शनिवार, 27 मई 2017

अतीत से हमारी बेरुखी का स्मारक है हमारे संग्राहलय ...

संग्रहालय का जिक्र होते ही जो पहली तस्वीर मेरे दिमाग पर उभरती है वो है पटना संग्रहालय में चट्टान हो चुके एक विशाल पेड़ की। हजारों साल पहले का एक पेड़ कैसे चट्टान में बदल गया होगा, दिमाग सोच-सोच कर ही कुलबुलाने लगा था। फिर इस जिज्ञासा पर शायद तभी लगाम लगी जब अपने कोर्स की किताब में कहीं पढ़ा कि कोयला भी एक चट्टान है। हिस्ट्री जब साइंस में घुसपैठ करने लगी तो दिमाग ने फौरी तौर पर राहत पायी। दीदारगंज की यक्षिणी की प्रतिमा भी देखी। देखा तो और भी बहुत कुछ, लेकिन जो दिमाग में बच पाया वो बस इन दोनों की याद ही है। .... वैसे शायद मोहनजोदड़ो में मिले टेराकोटा के बर्तनों को भी देखा था। मेरे बड़े भाई जब दरभंगा में पढ़ रहे थे तो वहां भी एक संग्रहालय में जाना हुआ । ऐतिहासिक महत्व की चीजें उपेक्षित हालत में बिखरी हुई के अंदाज में पड़ी थीं। खैर जब वर्तमान ही बिखरा ही पड़ा हो तो अतीत को वो क्या खाकर छोड़ेगा । मुझे तब तक पता नही था कि मेरे जिले समस्तीपुर में भी कोई संग्राहलय है। संग्राहलय शुरु से ही कुछ इलीट टाइप का मालूम होता था, यानि बड़े शहरी की चीज या चोंचला। वैसे कुछ सालों पहले गूगलिंग की तो पता चला कि अपने जिले में भी एक म्यूजियम यानि संग्राहलय है।

  वैसे इतिहास-वर्तमान-भविष्य तो हर चीज और जगह का होता है। लेकिन मेरे शहर दलसिंहसराय का इतिहास भी कोई कम पुराना और रोचक नही। किवदंतियों की माने तो लाक्षागृह में दुर्योधन की साजिशों को चमका देकर पांडवों ने सुरंग की राह पकड़ी तो सीधे अब के दलसिंहसराय शहर से कुछ ही किलोमीटर दूर पांड में निकले।... और वो राक्षस बकासुर इधर ही कहीं लोगों को परेशान करता था , जिसे भीम ने अपनी बलिष्ठ भुजाओं की चपेट में ले लिया। गाहे-बेगाहे इस इलाके से पुरातात्विक खुदायी की खबरें भी आती रहती हैं। हालांकि भीम की गदा या अर्जुन का धनुष जैसी कोई चीज तो नही मिली है लेकिन नियोलिथिक युग से लेकर बाद के गुप्त-कुषाण काल के अवशेष जरुर मिले है। मन के किसी कोने में एक उम्मीद अभी भी बैठी हुई है कि भविष्य में इस अतीत को वर्तमान अपनी जगह देगा और शायद दलसिंहसराय या समस्तीपुर या खुदाई की जगह के आस-पास कोई बढ़िया संग्रहालय बने।

  खैर म्यूजियम की याद अचानक से इसलिए आ गयी कि कुछ दिनों पहले कनॉट प्लेस के सेंट्रल पार्क चरखा म्यूजियम देखने गया। छोटा सा लेकिन काफी खूबसूरत। परिसर में अंदर जाते ही महात्मा गांधी की प्रतिमा और परिसर में ही स्टेनलेस स्टील से बना एक विशाल चरखा और तीन चिर-परिचित बंदर। एक आंखों को बंद किए, एक मुंह को और एक कानों को। बुरा मत देखो, बुरा मत बोलो, बुरा मत सुनो। म्यूजियम भवन के अंदर इतिहास की एक छोटी सी शाखा प्रवाहित हो रही थी । आजादी का आंदोलन , गांधी जी औऱ चरखा... लोग वहां इतिहास से दो चार होते दिखे। भारत सरकार ने लोगों से पुराने चरखे म्यूजियम के लिए डोनेट करने को कहा थे और लोगों द्वारा डोनेट किए भांति-भांति के पुराने चरखे इस म्यूजियम की शोभा बढ़ा रहे हैं।

