू के पार) ... और पंडितो की यह वैरायटी सरयूपारीण ब्राह्मण कहलायी। पत्रिका के मुताबिक ब्राह्म्णो के बीच सरयूपारीण को ज्यादा सम्मान से नही देखा जाता, जिसकी वजह ब्राह्मण समाज का अपने समुदाय के इस हिस्से का यहि सदियों पुराना बहिष्कार है। 

शुक्रवार, 19 अक्तूबर 2012

इन खालों को खुरचने की जरुरत ...

डेवलपमेंट, रिफॉर्म, प्रोग्रेस-प्रोग्रेसिव, लेफ्ट, राइट, सेंटर... अखबार, टीवी, इंटरनेट, आपसी बातचीत यानि जहां भी घुसिए, इन शब्दों की घुसपैठ से बच पाना नामुमकिन ही है। कहते है चेहरा सब कुछ उगल कर- उलट कर रख देता है, लेकिन जब भी इन शब्दों पर ठिठकता हूं ... लगता है मामला भेड़ के खाल में भेड़िए के होने का है। इन शब्दों की भंगिमा और इनके निहितार्थ के बीच के छत्तीस के आंकड़े पर कोफ्त किए बिना नही रह पाता। अब आप ही बताइए जब डेवलपमेंट और डिसप्लेटमेंट/डिस्ट्रक्शन के बीच का अंतर बारीक ही रह जाए तो क्या कहा जाय ? कई बार ऐसी खबरें पढ़ी-सुनी है कि फलां जमीन डेवलप की जा रही है, मसलन यमुना बेसिन या फिर जंगलों-खानों को डेवलप करने से जुड़ी खबरों को ही लें। मामला कमोबेश ऐसा है कि कोई यह कहे कि विकास और विनाश पर्यायवाची है । लगता है विनाश पर विकास का लबादा लादकर बाघ के बकरी होने का भ्रम पैदा किया जा रहा हो। अब नव-उदारवाद शब्द को ही लें— शब्द से जान पड़ता है मानो कोई ह्रदय परिवर्तन का शिकार हो गया हो, ह्रदय-मन-कर्म(वचन से खैर है ही) उसका मन और भी खुल गया हो, हर किसी को गले लगाने को तैयार बैठा हो, समाज का उद्धार ही उसके जीवन का आधार हो गया हो, लेकिन आप ही देखिए नव-उदारवादी बतायी जाने वाली नीतियां लोगों की कैसे कह कर ले रही है । 

रिफॉर्म शब्द का जिक्र आते ही लगता है राजा राममोहन राय की आत्मा इस धरा-धाम पर अवतरित हो गयी हो, लेकिन हकीकत पर नजर डालिए मामला खुला खेल फर्रुखाबादी ही लगता है... और फिर आधुनिक रिफोर्मिस्टों के नामों का उल्लेख ही बारंबार उबकाई के लिए काफी है। ...और जहां तक लेफ्ट, राइट और सेंटर का मामला है, तो इन शब्दों को फुटबॉल के नाम पूर्णतया समर्पित कर दिया जाय तो ही बेहतर। वैसे भी यह तय करना काफी लोचेदार है कि कौन सा वाला लेफ्ट है और कौन सा वाला राइट? …और जब लेफ्ट और राइट ही तय नही है तो फिर सेंटर की पोजीशन तो त्रिशंकु की ही भांति होगी। उपर से आजतक समझ नही आया कि राइट को राइट क्यों बोला जाता है, कुछ और बोल देते…शब्दों की कमी थी क्या। और यदि राइट ही राइट है तो बाकी सब रोंग हैं क्या ? वैसे भी अब लेफ्ट, राइट, सेंटर सब एक ही शरीर के अंग-प्रत्यंग मालूम पड़ रहे हैं... बॉडी-आत्मा सब एकही सी दिख रही है ... अंतर भ्रम, अनभिज्ञता या फिर नासमझी ही जान पड़ती है । खैर अब कुछ `ताजातरीन` की भी चर्चा कर ली जाय, अब आप ही बताइए कि पीस या शांति का मतलब क्या अब भी वही पहले वाला है ऐसे में जबकि यूरोपीय यूनियन और बराक ओबामा पीस वाला नोबल पुरस्कार बटोर रहे हों। अब कोई यह कहे कि मिडिल ईस्ट से सैंट्रल ईस्ट तक उनके ड्रॉन और कलस्टर कैसे शांति नही फैला रहे हैं तो फिर `सहमत होने` के अलावा हमारे-आपके पास और चारा ही क्या है !!! ऐसे में पता नही सालों से तालिबान के साथ नाइंसाफी क्यों बरत रहे हैं नोबल वाले ... लगता है अगली बार तो पक्का ही मिलेगा आखिर मलाला जैसे नए मानदंड जो स्थापित कर रहा है वह। अब इसका क्या कहा जाय , बचपन से लेकर अब तक (अपना दुर्भाग्य ही है कि अब तक) किताबों में इस सवाल-जवाब से पाला पड़ता रहा कि `हू डिस्कवर्ड इंडिया – वास्कोडिगामा`। मानो भारत हिंद महासागर के भीतर गुम हो गया हो और हम बाहर निकलने के लिए कुलबुला रहे हों, ऐसे में वास्कोडिगामा भाई साहब ने वराह अवतार लेकर किसी तरह ढ़ूंढ़-ढ़ांढ़ कर हमारा उद्धार किया हो। ऐसे में वक्त आ गया है डिक्शनरी अपडेट करने का, इन शब्दों की खाल खुरचने का।

