शनिवार, 30 जून 2012

उठापटक

भाईसाहब मन कुलबुला रहा है... जैसे, जब पानी को प्यूरीफाई करने के लिए ब्यॉल किया जाता है न, वैसे ही... पानी खदबद करता रहता है , बुलबुला बनता-फूटता है , बर्तन की तलहटी पर कुछ ठोस जैसा जमा होता है... वैसा ही कुछ मन में भी खदबद हो रहा है। 

मैं जानता हूं कि सच वो नही जो अक्सर मैं मान बैठता हूं , लेकिन बात ऐसी है कि मन और मस्तिष्क के बीच की उठापटक में मन हमेशा बीस ही पड़ता दिखता है । ... 
आजकल सुबह और दोपहर के बीच का फासला कुछ कम सा हो गया है, दोपहर सर पर चढ़ा सा रहता है... बिल्कुल जिंदगी के माफिक... 
दिन और रात दिमाग के भी फेर होते हैं... कभी `शोर` सुकून भी देता है... सब हेरा-फेरी है... 

अक्सर तारों को उलझा हुआ पाकर आश्चर्य होता है- अरे अभी अभी तो ठीक ठाक था, रखे-रखे कैसे उलझ गया। दिमाग के तार भी कुछ ऐसे ही उलझ पड़े हैं। 
घूम-फिर के फिर वहीं आ पहुंचता हूं, जहां से आगे जाने को निकलता हूं... हां इतना तो है कि केंद्र भले ही पिछला वाला रहा हो, परिधि हर अगली बार बड़ी हुई है... 

पता नही क्यूं 
लेकिन अक्सर ऐसा होता है
जब भी
चालें बदलता हूं
पासे पटकता हूं
तब खेल दूसरा शुरु हो जाता हैं
कुछ दूसरा ही ... 

दिल और दिमाग में सौतिया डाह होता है, हमेशा बेवजह लड़ते-झगड़ते रहते है... और लगातार आपसी मार-कुटाई के बावजूद भी अक्सर किसी कन्क्लूजन पर पहुंचते नही दिखते... गजब की इनर्जी है भाई इन दोनों की... आदमी भले ही थक जाए ये नही थकते... नींद और सपने की प्राचीर और परकोटे को भी भेद ही डालते हैं... 
जागती आंखों से हम अक्सर सपना देखते हैं और ये सपनें हमें सोने नही देते... और नींद में हम इन सपनों के एक्सटेंशन में जीते है, उसके विस्तार में... तमाम लाव-लश्कर, भव्यता के साथ और कल्पना की उड़ान भड़ते हुए सपने, विस्तारित सपनें... दुनियावी सीमाएं जहां सपनों की सीमा नही तय करती और संभव-असंभव, सच-झूठ जिसकी परिधि से परे होते हैं... सपनें वास्तविकता की कठोरता को नम करते है और इससे पार पाने की उर्जा देते हैं और फिर नयी वास्तविकता जन्म लेती है और नए सपने भी... 

जब आप अंधेरे भरे अंतहीन से लगने वाले सफर में चाहे-अनचाहे यात्री होते हैं तो पाते हैं कि अंधकार के नख-दंत भी धीरे-धीरे भोथरे हो जाते हैं... उसकी मारक-दाहक क्षमता भी उतनी कंटीली नही रह पाती... गहन अंधकार में हम पहले अपने अगल-बगल की चीजों को टटोलते हैं , अनुमान लगाते है , अपने सुभीते को तलाशते है... सेफ प्लेस ढूंढ़ते है... आहट, पदचाप और तमाम ध्वनियों को लेकर भी हमारी समझ का विस्तार होता है... फिर अंधकार की अदृश्यता भी उतनी नही रहती, चुभन कम हो जाती है... सच में न तो सुख और न ही दुख दोनों ही कभी संपूर्ण और स्थिर होते हैं या रह पाते हैं । 

कभी कभी शून्य आप पर हावी होने लगता है और चुनौती उसे तोड़ने और बदलने की होती है... 
कई बार सिरे से शुरुआत की जरुरत होती है... 

सीढ़ी पर फिसलकर सिर के बल गिर गया, बावजूद इसके कि चोट अच्छी-खासी आई दोस्तों ने कहा चलो इसी बहाने शायद दिमाग `ठिकाने` पर आ जाए... नई मुख-मुद्रा में आशा आश्चर्यभाव जगा रही थी और तर्कों से परे थोड़ी-बहुत उम्मीद भी पैदा कर रही थी... 

(29Apr2012)

गुरुवार, 28 जून 2012

अनडेमोक्रेटिक फेसबुक

जब भी फेसबुक पर पोस्ट की गयी किसी तस्वीर,कमेंट या किसी भी सामग्री पर `लाइक` का आप्शन देखता हूं, तो फेसबुक भी अनडेमोक्रेटिक सा लगता है।ये `लाइक` वाला आप्शन नन-आप्शन सा मालूम होता है, अग्रेजी में एक टर्म है- होब्संस च्वाइस, बिल्कुल वैसा ही। फेसबुक से तो अपील यही है कि वो अनलाइक का भी आप्शन दे, डेमोक्रेटिक प्रोसेस में सहमति की चापलूसी औऱ ठकुरसुहाती ,और बहुमत की शांति के बीच असहमति की जगह भी बनी रहनी चाहिए। 

मेरे ख्याल से यदि फेसबुक अनलाइक का ऑप्शन देता, तो कुछ लाइक वाले दूसरे पाले में देखने को मिलते... ऐसे लोगों के साथ पूरी पूरी सहानुभूति है जो फेसबुक की इस संरचनात्मक खामी की वजह से अनलाइक की जगह किसी पोस्ट को लाइक करने को मजबूर होते है... लाइक कई फेसबुकियों के लिए मजबूरी सरीखा है ,या कहें तो उनकी उंगलिया लाइक के बटन को रेसिस्ट ही नही कर पाती और ऐसा स्वाभाविक भी है, आखिर दैनदिनी की थकान , एकरसता के बीच लाइक का बटन दबाना लोगों को गतिवान, उर्जावान होने का अहसास जो कराता है... 