  जब भी जहां भी मौका मिलता है म्यूजियम घूमने की कोशिश जरुर करता हूं, भले ही कुछ देर के लिए सही। ... लेकिन यह काफी अखरता है कि जब आप म्यूजियम में इक्का-दुक्का लोगों को ही पाते हैं। लोगों की बेरुखी तो देखने को मिलती ही है , अक्सर यह भी देखने को मिलता है कि म्यूजियम का प्रबंधन भी सही स्तर का नहीं होता है। अभी साल भर पहले ही मंडी हाउस के नजदीक नेशनल म्यूजियम ऑफ नेचुरल हिस्ट्री आग की चपेट में आ गया।
चरखा म्यूजियम

चरखा म्यूजियम

 वैसे म्यूजियम का जिक्र आता है और यदि आप दिल्ली में है तो अक्सर हमारे जेहन नेशनल म्यूजियम ही तैरता दिखता है, लेकिन एक बार गिनती शुरु की जाय तो दोनों हाथों की अंगुलियां कम पड़ने लगती है। ...मंडी हाउस में मेरे कार्यालय दूरदर्शन भवन को अगर केंद्र माने तो इससे तीन-चार किलोमीटर की परिधि में कितने म्यूजियम होंगें... आपको क्या लगता है ? नेशनल म्यूजियम तो खैर है ही लेकिन इतने सारे म्यूजियम होंगें, मैनै सोचा भी न था। दूरदर्शन भवन के ठीक सामने म्यूजियम ऑफ म्यूजिकल इंस्ट्रूमेंटस है। नेशनल म्यूजियम ऑफ नेचुरल हिस्ट्री और चरखा म्यूजियम का जिक्र तो पहले ही कर चुका हुं। दूरदर्शन भवन के बगल में भगवान दास रोड पर बढ़ें तो फिर सुप्रीम कोर्ट म्यूजियम की तख्ती टंगी मिलेगी। अगर मंडी हाउस से पटेल चौक मेट्रो पर जाएं तो वहां मेट्रो म्यूजियम की सैर कर सकते हैं। यदि दूरदर्शन भवन के पास भगवान दास रोड पर न जाकर अगले कट पर आगे बढ़ जाए तो आईटीओ पर आपको शंकर डॉल्स म्यूजियम जा सकते हैं। पटेल चौक मेट्रो स्टेशन से कुछ ही दूरी पर फिलाटेली म्यूजियम की और इशारा करता ट्रेफिक वालों का बोर्ड नजर आएगा। सुप्रीम कोर्ट से थोड़ा आगे प्रगति मैदान के पास नेशनल हैंडीक्राफ्टस एंड हैंडलूम्स म्यूजियम है। वैसे दिल्ली में कितने म्यूजियम है इसकी सही-सही जानकारी चाहते है तो फिर आपको गूगल बाबा की शरण लेगी। नेशनल रेलवे म्यूजियम, नेहरू मेमोरियल म्यूजियम, गांधी स्मृति , इंडियन एयर फोर्स म्यूजियम, संस्कृति केंद्र टेराकोटा एंड मेटल म्यूजियम, पुराना किला म्यूजियम, नेशनल पुलिस म्यूजियम, नेशनल चिल्ड्रंस म्यूजियम, इंडिया वार मेमोरियल म्यूजियम, नेशनल एग्रीकल्चरल साइंस म्यूजियम, इलेक्शन म्यूजियम, गालिब म्यूजियम और भी न जाने कितने म्यूजियम है दिल्ली में । और हां दिल्ली में सुलभ इंटरनेशनल म्यूजियम ऑफ ट्वायलेट्स भी है।

शनिवार, 20 मई 2017

घूमते रहो ...