गुरुवार, 11 अक्तूबर 2012

लोकनायक बनाम महानायक ... एक्टर बनाम कैरेक्टर

अमिताभ बच्चन और जयप्रकाश नारायण... एक रुपहले पर्दे का नायक, दूसरा जिंदगी के कुरुक्षेत्र का। एक जिसे असहज सवालों से परहेज* है और एक जिसमें था माद्दा `सहज और मर्यादित` समाज में असहजता पैदा करने का। सक्रिय राजनीति में दोनों ही आए, एक महज केमियो की भूमिका निभाकर उसे बाय बाय कर गए और एक जो जिंदगी के आखिरी हिस्से तक राजनीतिक रहे, संघर्ष करते रहे। एक जिसकी चिर परिचित हंसी, गुस्सा, भावनाएं आभासी है और एक जिसका चेहरा वक्त का आईना था। आज जन्मदिन है इन दोनों का और सुबह से ही शुभकामनाओं का सिलसिला चल पड़ा है ... और महानायक इस मैदान में लोकनायक पर बीस साबित हो रहे है। इस अद्भुत संयोग ने इतना तो साबित कर ही दिया है कि समाज की गति क्या है? दशा-दिशा, चाल-चरित्र क्या है? इतने सारे अंतरों के बावजूद दोनों के व्यक्तित्वों और परिस्थितियों की पड़ताल में कुछ समान सूत्रों से इंकार नही किया जा सकता। दोनों ने ही युवाओं के बीच गुस्से को रिफ्लेक्ट किया है, यह बात दूसरी है कि एक परिस्थितियों से लड़ता हुआ परिस्थिति-परिवेश का हिस्सा बन जाता है और दूसरा उसे काफी कुछ बदल पाने में सफल होता है। हालांकि अमिताभ भी कुछ कम सफल नही हुए हैं , लेकिन उनकी सफलता काफी कुछ व्यक्तिगत दायरे में सिमट कर रह जाती है। कह सकते हैं कि एक सवाल है और दूसरा जवाब। 

यह भी अजीब संयोग है कि अमिताभ उस समय फिल्मों में आए , जब ब्लैक एंड व्हाइट की तकनीक आउटडेटेड हो चुकी थी और शायद अमिताभ ही पहले अभिनेता ठहरे जिन्होंनें सिनेमाई चरित्र के ब्लैक एंड व्हाइट लोकप्रिय खांचे यानि विलेन-हीरो के स्पेक्ट्रम से दायरे से बाहर निकलकर विलेन को सेक्सी बना दिया, विलेन और घृणा के बीच गर्भ-नाल के रिश्ते पर कैंची चला दी। मेरे हिसाब से अमिताभ जहां कैरेक्टर थे वहीं जेपी एक्टर। लेकिन जमाने की चलन देखिए आज यह कैरेक्टर एक्टर पर हावी होता हुआ दिख रहा है। वैसे जेपी के पास जहां जमाने से भिड़ने का जिगर था वहीं अमिताभ जमाने की भेड़चाल की बंदिशों से मजबूर और कई बार हास्यास्पद स्तर तक... आखिर लाल बादशाह, सूर्यवंशम और बुम जैसी फिल्मों में उनको देख-सुन कर आखिर और क्या कहा जा सकता है भला (चीनी कम और निशब्द जैसी फिल्में अपवाद है)। सच बताउं तो अमिताभ की फिल्मों से पहली बार पाला इन्ही फिल्मों के जरिए पड़ा , कह सकते है कि गलती मेरी उम्र की है (या फिर उनके उम्र की)। लाल बादशाह में लाठी लिए अमिताभ पर लहालोट होने के अलावा और कोई क्या कर सकता है भला। बुम का अमिताभ तो खैर अश्लील ही ठहरा ... अश्लील और भौंडा (उनके बने-बनाए इमेज से तुलना करें तो)। सच कहता हूं अमिताभ का बड़ा से बड़ा महान प्रशंसक भी बुम देखने के बाद पीकदान ढूंढता नजर आएगा। खैर इन उदाहरणों से मेरा आशय अमिताभ की दक्षिण एशियाई फिल्म जगत में `सर्वौच्चता` पर सवाल खड़ा करने का नही है और इसमें भी कोई शक नही अमिताभ का अभिनय लाजवाब है ... लेकिन यहां सवाल अभिनय और असल के बीच चुनाव का है।

पोस्ट स्क्रिप्ट-- अभी हाल में ही तहलका पत्रिका में अमर सिंह का इंटरव्यू पढ़ने को मिला। बकौल अमर सिंह एक प्रसंग के सिलसिले में जया बच्चन ने एक बार उनसे यानि अमर सिंह से कहा कि मेरे पति ने मर्द जरुर बनायी है , लेकिन राजनीति के असल मर्द तो चंद्रशेखर (पूर्व प्रधानमंत्री) है ।

*कल बीबीसी की वेबसाइट पर अमिताभ के इंटरव्यू के सिलसिले में एक पत्रकार का लिखा देखा कि इंटरव्यू से पहले असहज सवालों से परहेज की हिदायत दी गयी थी