(10Dec2011)

बुधवार, 27 जून 2012

लोकपाल पर कुश्ती

लोकपाल पर संसदीय ड्रामे में कांग्रेसियों की लचर कोरियोग्राफी से इतना तो साफ है कि उसे `सियासी फराह-सरोज खानों` की सख्त जरुरत है... अंतिम घंटे में बचे-खुचे इंप्रेशन की वाट लग गयी... अव्यवस्था की आउटसोर्सिंग राजद-राजनीति को सुपुर्द कर दी गयी थी, जिनके बिल फाड़ने के अंदाज में तल्खी कम नाटकीयता ज्यादा थी , वहीं टकटकी लगाकर पिछले तीन दिनों से टीवी स्क्रीन पर नजरें जमायी जनता को नारायणसामी की चिल्ल-पौ , पवन बंसल की धारहीन और सभापति की अटकती आवाज और अंदाज के सुपुर्द कर दिया गया था। 

इतने हो-हंगामे और सियासी घमासान के बावजूद यदि लोकपाल अधर में ही लटकी रहेगी तो निश्चित रुप से आने वाला समय आंदोलनों के स्वास्थ्य के लिहाज से ठीक नही होगा... अपने-अपने में सिमटते-सिकुड़ते व्यक्ति और समाज के बीच से अंकुरित ये आंदोलन किसी आश्चर्य से कम नही था... भले ही सप्ताहंत हो या फिर दिन में कुछ चंद घंटे , इंडिया गेट न सही मोहल्ले का चौराहा ही सही , अच्छी खासी तादाद में लोगों ने नितांत नीजि से उपर भी कुछ सोचा-किया, नई पीढ़ी भी अपने कुएं से बाहर ताक-झांक करती दिखी ... इसमें कोई शक नही कि `लोकतंत्र` लोकपाल का भविष्य तय करेगी, लेकिन इसमें भी कोई दो राय नही कि लोकपाल के भविष्य से इस बात को टटोला जा सकेगा कि भारतीय लोकतंत्र का असली चेहरा क्या है ? ... 

सीपीसीबी और दूसरी सक्षम एजेसिंयों को इस बात की जांच करनी चाहिए कि राज्यसभा में `शोर ` कितने डेसीबेल तक पहुंच गया था , जिसकी बुनियाद पर सभापति ने सदन अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दी। अतीत से आंकड़े इकट्ठे करने की जरुरत है कि शोर के इस स्तर पर सदन अतीत में कितनी बार स्थगित किया गया है,.... और वो भी लोकपाल जैसे अहम कानून पर । लगता है शोर हामिद अंसारी साहब के दिलो-दिमाग में ज्यादा था और उनके लगातार अटकने से लगभग साफ ही था कि सियासी कुहासे के बीच रायसीना हिल का रास्ता ढ़ूंढ़ा जा रहा था। 

(30Dec2011)

सोमवार, 25 जून 2012

अब हंसी भी नही आती

अब हंसी भी नही आती
और गुस्सा भी
हंसी और गुस्सा
दोनों चूकने लगे है
और शायद
अब इनके होने का
कुछ मतलब भी नही
कामनवेल्थ खेलों के नाम पर
मची लूट
और
लूटने की खुली छूट
और फिर 
अजब-गजब सियासत
केवल गुस्सा
अब नपुंसकता है
और कुछ भी नही
कभी कभी लगता है
डेमोक्रेसी नपुसंक बनाने की कोशिश है
एक सफल कोशिश 

(04Aug2010)

और मैं दुखी हूं...

दुख तब नही होता
जब कोई वजह होती है
आजकल हालत ऐसी है कि
दुखी होता हूं
क्योंकि कोई वजह नही होती...

कोई वजह होती
तो उनसे लड़ता
बोरियत तो मिटती
दिमाग काम कर रहा होता
लड़ने के तरीकों पर दिमाग में
विमर्श चल रहा होता

लेकिन
अभी
सन्नाटा पसरा है
दिमाग के धरातल पर
मानो सूखा पड़ा हो
और इस पर दरारें पड़ गयी हो
उग आयीं हों
और मैं दुखी हूं...

(22AUg2010)

अजीब `मौसम` है ये

अजीब `मौसम` है ये , बिखरा-बिखरा बिगड़ा-बिगड़ा सा...

मौसम किसी का भी मूड बिगाड़ने की काबिलियत खुद में समेटे है। कॉमेडी , ट्रेजेडी, रोमांस का ये दमघोंटू कॉकटेल पंजाब के मल्लूकोट, कश्मीर , अहमदाबाद, स्कॉटलैंड और स्विटजरलैंड के बीच दर्शकों को चकरघिन्नी के माफिक नचाती है।पंकज कपूर की इस चिरप्रतिक्षित फिल्म से लोगों को किसी भी मौसम और मूड में निराशा ही हाथ लगेगी, अभिनय के महारथी पंकज कपूर फिल्म निर्देशन के अखाड़े में पस्त हो गए। पंजाब और कश्मीर से शुरु हुआ फिल्म का सफर अहमदाबाद जाकर ही खत्म हुआ । शाहिद और सोनम के गंगा-जमुनी प्यार की गाड़ी जब भी रफ्तार पकड़ती , जहरीला जमाना अयोध्या , बंबई, कारगिल , 9/11 की शक्ल में प्यार के इन पंछियों को मानो साजिशन विपरीत दिशा में उड़ने को मजबूर कर देता... खैर मासूम रज्जो के अनवरत प्रेम ने भी कुछ कम नुकसान नही पहुंचाया । अन्त तक आते आते दर्शकों का दिल घबड़ाने लगा कि शाहिद-सोनम के अटूट प्यार को दिल्ली हाइकोर्ट की नजर न लग जाए... पंकज कपूर को धन्यवाद कि आशंका आशंका ही रही और शाहिद-सोनम के प्यार को दिल्ली की नजर नही लगी।हकीकत फिल्म के एक मशहूर गाने की लाइन है- कहीं ये वो तो नही , लेकिन दर्शकों के सामने दूर-दूर तक ऐसा कोई कंफ्यूजन नही। दर्शक पंकज कपूर से काफी कुछ ज्यादा की उम्मीद लगाए थे, और खासकर तब जबकि मुख्य किरदार के चोले में खुद उनके सुपुत्र हों ।

पोस्ट स्क्रिप्ट-- कुछ घोर टाइप के दर्शक गौरी, गजनबी, मुगल और सन सैंतालीस की कमी महसूस करते दिखे और सुनाई भी दिए 

(24Sep2011)

बिखराव, पलायन और छठ...