स्लिप डिस्क की गिरफ्त से कमोबेश निकलने के बाद दिल्ली से बाहर की यात्रा का यह पहला अनुभव था । हर अनुभव व्यक्तित्व को समृद्ध ही करता है। स्लिप डिस्क से दो महीनो तक लगातार जूझना भी काफी कुछ सिखा गया । शरीर भले ही बिस्तर पर पड़ा रहता हो लेकिन मन को तो नही बांधा जा सकता । मन की उड़ान पर कौन सी बंदिश लग पाती है। दरअसल हम हर क्षण हर पल किसी यात्रा पर ही होते है ।

    हम एक साथ न जाने कितनी यात्राओं को खुद में समेटे हैं- ज्ञात-अज्ञात । हमारी जिंदगी भी असंख्य समांतर और आरी-तिरछी प्रवाहित यात्राओं में से एक है या कहें तो यात्राओं का समुच्चय है, गुच्छा है । यात्रा अनगढ़ को गढ़ने की, तराशने की प्रक्रिया है । हरिद्वार के पास गंगा की कई धाराएं है, जिनमें कुछ के तल सूखे है ,भांति-भाति के आकार-प्रकार के छोटे-छोटे गोलाकार चिकने पत्थरों से पटे हुए। इन पत्थरों के चिकनेपन और आकार-प्रकार के साथ इनकी यात्रा भी चिपकी हुई है । अनगढ़, रुखे पत्थरों ने गंगा की लहरों के साथ एक लंबी यात्रा की यात्रा के बाद हरिद्वार में सुस्ताने के क्रम में गंगा में अपनी परछाई देखी होगी तो उन्हें भी अपने बदले कलेवर पर अचंभा हुआ होगा।

   यात्रा के दौरान जीवन के विभिन्न और नए-नए आयामों से हम परिचित होते हैं। नदियों की गति, पहाड़ की ऊंचाई, समंदर की गहराई , धूप की तपिश, जंगलों की नरमाई सब यात्रा के विभिन्न पड़ावों पर हमसे दो-चार होते हैं और हमें नए अनुभवों से लबालब कर जाते हैं। जीवन को अनन्त यात्रा ही कहा गया है...  और मनुष्य का इतिहास यात्राओं का इतिहास ही तो है । बचपन से लेकर मृत्यु तक हम यात्रा ही तो करते हैं,  पुत्र से पति और फिर पिता में तब्दील हो जाते हैं। यात्रा की इस अनवरत प्रक्रिया में हमेशा कुछ ग्रहण करते हैं और कुछ त्यागते हैं, और यही जोड़-घटाव ही तो जीवन है।

   दिल्ली से हरिद्वार रिषिकेश के लिए निकल रहा था तो आइटीनरी में कुछ चीजें पहले से तय थी- मसलन हर की पौड़ी पर की आरती का अनुभव करना, चोटीवाले के यहां खाना खाना, राम झूला-लक्ष्मण झूला पर चहलकदमी करना। हरिद्वार पहुंचते-पहुंचते लगभग दिन का एक बज गया। प्लान बना कि चलो सीधे रिषिकेश चोटीवाले के यहां ही चला जाय। सालों पहले गया था और अनुभव ठीक-ठाक ही था। लेकिन इस बार चोटीवाले ने दिल पर चोट कर दिया । खाना औसत से भी खराब और पैसा कहीं से भी कम नही ।मन मार कर और खाने को पेट में झोंक कर बाहर निकले। बस संतोष इस बात का था कि बाहर बैठे चोटीवाले के साथ दो-तीन सेल्फी ले ली। कितना मन बनाकर गया था लेकिन मन मसोस कर बाहर निकलना पड़ा।

   चोटीवाला के यहां से  बाहर निकलकर घाट के किनारे लग गया। मां गंगा अपनी पूरी रफ्तार पर थी। धूप ठीक-ठाक थी लेकिन पानी में ठंडक थी। हम भी पैर लटकाकर इस ठंडक को बटोरने में जुट गए, जब तक कि धूप ने हमें उठने को विवश न कर दिया। कुछ देर तक लोगों को मोटरबोट के जरिए इधर से उधर जाते देखता रहा। कभी-कभी निगाह दूर राफ्टिंग करते लोगों पर चली जाती । फिर मन में पिछली बार की राफ्टिंग की सुनहरी यादें खुद-ब-खुद तैरने लगी । अभी-अभी तो स्लिप डिस्क को मैने बाय-बाय ही किया था ऐसे में राफ्टिंग के बारे में सोचना भी गुनाह से कम न था।

