बचपन के दिन थे, कब कौन सी चीज मन को लुभा जाय इस पर दिमाग का आतंक वैसे भी नही रहता। कब फुक्के पर आंख फफकने लगे और कब
चींटी देखकर दिल चहकने लगे ,कहना मुश्किल ही होता है। वो तर्क की बेवजह आवाजाही पर
लगाम के दिन होते हैं, अनुभव बिल्कुल प्योर होता है, और ग्रे एरिया की कोई गुंजाइश
भी नही होती। खैर तब ज्यादातर अल्युमीनियम के पैसों से ही हमारा पाला पड़ता था,
लोहे के पैसे भी चव्वनी-अठन्नी से ज्यादा पॉकेट में रहते नही थे और फिर वो टिकते
कहां थे।
उन दिनों हमारे चाचा की दुकान पर एक पंचिग मशीन यानि स्टेपलर हुआ करती थी, जो फट चुके पैकेटों को स्टेपल करने के काम आता था। जब भी कभी चव्वनी के तकादे
में वहां जाता, स्टेपलर की खट-खट मन मोह लेती। काम के बाद स्टेपलर के सुस्ताने की जगह दुकान का गल्ले था, जो थी हमारी पहुंच से दिल्ली दूर। स्टेपलर की तरफ मन में एक खिंचाव सा पैदा हो
गया और दिन-ब-दिन यह आकर्षण बढ़ता ही चला गया। गाहे-बेगाहे उस पर मालिकाना हक के
सपनें देखा करता।स्टेपलर के इस मोह ने कुछ ऐसा करने पर मजबूर कर दिया, जिसे याद कर
अब ठहाके लगाने का जी करता है। खैर अब सपनें भी स्टेपलर के ही आने लगे... कभी
अपनी किताब के फटेहाल होने को कल्पित करता और खटाखट खट-खट कर उसे ठीक करने की। कभी
अलग-अलग पन्नों पर लिखा-पढ़ी कर उसे पंच कर किताब की शक्ल देने के सपने देखता।
यानि उसके उपयोगिता की तमाम संभावनाओं को मन एक-एक कर और निरंतर एक्सप्लोर करने
में अक्सर जुटा होता।
उन दिनों चुक्के का खूब चलन था, मिट्टी से बने ये चुक्के लगभग हर परिवार में बच्चों की संख्या के मुताबिक होते, जिनका इस्तेमाल सिक्कों को जमा करने में होता,
जिसे मेरे दादा जी बैंक कहा करते थे।... और सच में वो किसी बैंक से कम भी नही था।
अक्सर मां-पिताजी बच्चों के किसी डिमांड पर उसे सिक्का थमाते और फिर बच्चों के
हाथों ही सिक्का उस चुक्के को समर्पित करवा देते। बच्चों को आश्वस्त किया जाता अरे तुम्हारा ही तो पैसा है। बच्चे जब भी किसी चीज की जिद करते तो घर वाले
कहते, अरे सौ सिक्के तो हो जाने दो, फिर खरीद लेना। लेकिन ऐसा भी नही था कि चुक्के
पर मालिकाना हक बच्चे का ही हो। कभी घर में पर्याप्त पैसा न होने की हालत में या
फिर पापा से बिना पूछे किसी सामान की खरीद में वो चुक्का बड़े काम का होता। कह
सकते हैं कि ऐसे मौकों पर पहली नजर चुक्के पर ही लोगों की पड़ती... और हां चुक्के
से पैसे के बाहरी दुनिया में निर्गमन में तार या फिर जीभ साफ करने वाले जीविया की खूब मदद
ली जाती, और इस मामले में अक्सर हर कोई अपने को दूसरे पर बीस समझता।
खैर महीनों
विचार-विमर्श के बाद नकदी के दूसरे श्रोतों की अनुपस्थिति में हमारी यानि मेरी और
मेरे भाई की नजर इसी चुक्के पर गयी। हम प्लानिंग में जुट गए, क्या कैसे करना है
इस पर हमने कई सप्ताह विचार-विमर्श किया। स्टेपलर की कीमत दो-तीन दुकानों पर पता
की, कहीं कोई कुछ स्टेपल कर रहा होता तो उस पर भी खूब गौर फरमाया जाता।... और हां उन
दिनों हमारे मोहल्ले में उपकार सामान्य ज्ञान की किताब भी खूब चलन में थी। एक पतली
वाली और दूसरी मोटी वाली- डायजेस्ट (शायद उस फॉर्मेट में आनी अब बंद हो गयी है, बहुत
दिनों से देखी नही है। ), ऐसे में हमने चुक्का फोड़कर इन दोनों अविलंब जरुरतों
को पूरा करने का फूलप्रूफ खाका तैयार किया। हमने अपने सोने वाली चौकी के नीचे
जमीन पर गड्ढ़ा खोदा और और एक प्लास्टिक की थैली में चुक्के से निकले पैसे को वहां
के धुप्प अंधेरे में समर्पित कर दिया। अब उस कमरे में हर दिन झाडू-बहारु का जिम्मा हमने अपने मासूम कंधों पर ही ले ली थी।
हमारे कस्बे में स्टेशनरी की एक मानी हुई दुकान थी- लाइट हाउस। हमने वहां से स्टेपलर तो ले ली, लेकिन अब पकड़े जाने का डर दिलो-दिमाग पर हावी हो गया। खैर
दो-तीन बाद चुक्के की अनुपस्थिति को हमारे दादा जी की पारखी नजर ने ताड़ लिया, अब हर रोज सुबह-शाम
चुक्का पुराण शुरु रहता। दादा जी चुक्के की खोज के मिशन पर जुट गए थे। हर एक की
गतिविधि पर उनकी पैनी निगाह होती। खैर बकरे की मां कब तक खैर मनाएगी वाली स्थिति थी,
पकड़ा जाना था और हम पकड़े गए। आखिरकार एक दिन पंचिग मशीन की खट-खट की आवाज उनके कानों को खटक गयी। ... और फिर उसके बाद के अनेकानेक दिन हमारे शामत के दिन थे। उस दिन
की हमारी धुलाई-सफाई के बाद भी कई दिनों तक हम धुलते-धुनाते रहें।