बचपन में अभिकेंद्री और अपकेंद्री बल (सेंट्रीपीटल और सेंट्रीफ्यूगल फोर्स) के बारे में पढ़ा था , शायद क्लास छह में ... केंद्र की तरफ और विपरीत दिशा में गति को पारिभाषित करते ये शब्द महज भौतिकी विषय के कुछ नियम-कायदों को ही नही व्यक्त करते, हमारी जिंदगी को भी काफी कुछ डिफाइन करते हैं... अपनी-अपनी जड़ों से दूर होती जिंदगी या फिर कठोर शब्दों में कहें तो मौजूदा जड़विहिन से समय और काल में अपकेंद्री बल को ही ज्यादा प्रभावी होते हुए देखा-पाया है... विभिन्न रुपों में अपनी जमीन और संस्कृति हमसे दूर हुई है और फासला बढ़ता ही दिखा है, महसूस किया है...बिखराव, पलायन, विस्थापन के मौजूदा समय में छठ का त्योहार अभिकेंद्री बल सरीखा है, अपनी जमीन और संस्कृति की तरफ खींचती हैं, अपनों के बीच लाती है ,अपनों से जोड़ती है... और हां प्रकृति से भी... नितांत व्यक्तिगत होते समय में जबकि संयुक्त परिवार जैसी चीजें अतीत और समाजशास्त्र की किताबों तक सिमटती दिख रही है, छठ परिवार और समाज के लिए फेविकोल या फिर क्विकफिक्स से कम नही...

(02Nov2011)

डाक-टिकट और पोस्टकार्ड

सालों बाद आज डाक-टिकटों से आमना-सामना हुआ, फिलाटेली एक्जीबिशन कवर करने गया था। लगा फिर से अपने मोहल्ले के उस पोस्ट-ऑफिस पहुंच गया हूं, जहां सालों पहले डाक-टिकट, पोस्टकार्ड, लिफाफा और अंतर्देशीय पत्र खरीदने जाता था। लाख मशक्कत की , समय को रिवाइंड मोड में डाला, स्मृति विलोप सा हो गया, याद ही नही आया कि अंतिम बार डाक-टिकट लिफाफे पर कब चिपकाया था । खैर उन दिनों सुरभि पर पूछे सवाल का जवाब हर हफ्ते भेजना अनिवार्य सा था। पहले पंद्रह पैसे का पोस्ट कार्ड खरीदा, फिर पच्चीस पैसे का और फिर मंहगे प्रतियोगिता पोस्टकार्ड । पचहत्तर पैसे का अंतर्देशीय पत्र मिलता था जो अब तो लुप्त सा ही हो गया है ।जिन लोगों को पोस्टकार्ड के खुलेपन से परहेज था, अंतर्देशीय खरीदते।लिफाफें भी अक्सर इस्तेमाल में आते, मैगी का लोगो कतर कर कंपनी के पते पर भेजते, कंपनी वालों के किसी छोटे-मोटे खिलौने के ऑफर के चक्कर में। ... और हां बैरन या बैरंग जो भी हो उसके आने पर लोगों को काफी कोफ्त होती, भेजने वाले की कंजूसी की लानत-मलामत करते दुगुना पैसा देकर उसे छुड़ाया जाता।... तकनीक संवाद के तरीके बदल रही है और ये डाक-टिकटें भी बचपन की मधुर स्मृति का हिस्सा बनकर रह गयी हैं। 

सुरभि की याद मानो बचपन को अतीत से ढ़केलकर आंखों के सामने खड़ी कर देती है... कार्यक्रम के अंत में अनाउंस किए जाने वाले टूर पैकेज और गिफ्ट हैम्पर हमेशा लुभाते रहे... आंखें अंत तक पोस्टकार्ड के ढ़ेर और कान सिदार्थ काक और रेणुका शहाणे की मधुर आवाज पर टिकी होती, इस उम्मीद से कि शायद इस बार मेरा ही नंबर आ जाए ... हालांकि खुद के लकी बनने की हसरत अधूरी ही रही... 

(06Nov2011)

सत्यकाम

सालों पहले दूरदर्शन पर एक फिल्म देखी थी-सत्यकाम , धर्मेंद्र और संजीव कुमार अभिनीत। भ्रष्टाचार से संघर्षरत सत्यप्रिय आचार्य (धर्मेंद्र) कैंसर से जूझता मर जाता है। पूरी जिंदगी करप्शन से दो-दो हाथ करने वाला शख्स अपनी आखिरी घड़ी में फर्जी बिल पर अपने हस्ताक्षर कर दम तोड़ देता है। दृश्य मार्मिक है, रुला देना वाला। ये कहना कठिन सा है कि सत्यप्रिय आचार्य कैंसर से मरा या फिर करप्शन से। कैंसर अवेयरनेस डे पर एम्स का चक्कर लगाया तो फिल्म के आखिरी क्षणों के सत्यप्रिय आचार्य का चेहरा फिर से दिमाग में घूम गया । सालों तक लेख और भाषणों में कैंसर करप्शन के मेटाफर के तौर पर इस्तेमाल किया जाता रहा, हो सकता है कि इस मेटाफर के मूल में ऐसे ही दृश्यों को ख्याल में रखा गया हो। हालांकि समय के मुताबिक मेटाफर में भी तब्दीली आई और अब करप्शन एड्स सरीखा भी बताया जाने लगा है। दो चीजें हाल में देखने को मिली है, जहां कैंसर इन दिनों पड़ोस और परिवार के बीच बड़ी उपस्थिती दर्ज कराती दिखी है, वहीं करप्शन का मुद्दा भी बरास्ते जनपथ राजपथ पर हलचल मचाए हुए है। उम्मीद करनी चाहिए कि करप्शन और कैंसर दोनों को ही इनके खिलाफ चल रही लड़ाई में मात मिलेगी, ठीक उसी तरह जैसा कि सत्यप्रिय आचार्य के फर्जी दस्तावेज पर हस्ताक्षर और फिर मौत के बाद उसकी पत्नी अपने हाथों ही उस दस्तावेज को टुकड़े टुकड़े कर देती है। 