    घाट से उठकर हम राम झूला की तरफ चल गए। लोहे की रस्सियों से तना यह पुल रह-रह कर हिलने लगता , लेकिन डरने जैसी कोई बात नही। दूर लोगों का एक झुंड किस विदेशी जोड़े को पकड़ कर उसके साथ फोटो खिंचवाने में जुटा थ। प्लीज फोटो... वन फोटो। चेहरे की चमक इतनी मानो फोटो खिंचवाने की बजाय कोई मेडल मिलने वाला हो। पता नही हम भारतीयों की यह आदत कब सुधरेगी । रिषिकेश में अभी भी वो सीमेंट की बेंचें दिखी जिसपर लिखा होता है कि कि फलां ने फलां की स्मृति में इसका निर्माण किया। पिछली बार भी इसे नोटिस किया था। अब के समय मे इस तरह का दान-पुण्य होता है क्या ?  
    
   रिषिकेश के बाद सीधे होटल और फिर फ्रेश होकर सीधे गंगा किनारे। रास्ते में बारिश होने लगी और माहौल थोड़ा खुशगवार हो गया। हर की पौड़ी के नजदीक ही एक भवन पर लिखा देखा –बाबरी भवन। इसके पीछे की कहानी जानने की जिज्ञासा तो हुई लेकिन आरती छूट जाने के डर से वहां ठिठक ही पाया, रुक नही पाया। जिज्ञासा को पीछे झटककर आगे बढ़ना पड़ा।  (क्रमश:)

मंगलवार, 9 मई 2017

"दुनिया में कितना गम है, मेरा गम कितना कम है ..."

दो महीने पहले स्लिप डिस्क की चपेट में आ गया। फिर क्या था ... न उठ पा रहा था, न बैठ पा रहा था। लग रहा था कमर पे छिली हुई नुकीली हड्डी लगातार चुभ रही हो। आना-जाना तो दूर चार कदम भी चार कोस से कम नही था मेरे लिए । इन्ही दिनों विमहांस जाना हुआ। डॉक्टर को दिखाकर हॉस्पीटल के लॉन में खून और एक्स-रे की रिपोर्ट का इंतजार कर रहा था। वहां तमाम तरह के मरीज अपनी किस्म-किस्म की बीमारियों और समस्याओं के साथ मौजूद थे। कुछ ठंड के आखिरी दिनों में ताजा-ताजा धूप खाने में लगे थे तो कुछ एक्सरसाइज जैसा कुछ कर रहे थे। पेनकिलर खाने के बावजूद दर्द की तरंगें रह-रहकर मुझे डांवाडोल भी कर जाती थी। लेकिन इसी बीच मेरी नजर करीब तेईस-चौबीस साल के लड़के पर चली गयी। उसका पूरा का पूरा एक टांग गायब था। शक्ल-सूरत और पहनावे से वो अफगानिस्तान या फिर किसी और देश का ही मालूम हो रहा था। शायद किसी विस्फोट की जद में आ गया था या फिर किसी दुर्घटना का शिकार हो गया हो। उसके दो-तीन रिश्तेदार या परिचित कुछ-कुछ देर में उसे कृत्रिम पैर के जरिए चलने में मदद करते। मेरा ध्यान रह-रहकर उसके चेहरे पर चला जाता। मेरा खुद का दर्द कुछ समय के लिए मानो गायब सा हो गया और यह सोच-सोच कर ही मैं सिहर जाता कि उसके दिमाग में क्या-क्या चल रहा होगा, उस पर क्या बीत रही होगी । कई लोगों को उसके परिचितों से बात करते भी देखा, लोग-बाग उससे अपनी सहानुभूति भी प्रकट कर रहे थे खासकर महिलाएं। मेरी किसी से कुछ पूछने की हिम्मत नही हुई। सालों पहले किसी किताब के शुरु के पन्ने पर 'गांधी जी का जंतर' शीर्षक वाली एक छोटी सी टिप्पणी पढ़ी थी, अचानक से उसकी याद आ गयी।... वैसे स्लिप डिस्क का अच्छा-खासा असर अब भी है, लेकिन वो अभी उतार पर है। शायद दो-तीन हफ्तों में चलने-फिरने लायक हो सकूं।

“किताबें करती हैं बातें...”