(7Nov2011)

मास और क्लास

कहते हैं दुनिया दो हिस्सों में बंटी है- मास और क्लास, कल्चर और टेस्ट के मामले में। जब अपने कस्बे में था तो वहां के चारों थिएटरों में मिथुन की या फिर जलती और चढ़ती जवानी टाइप फिल्में लगी रहती थी , दिल्ली आया तो पता लगा कि ये तो बी और सी-ग्रेड सिनेमा है। हालांकि श्याम बेनेगल, गोविंद निहलाणी के नाम से परिचय पहले भी था, लेकिन कुमार साहनी जब राजनीति और फिल्मों के घालमेल पर पढ़ाने आए तो न्यू वेव सिनेमा के नाम से भी परिचित हुआ। पता चला ये क्लास टाइप मामला है। उन्होंने एक अपुष्ट कहानी सुनायी कि कैसे मनमोहन देसाई ने उनकी फिल्म कुछ देर देखने या कहें झेलने के बाद टीवी के स्क्रीन पर अपना गुस्सा उतारा। तमाम लोगों से सुनने को मिला कि सलमान ज्यादा मास के और आमिर ज्यादा क्लास के करीब है। फिर कॉमर्शियल, ऑफबीट और आर्ट सिनेमा की शब्दावली से देर-सवेर परिचित होता रहा। क्लास और मास की छवि मेरे मन-मानस पर बहुत इन्हीं के जरिए अंकित हुई। वैसे राजनीति विज्ञान में सत्ता को मद्देनजर रखते हुए एक ऐसा ही वर्गीकरण है - इलीट और सब-अल्टर्न , बुर्जुआ और सर्वहारा। हालांकि मोटा-मोटी माना जा सकता है कि मास और क्लास के ये खांचें तथा इलीट और सब-अल्टर्न वाले खांचे काफी कुछ एक दूसरे को ओवरलैप करते हैं। रॉकस्टार फिल्म देखी तो दिलो-दिमाग पर एक कंफ्यूजन तारी हो गया। लगा फिल्म न मास के लिए हो सकी , न क्लास के लिए, हालांकि मास और क्लास दोनों के लिए टुकड़ो- टुकड़ों में काफी कुछ था। अच्छी लगी या अच्छी नही लगी के बीच मन झूलने लगा, मन में अजीब सी खिचड़ी पकने लगी, ठीक वैसी ही जैसी खिचड़ी इम्तियाज अली ने भूत, वर्तमान, भविष्य को मिलाकर पकायी है। कब कौन सा काल, समय उपस्थित हो जाए, अंदाज लगाना नामुमकिन हो जाता है। मास के क्लास में शामिल होने की जिद हो या क्लास के अपने दायरे से बाहर गंध फैलाने की दबी हुई कामना ..., जनार्दन के जिम हैरिसन बनने की हसरत और हीर के जलती जवानी देखने की ख्वाहिश मास और क्लास के खांचों के इंसानी बुनावट होने का एलान सा करती हुई दिखती है । मास और क्लास ने न जाने क्यों जेहन को जकड़ सा लिया, शायद इसलिए कि जमुनापार में फिल्म देख रहा था और जमुनापार की हंसी उड़ी थी फिल्म के एक दृश्य में। वैसे लगता है इम्तियाज अली अभी भी अपने कॉलेज के जमाने से निकल नही पाए हैं। न तो जमुना पहले जैसी रही और न जमुनापार। रॉकस्टार से जुड़ी कई रिपोर्ट और पोस्ट पढ़कर गया था, बहुत सारी उम्मीदें लिए। फिल्म उन बढ़ी हुई उम्मीदों पर खरा नही उतर पायी। हालांकि रणबीर जब भी जॉर्डन के चोले में दाखिल होते हैं, उनके दिलो-दिमाग के भीतर का शोर अपना सा ही लगने लगता है। अस्त-व्यस्त और बेतरतीब से रणबीर जब मंच पर गिटार बजाते हैं तो मानो दृश्य में जान फूंक देते हैं। ऐसे में माकूल गीत और संगीत दोनों ही खासा असर छोड़ती है ।
पोस्ट-स्क्रिप्ट— शादी से पहले हीर जब अपने गंध फैलाने के मिशन पर निकलती है तो सु-सु करते हुए लोगों को परेशान करने के साथ टिंग लिंग लिंग लिंग बजना शुरु हो जाता है और फिर कतिया करूं , कतिया करुं। मेरी भाषा उतनी समृद्ध नही है , लेकिन टिंग लिंग लिंग और सु-सु करते लोगों को तंग करने की फिट बैठती टाइमिंग से आखिर क्या अर्थ और भाव निकाला जाए ??? 

(13Nov2011)

उत्तरप्रदेश के चार राज्य

बचपन से ही सामान्य ज्ञान की किताबों को घोंटने में लगा रहा। कुछ पल्ले पड़ा और कुछ ने हमेशा ही अपना दामन हमसे झटक लिया। आविष्कार-आविष्कारक, स्मारक-निर्माता की लंबी सूची तोतारटंत संस्कृति के पदचिह्नों पर कंठस्थ करने में कोई कोर-कसर बाकी नही रखी और किसी भी दूसरे कस्बाई छात्र की तरह परंपरा का बखूबी निर्वहन करता रहा... लेकिन इन आविष्कारों ,निर्माणों के पीछे की कथा-कहानी का पाठ न के बराबर ही रहा,किया। कहने में कोई गुरेज नही कि अध्ययन सतही था और सतह को कुरेद कर- खुंरच कर न देखने की पूर्ववर्ती छात्रों-विद्यार्थियों की परंपरा को मासूमियत और पवित्रता से निबाहा। सफलता और सफल लोगों की लंबी सूची को रटने में कोई कोर-कसर बाकी नही रखी , आखिर हमें भी सफल जो होना था। खैर पर्दे के पीछे और सतह के नीचे की कथा-कहानियां समय के प्रवाह में अक्सर पीछे छूट जाती है, और सफल लोगों के सुभीते के लिहाज से मुड़ती-तुड़ती , बनती-बिगड़ती रहती है। सफलता के श्रीचरणों में सच्चाई यानि कहानी अपने संपूर्ण रुप में हमेशा ही ऑक्सीजन की कमी से जूझती रही है ,और इक्का-दुक्का ही समय,परंपरा,संघर्ष,परिस्थिति और इतिहास के दुर्गम-दुर्दांत पथ-परिस्थिति में ठठ पाती हैं। उत्तरप्रदेश के गरमाते राजनीतिक माहौल में मायावती के चार राज्यों के निर्माण के फैसले ने सालों से दिमाग में चल रही इस कशमकश को फिर से पृष्ठभूमि से सतह पर लाने का काम किया कि निर्माण, सफलता, नायकों-खलनायकों की पूरी कहानी आखिर इतिहास की किताबों में दर्ज क्यों नही हो पाती, आखिर इतिहास की किताबें ग्रहण का शिकार क्यूं हो जाती है। ये सोचने वाली बात है कि भविष्य में जब ये राज्य अस्तित्व में आएंगें तो कितने लोगों की याद्दाशत में सत्ता का स्वार्थ और वर्तमान परिस्थितियां याद आ पाएंगी। बात केवल मायावती और इन राज्यों के निर्माण की नही है, सफलता-असफलता के हर गली-मोहल्ले में कहानियों के कब्र मिलेंगें, उन कहानियों के जिनकी बलि इतिहास ने सफलता की ठकुरसुहाती में ले ली। समय के साथ स्मृति से ओझल हो चुकी इन कहानियों की कब्रगाहों पर डली मिट्टी न केवल हटाने की जरुरत हैं, बल्कि नायकों-खलनायकों, सफल-असफल लोगों के लिटमस टेस्ट किए जाने की जरुरत भी है। देवी-देवताओं, सुर-असुरों, परंपराओं-मान्यताओं को तर्क की कसौटी पर कसे जाने की जरुरत है, पुनर्पाठ पुनर्मूल्कांयन की जरुरत है। तकनीक और तर्क के इस युग में राम-रावण से लेकर वर्तमान जमाने के नायकों-खलनायकों को फिर से पढ़ा जाना चाहिए, और हां आंख मूंदकर श्रीगान से बचना चाहिए, परहेज करना चाहिए।.... 

(19Nov2011)

सजीले कुत्तों का निराला मामला

अगर सजीले कुत्तों को किसी शैक्षणिक संस्थान के स्टेटस में चार चांद लगाने की जिम्मेदारी दे दी जाए तो फिर कैसा लगेगा ???... हतप्रभ और हंसी दोनों से ही जूझने की नौबत आ जाएगी। इंटरनैशनल मूट कोर्ट कंपीटिशन के चक्कर में अमिटी के नोएडा कैंपस गया तो अमिटी के कई सुरक्षा-गार्डों को सजीले-भड़कीले कुत्तों के साथ चहलकदमी करते या फिर बिल्डिंगों के बाहर बुत बना पाया। जिज्ञासा हुई तो चलते-चलते एक गार्ड से पूछ-ताछ कर ही डाली, गार्ड का गर्वीला अंदाज नोटिस किए जाने लायक था। पता चला नोएडा कैंपस में ऐसे सजीले कुत्ते दस की संख्या में है औऱ मनेसर कैंपस में इससे पांच गुना यानि पचास। गार्ड ने अपनी खाकी वर्दी का जिक्र भी खास तौर पर किया , साथ ही ये बताने से भी नही चूका कि मालिक को खाकी वर्दी के लिए प्रशासन से कितनी लंबी जंग लड़नी पड़ी। इन सजीले कुत्तों ने एकबारगी ये सोचने को मजबूर कर दिया कि एक शैक्षणिक संस्थान आखिर किन वजहों से पहचाना जाता है, आखिर उसकी धाक की वजह क्या होती है... कई पत्र-पत्रिकाओं के सर्वे पर सालों से नजर डाल रहा हूं... रिसर्च, फैकल्टी, परीक्षा पद्धति, आधारभूत ढ़ांचा तमाम कारक गिनाए जाते है, औसत अंक निकाले जाते है और फिर इन मानकों के आधार पर सूची तैयार होती है। वैसे अक्सर संस्थान अपने मन-माफिक सर्वे भी निकालते हैं, या फिर किसी सर्वे को तोड़-मरोड़ कर सूची में अपने अव्वल होने का स्वांग भी भरते है। खासकर एक संस्थान तो अक्सर पत्र-पत्रिकाओं में चमकीले पन्नों और होर्डिगों में विदेश यात्रा और शीशमहलनुमा संस्थान की इमारत के जरिए विद्यार्थियों को लुभाने के लिए मशहूर है... और भी संस्थान है इसके नक्शेकदम पर और ये कोई अकेला नही। ... इस `समथिंग डिफरेंट` के चक्कर ने सालों पहले की याद ताजा करा दी। उस समय हमारे यहां बच्चे यहां तो जमीन पर चटाई बिछाकर गुरु-ज्ञान लेते थे या फिर आड़ी-तिरछी बेंचनुमा सी आकृति पर बैठकर। चटाई-स्कूल के बच्चों के लिए `हिन्दी माध्यम से कॉन्वेंट एजुकेटेड करने वाले टूटपुजिंया स्कूल` के बच्चों की एलास्टिक वाली टाई और टीन की बैच ईर्ष्या की वजह होती थी। फिर हमारे यहां एक जीप वाला स्कूल अस्तित्व में आया और ईर्ष्या की वजह बना। बच्चों से लदालद-लबालब भरी खटारा जीप जब अपनी ही जैसी सड़क पर धूल-धक्कड़ उड़ाती निकलती तो लोगों को गुलाबजल के फुहारों सा अहसास होता। चटाई-स्कूल सहित दूसरे स्कूलों के बच्चे जीप-दर्शन और फिर धूल-धक्कड़ का आनंद लेने से खुद को रोक नही पाते। फिर तो बड़ी बस, कंप्यूटर और केरल से खासतौर पर अंग्रेजी पढ़ाने के लिए आयातित शिक्षक इस कड़ी में जुड़ते गए।... लेकिन इन सजीले कुत्तों का मामला निराला है, इसमें कोई संदेह नही। 