डीडी भारती पर एक कार्यक्रम आता था –किताबनामा। जिसमें किताबों और लेखकों की बातें होती। मुझे जो सबसे अच्छी चीज लगी वो थी उसका टाइटल-ट्रैक। जिसकी एक खुबसूरत पंक्ति थी- किताबें करती हैं बातें। सफदर हाशमी की लिखी ये लाइन जब भी कानों में घुलती, मन सच में काफी प्रसन्न हो उठता। किताबों से की गयी खुद की बातें जेहन में कौंधने लगती।

   जब भी कोई पाठक किसी कहानी, उपन्यास , कविता को डूबकर पढ़ता है तो एक तरीके से वो उस किताब को कुछ समय के लिए जीने लगता है। उसके पात्रों से संवाद करता है, खुद को उन पात्रों के रुप में कल्पना करने लगता है। कहानी में पात्रों की गति-दुर्गति के अनुरुप हंसने-रोने लगता है। उनकी किंकर्तव्यविमूढ़ता पर क्रोधित होता है । रोमांटिक उपन्यास हो तो पाठक प्रेम में डूबा नायक बनकर डूबता-उतरता है और आजादी के आंदोलन की पृष्ठभूमि हो तो उसकी भुजाएं फड़कने लगती है। कभी-कभार ऐसा भी होता है कि कहानी-उपन्यास तो वह कब का पढ़ चुका होता है लेकिन उससे निकलने में उसे एक अरसा लग जाता है। ऐसा भी नही ह सब कुछ कल्पना के स्तर पर ही होता है, उसका कुछ रिस-रिस कर हमारे व्यक्तित्व की परतों में भी समाहित होता जाता है।  हम अक्सर सफल व्यक्तियों के लेख पढ़ते हैं जिसमें वो जिक्र करते हैं कि किस तरह से कुछ किताबों ने उनकी जिंदगी पर गहरा असर डाला।

    किताबों का चस्का मुझे शुरु से रहा। चस्का कब और कैसे लग गया, मालूम नही। जरुरी नही कि हर चीज समझ में आए ही फिर भी कोई नयी किताब दिखने पर हाथ में ले ही लेता हूं। पहली किताब जो हाथ में आयी वो शायद मनोहरपोथी ही होगी। जहां तक याद हैं उसमें वर्णमाला का बोध कराने वाले शब्द थे, चित्र के साथ। बचपन में अक्सर नई किताबें कम ही हाथ में आती। बच्चें जब अपने से बड़ी वाली क्लास में जाते तो पुराने क्लास की किताबों को अधिया यानि कि अंकित मूल्य से आधे पर उन बच्चों को बेच देते जो कि उस क्लास में प्रवेश करते। पैसा तब अफारात में नही था इसलिए अभिभावक भी अधिया या तिहाई में ही बच्चों के लिए किताब खरीदने की कोशिश करते। नई किताबें तब ही खरीदी जाती जब पुरानी किताबें उपलब्ध नही होती, जिसके मौके कम ही आते थे। एक बार हुआ ऐसा कि पुरानी किताब के शुरु के कुछ पन्नें गायब थे। पापा ने फिर किसी और बच्चे के किताब से उन अध्यायों को सफेद पन्नों पर लिखा और उन पन्नों को पुरानी किताब के बाकी बचे पन्नों के साथ सील दिया।

    कोर्स की किताबों और कॉमिक्स के अलावा किताबों के नाम पर हमारा एक रुपए वाली क्वीज की किताबों से ही पाला पड़ा था। अक्सर बस या मिनी बस में जाते हुए या मेले-ठेले में यह किताब अवतरित होता। इस क्वीज बुक के सवाल भी अजीबोगरीब होते, मसलन- किस मछली के शरीर से करंट निकलता है, किस मछली के दो ह्रदय होते हैं, कौन सा पेड़ रात में चलता है टाइप। किताब बेचने वाला भीषण गर्मी में तरबतर इन इन सवालों की ऐसी मुनादी करता मानो कि अफ्रीका के रेगिस्तान से लेकर प्रशांत महासागर की लहरों के बीच से होकर अभी-अभी टाटा407 में अवतरित हुआ हो।

   एक बार हमारे मोहल्ले के बच्चों को बुक बाइंडिंग का शौक लगा। बुक बाइंडिंग एक तरीके से मोहल्ले में सक्रांमकता की हद तक फैल गया। कोई भी किताब दिखती हम उसे बाइडिंग की कैंद में जकड़ने को व्याकुल हो उठते। कपड़े की दुकान से कूट लेकर आते और फिर आटे से लेई बनाते। बड़ी सुई के सहारे किताब और कूट में स्ट्रेटेजिक प्वाइंट पर छेद किया जाता और मजबूत धागों को उनसे गुजारा जाता। फिर किताब की तीन तरफ से कटिंग , लेई और खास कपड़े से उसकी बाइंडिंग की जाती । किताबों से जुड़ी इतनी सारी यादें और बातें हैं कि उनके जिक्र की देर भर होती है कि यादें भरभराकर आंखों के सामने जमा होने लगती हैं। (क्रमश: )
   

गुरुवार, 4 मई 2017

“लिखते-लिखते लव हो जाय...”

मुझे लिखना पसंद है... कलम से लिखना । मैं तब भी लिखता रहता हूं, जब लिखने की कोई जरुरत नही होती, कोई मतलब नही होता ...और कुछ नही तो अखबारी किनारे के खाली जगहों पर कुछ भी लिखता रहता हूं ,जिसका कोई औचित्य नही होता। अब तो वैसे भी कलम से लिखने का कोई ज्यादा स्कोप नही बचता। दफ्तरों में आजकल साइन और नोटिंग करने के अलावा अधिकांश काम-काज कंप्यूटर पर ही हो जाता है। हालांकि ऐसा नही है कि बाजार से कलम गायब हो गए हैं। स्टेशनरी की दुकानों पर दर्जनों ब्रांड और टाइप के कलम सजे जरुर मिलते हैं और खूब बिकते भी हैं। लेकिन लोगों को लिखने की आदत और जरुरत को कम होते देखकर मैं अक्सर सोचता हूं कि कलम के भीतर की इतनी सारी स्याही कहां खर्च होती होगी। मुझे तो अक्सर लगता है कि लोग ऊब कर दूसरी नयी कलम खरीद लेते होंगें या फिर रखे-रखे कलम का इंक जम जाता होगा या फिर आदतन वो इंक शर्ट या पैंट की जेबों में बह जाते होगें।

    पहली कलम कौन सी मेरे हाथों में आई यह तो याद नही लेकिन पहले चॉक वाली पेंसिल और फिर कठपेंसिल के जरिए हमने लिखना सीखा, यह जरुर याद है। शुरु में इस्तेमाल किए जाने गए पेनों यानि कलम के जो पहले ब्रांड की मुझे याद आती हैं- वह है ओपल के पेन। दूसरे साधारण से दिखने वाले पेनों की जगह ओपल के पेन खुबसूरत लगते। ज्यादातर हरे या कत्थई रंग के । अभी के उलट उस समय कोई भी लीड या रिफील किसी और पेन में लग जाती। यदि रिफील के लिए ज्यादा पैसे नही होते तो डेम्पों और लोकल ब्रांड की रिफील, नही तो आपको शानदार अनुभव चाहिए तो फिर लिंक 1500 । डेम्पो के साथ खासियत यह थी कि वो बीच-बीच में सुस्ताने लगती फिर उसे दोनों हथेलियों के बीच रखकर रगड़ना पड़ता जबकि लिंक 1500 पन्नों पर सरपट भागती रहती। डेम्पो बेचारा सस्ते में यानि पचास पैसे में और लिंक 1500 एक या सवा रुपए का होता। फिर एक बार लिखो-फेंको कलम भी खूब ट्रेंड में आया।... और टीप-टपुआ पेन को कौन भूल सकता है भला । टीप-टपुआ पेन भी दो प्रजाति के थे। एक जो केवल लिखने के लिए इस्तेमाल में आते थे और एक वो जो लिखने के साथ-साथ खाली समय में हम बच्चों के हथियार में तब्दील हो जाते। टीपने यानि उनके ऊपर वाले सिरे को दबाने के बाद उनमें ऊपर के सिरे पर ही खाली जगह बन जाती और फिर बच्चे उसमें कागज ठूंस देते। फिर क्या था पेन वाली स्वीच दबाने के साथ ही कागज में संचित स्थैतिज उर्जा गतिज उर्जा में परिवर्तित हो जाती और फिर यह गतिज उर्जा विपक्षी खेमे पर जमकर आघात करती।