(19Nov2011)

लोकतांत्रिक थप्पड़

थप्पड़ पर बहस जारी है। लोकतांत्रिक मर्यादाओं के विपरीत होने से लेकर इसे कायरों की कुंठा तक करार देने वालों की कमी नही, भाजपा से लेकर अन्ना के आदमी होने तक के आरोप लगे हैं हरविंदर पर। लेकिन इन तमाम बहसों के बीच आम आदमी को उस थप्पड़ के पीछे का क्रोध परिचित सा लग रहा है, अपना सा लग रहा है। थप्पड़ से असहमति रखने वाले भी इसके पीछे के गुस्से को खारिज नही कर सकते। और फिर अपेक्षा केवल आम आदमी से ही क्यूं रखी जाए, शीर्ष पर बैठे और सॉफिस्टिकेटेड तबके ने कब लोकतंत्र की मर्यादा का प्राणपण से पालन किया है। वैसे भी लोकंतत्र हमेशा शासकों के सुभीते के लिहाज से डिफाइन होती रही है। कमाल की बात ही है कि देश का शासन परिवार के कब्जे में है और उसी परिवार का होनहार लोकतंत्र का पाठ पढ़ा रहा है। विकल्प में ऐसे नेता की चर्चा है जिन्हें कभी उनकी पार्टी के ही शीर्षपुरुष राजधर्म निभाने की अपील कर चके हैं। स्थिति जब विकल्पहीनता की हो ... और फिर उसकी जड़ता तोड़ती विरोध की आवाज भी डिसक्रेडिट किए जाने की साजिश और तमाम सवालिया निशानों के बीच झूल रही हो तो आम आदमी कंफ्यूज्ड होगा ही । ऐसे में आम आदमी से लोकतंत्र के शास्त्रीय मर्यादाओं-मानदंडों के पालन की उम्मीद बेमानी ही है।... वैसे भी लोकतंत्र के चार पायों ने कौन सा आदर्श पेश किया है उसके सामने ? 

ये आम आदमी का थप्पड़ है, आखिर वो करे तो क्या करे...

(24Nov2011)

महानाटकीय अग्निपथ

कहीं पढ़ा था किसी का लिखा कि-- यदि किसी फिल्म के दृश्यों के बैकग्राउंड में बंदूक दिखाई पड़ती रहती हो, तो फिल्म के आखिरी दृश्य तक बंदूक से गोली प्रस्थान करवाकर डायरेक्टर को जरुर अपने दायित्व का निर्वाह करना चाहिए... भाई अग्निपथ के ताजा अवतार को निहारने से पहले पुराने अग्निपथ से रुबरु होने में लगा था, लगे हाथ मैने भी कुछेक हिस्सा देख लिया... लगा मुकुल आनंद साहब ने भी कहीं न कही इन पंक्तियों का पाठ जरुर किया होगा, औऱ फिर इन लाइनों को दिल से लगा डाला होगा... फिल्म के आखिरी में कांचा के कब्जे से मांडवा और मां को बचाने विजय दीनानाथ चौहान सच में अग्निपथ पर दौड़ता-भागता दिखाई देता हैं... कांचा बटन दबाकर बारुद का खेल खेलता है, फिर तो जमीन से लेकर आकाश तक यानि सीन में या तो अमिताभ दिखायी देते हैं या फिर आग... औऱ फिर अमिताभ की आग की लपटों को चुनौती सी देती दौड़... सालों पहले पढ़ा फिर से याद आ गया और नाटक के इस महानाटकीय अंत पर ताली बजाने की इच्छा बिल्कुल भी नही हुई।

(29Jan2012)