   हालांकि इंक वाले पेन भी थे, जिसकी नीब अक्सर असावधानी की वजह से खराब हो जाती। पहले सुलेखा ब्रांड के इंक और फिर चेलपार्क के इंक से हम इंकड्रॉप के सहारे कलम के पेट मे उसकी खुराक डालते। समस्या तब आती जब इंक के पेन चलने से इंकार करने लगते और हम उसे झटककर उसे चलते रहने को मजबूर करते। पेन तो चलना फिर से शुरु कर देती लेकिन अक्सर खुद के शर्ट-पैंट खराब हो जाते तो कभी साथियों के शर्ट-पैंट उसकी जद में आ जाते।

   फिर अचानक से एक झोंका ऐसा आया कि डेम्पो, ओपल, लिखो-फेंको, सुलेखा, चेलपार्क सब उसकी चपेट में आ गए। रिनॉल्डस, लिखते-लिखते लव हो जाय वाला रोटोमेक, मोनटेक्स , मित्सुबिशी, खुशबू वाला टुडे दर्जनों ब्रांड और टाइप-टाइप के हमें देखने को मिलने लगे। हर कलम की अपनी खूबी थी। मसलन मित्सुबुसी पेन के पेट के आखिरी सिरे पर रुई जैसा कुछ ठूंसा हुआ होता, रोटोमेक का पेन चलते-चलते उल्टी करना शुरु कर देता, टूडे के पेन काफी कलरफुल होते। हालांकि बताता चलूं कि हमारे सीएच स्कूल में जहां से मैनें मैट्रिक की, वहां के बेंचों में लोहे की छोटी टोपियां लगी हुई थी, जिसमें किसी जमाने में विद्यार्थी इंक रखकर सरकंडे की कलम से लिखा करते होंगें। लड्डू बाबू हमारे हिंदी के टीचर थे। हम भी अच्छी हैंडराइटिंग के लिए उन टोपियों में इंक डालकर सरकंडे की कलम कम से कम एक पन्ना सुलेख लिखते और लड्डू बाबू को दिखाते।

  वैसे स्कूल के दौरान हमारे क्लास में बच्चों की अपनी-अपनी पसंद थी और वो अपनी-अपनी पसंद से डिगने को कतई तैयार नही थे। हमारे क्लास में कुछ रिनॉल्डस के खेमे में थे तो कुछ रोटोमेक के खेमे में तो कुछ अभी भी पुरानी डेम्पो-ओपल वाली परंपरा के वाहक थे ।कोई भी अपनी पसंदीदा पेन की बुराई सुनने को तैयार नही होता और सुनना ही पड़ता तो चट से बोल पड़ता कि अब तो इस पर हाथ बैठ गया है। मैं अपनी बात करूं तो शुरुआत में मैंने मोनटेक्स के कलम का आसरा लिया फिर रिनॉल्डस के 045 का और फिर मैट्रिक-इंटर-ग्रैजुएशन तक 045 और रिनॉल्डस जेटर के आस-पास ही चक्कर काटता रहा। हालांकि शायद ग्रैजुएशन तक सैलो प्वॉयनटेक का आगमन हो चुका था, जिसकी कुछ सालों तक मुझे लत लग गयी। फिर काफी दिनों तक सैलो ग्रीपर का इस्तेमाल किया। वैसे अभी की बात की जाय तो ज्यादातर पायलट हाइ-टेक प्वाइंट ,रिनॉल्डस ट्राइमेक्स और रिनॉल्डस 045 के बीच झूलता रहता हूं।