श्रद्धांजलि यानि रिन मार्का सफाई, सफेदी और चमकार

मृत्यू के बाद श्रद्धाजंलि का रिवाज है, श्रद्धासुमन अर्पित किए जाने का... और हां श्रद्धा दिखाने-जताने का भी। अक्सर ऐसा होता है कि मौत अपने साथ तार्किकता और सत्यता (संपूर्ण) की कैजुअल्टी के साथ आती है। गुण-अवगुण किसके नही होते हैं, स्वार्थों से कौन और कितने परे होते हैं, बचे होते हैं। चरित्र के श्वेत और श्याम दोनों ही पक्श होते हैं।... फिर मृत्यु आखिर हमारे विश्लेषण और तार्किकता की स्याही फीकी क्यों कर देती है ? मृ्त्यु के बाद समाज मानो इंसान को रिडिस्कवर करता है- व्यक्तित्व की धुलाई रिन सरीखी होती है, सफेदी और चमकार भरी, कमीज साफ ही मिलेगी, दाग-दुर्गंध मुक्त । विभिन्न कंपनियों में इंट्रव्यू के दरम्यान इस सवाल का चलन आजकल आम सा हो गया है- अपनी कमजोरियां बताइए... जवाब में अक्सर ऐसी बातें गिनाई जाती है आप भी गुण-अवगुण की परिभाषाओं पर नए सिरे से विमर्श को मजबूर हो जाएंगें। जब भी किसी शख्सियत का निधन होता है तो प्रशंसागान के फैशन से थोड़ी कोफ्त होती है। आज का अखबार उठया तो पन्ने देवआनंद साहब के लिए श्रद्धांजलियों से भरे थे , राजगीर में जॉनी मेरा नाम की शूटिंग के दौरान गेस्ट हाउस के केयरटेकर से लेकर बॉलीवुड की तमाम पर्सनाल्टियों तक की। इसमें कोई शक नही कि देवआनंद भारतीय सिने जगत के शीर्ष पुरुषों में से थे ,उनकी कई फिल्में क्लासिक श्रेणी की है लेकिन उन हालिया फिल्मों के जिक्र से परहेज क्यों जो कि कूड़ा कड़कट सरीखी थी। ऐसे में प्रभाष जोशी याद आते है और और याद आता है प्रमोद महाजन के निधन के बाद महाजन पर लिखा हुआ उनका लेख।....
पोस्टस्क्रिप्ट- बचपन में सुना था देव आनंद पर काले कपड़े पहनने की पाबंदी है, आखिर इतने हैंडसम जो थे। आज भी अपने यहां प्रभात खबर में इसका जिक्र देखा, पता नही कितना सही है।

(05Dec2011)

सवालों का संघर्ष

दुनिया रणभूमि है जहां ढ़ेर सारे सवाल आपस में टकरा रहे हैं। कुछ सवाल मामूली हैं , व्यक्तिगत से मालूम होते... आखिर मैं ही क्यूं ? मेरे साथ ही क्यूं? , कुछ सवाल गैरमामूली से है और काफी कुछ साझे भी आखिर ऐसा क्यूं ? ...सवालों का सामना सवालों से है ,सबके अपने सवाल है । और शायद जवाब इसी टकराहट से निकलेंगें या फिर कोई नया सवाल पैदा होगा। ये दुनिया मानो सवालों का संघर्ष है , जिससे होकर शायद एक नया सवाल पैदा होगा जो सबका सवाल होगा और जवाब के करीब भी।

(20Mar2010)

एक अदद कंफर्म टिकट की तलाश

एक अदद कंफर्म टिकट की तलाश और लाइसेंस-कोटा-परमिट राज...

लिबरलाइजेशन, प्राइवेटाइजेशन और ग्लोबलाइजेशन के हो-हल्ले के बीच जब भी दीवाली और छठ के दिन आते हैं तो लाइसेंस-कोटा-परमिट राज की यादें ताजा हो जाती है (बड़े-बूढ़ों के किए चरित्र-चित्रण की मानें तो)। पिछले कुछ दिनों से एक अदद कंफर्म टिकट पाने की जुगत में लगा हूं और व्यक्तिगत स्तर पर तमाम असफलताओं के बीच उम्मीद रह-रह कर सासंद-मीडिया कोटे पर ही जा टिकती है। दीवाली और छठ या दूसरे त्योहार अक्सर भारतीय रेल व्यवस्था या फिर विस्तृत संदर्भों में बात करे तो भारतीय परिवहन व्यवस्था की सीमाओं के सिमटे होने का अहसास कराते हैं। बीते कुछेक दिनों में बाकी की समस्याएं बैकग्राउंड में चली गयी है और एक अदद टिकट की तलाश रातों को नींद और दिन को चैन के लिए तरसने पर मजबूर कर रही है। मांग-आपूर्ति का भारी अंतर सिस्टम को तो भ्रष्ट बनाता ही है, भ्रष्ट सिस्टम को भी खाद-पानी देती है। एक कंफर्म टिकट की तलाश में ऐसे कई मोड़ देखने को मिले जिसमें करप्शन लोगों की मजबूरी बनती दिखी, सही और गलत के बीच का अंतर धुंधलाता दिखा, आम आदमी और `समर्थ आदमी` ( आर्थिक और शारीरिक दोनों ) के बीच के अंतर में अवसर की समानता घुटने टेकती दिखी। इन दिनों तत्काल टिकट काउंटर पर जाइए तो आपको बैचेनी, धूर्तता और कलेजे को ठंडक पहुंचाने वाली संतुष्टि यानि मानव मन के तमाम मनोभावों के दर्शन एक साथ होगें... और हां काउंटर खुलने पर होने वाली अनिवार्य सी जिमनास्टिक भी देखनी मिलेगी- करनी पड़ेगी।... लेकिन समस्याओं का ठीकरा केवल रेल विभाग के मत्थे नही मढ़ा जा सकता है। समस्या गहरी है और इसकी जड़ में काउ बेल्ट यानि बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड की खस्ताहाल अर्थव्यवस्था और बिगड़ी हुई शिक्षण व्यवस्था है। बेहतर भविष्य की आस और तलाश लोगों को पलायन पर मजबूर करती है । दीवाली ,छठ और दूसरे त्योहारों पर भी लोग जब महानगरों के जंजाल और जटिल संसार से दूर अपने घर-परिवार, अपनी जमीन से नही जुड़ पाते तो दिल की कसक और भी कई गुना हो जाती है।...

(24Oct2011)

मन की गांठ...

शिक्षक दिवस पर अपने शिक्षकों को याद करने का रस्म भी है और दस्तूर भी।अपनी जिंदगी में हम जहां भी हैं, जो कुछ भी है ... उसकी एक बड़ी वजह नर्सरी में ककहरा और अल्फाबेट पढ़ाने वाले शिक्षक से लेकर डॉक्टरेट तक मार्गदर्शन करने वाले प्रोफेसर भी है। हम हमेशा कुछ न कुछ सीखते रहते है ,अपने शिक्षक से, अभिभावक से, पड़ोसी से, मित्र से, रिश्तेदार से ...और ये प्रक्रिया लगातार चलती रहती है। हमारा मस्तिष्क ज्यादातर हमारा परिवेश निर्धारित करता है। इंटरनेट के जमाने में आज हमारा दायरा बढ़ा है और अब हमारे शिक्षण की प्रक्रिया भी परिवेश की परिधि को लांघती नजर आ रही है। ज्यादा समय नही हुआ है, महज कुछ साल पहले बहुत सारे मामलों में शिक्षक ही बाहरी दुनिया से हमारे संपर्क सूत्र थे। हमारी समझ का दायरा स्कूल और ट्यूशन पढ़ाने के लिए आने वाले शिक्षकों पर काफी कुछ निर्भर था। घरवाले भी अच्छे खासे मामलों में मानो शिक्षकों के कंधे पर ये जिम्मेदारी डालकर बेफिक्र हो जाते । अपने शिक्षकों से औरों की तरह हमें भी बहुत कुछ जानने समझने को मिला लेकिन काफी कुछ ऐसा भी है जो अब भी बचपन की मधुर स्मृति में गांठ के माफिक है।... मुझे आज भी अपने स्कूल सेंट एडवर्डस इंग्लिश स्कूल की याद आती है , जिसका न तो किसी सेंट एडवर्ड से दूर दूर तक कोई ताल्लुकात था और न ही इंग्लिश से कोई रिश्ता नाता। इंग्लिश के नाम पर नीले हाफ पैंट और शर्ट के उपर टाई थी और कुछ किताबें जिसे हम समझने के बजाय रट लिया करते थे। खैर छठी से लेकर दसवीं तक सरकारी स्कूल में अंग्रेजी के नंबर वैसे भी नही जुड़ते थे। इंग्लिश के साथ हमारे रिश्ते में बचपन में लगी गांठ के पूरी तरह खुलने का इंतजार आज भी है।... क्रमश:

(05Sep2011)

हमें गर्व है अपने 'जनतंत्र' पर

हमें गर्व है
अपने 'जनतंत्र' पर
दुनिया के सबसे बड़े 'लोकतंत्र' पर
दरअसल हम भुलावे में है
यह जनतंत्र के होने का भ्रम है
हमें लगता है
हम...हम भारत के लोग सरकार बनाते हैं
और बदलते भी
लेकिन यह बदलाव भी एक भ्रम है
हकीकत नही
सरकारें बदलती है
नाम बदलते है,चेहरे भी
लेकिन हकीकत नही
हमें लगता हैकि
हमें विरोध की आजादी है
लेकिन इस विरोध के नख दांत
'जनतंत्र' की आस्तीन में हैं
आखिर ऐसा क्यों है कि
साठ सालों बाद भी
सरकार यह नही तय कर पायी कि
गरीबी क्या है
और गरीब कितने
कह सकते हैं कि
यदि जनतंत्र है भी, तो अंधी
जिसे खाली पेट नही दिखाई देते
फर्जी आंकड़े सच्चे लगते है

(24Aug2010)

दाढ़ी...

दाढ़ी केवल फिजिक्स-केमेस्ट्री-बॉयोलॉजी नही , हिस्ट्री-पॉलिटिक्स-सोशियो भी है...

बचपन में हीर-रांझा देखी थी , बेतरतीब-भगंदर टाइप दाढ़ी में राजकुमार जंगल झाड़ सूंघते-सर्च करते दिख रहे थे। लगा दाढ़ी प्रेम का पागलपन है। बैकग्राउंड से ह्रदय छीलती दर्दीली ध्वनि अविरल झरझरा रही था – “ये दुनिया , ये महफिल मेरे काम की नही… “। फिर कुछ दिनों बाद लैला-मंजनू देखी , चॉकलेटी रिषी कपूर सफाचट का इंतजार करते थक चुकी दाढ़ी ओढ़े पत्थर झेल रहे थे। रंजीता के लाख मनुहार के बावजूद पत्थर थे कि उछलते ही जा रहे थे , रंजीता की दर्द भरी आवाज अगल-बगल छोड़ काल और चौहद्दी से परे ऑडिएंस को भावुक किए जा रही थी – “कोई पत्थर से न मारे मेरे दीवाने को”। अब शक के कीड़े को मानो रिवाइटल का डोज मिल गया , विचार पुख्ता हो गया –दाढ़ी प्रेम की परिणति-परिणाम है। 

कुछ साल पहले एक मित्र से मुलाकात हुई , करीब साल भर बाद। हमलोग बीते साल के अनुभव गाहे-बेगाहे उछाल रहे थे। वो एलएसआर पढ़ाने के सिलसिले में गया था … और गंवई भाषा में कहे तो छौरा-छपाटा समझ कर चलता कर दिया गया। एंट्री में ही तमाम पापड़ों से पाल पड़ गया उसका। कन्याओं की तो छोड़िए, गार्ड से भी तव्वजो न मिली। अनुभवियों और पके-पकाये , तपे-तपायों से प्रीसक्रिप्शन मिला- 1.मोटे फ्रेम का चश्मा 2. बढ़ी हुई दाढ़ी । दाढ़ी उसके लिए छात्र से शिक्षक के सफर का संवाद-तन्तु साबित हुई । अब रिस्पेक्टपुल हो गया है , इंटेल दिखने लगा है , था तो खैर बचपन से ही। लगा दाढ़ी मजबूरी है। 

बीएचयू में पढ़ाई के दौरान एक शख्स से मुलाकात हुई- जहीन, नवीन , आधुनिक ... कमी केवल एक ही। सुबह से लेकर शाम-रात तक चांद हर समय उसके सर पर घोंसला बनाए मिलती। महोदय हर अगली सुबह दाढ़ी के नए ज्यामितिय रुप के साथ अवतरित होते – त्रिभुजाकार , वृत्ताकार , अर्धवृताकर ... दाढ़ी मुझे `अभाव के बीच मेरे प्रयोग` टाइटल आत्म-संस्मरण की विषयवस्तु सी लगी। 

डीयू में अध्ययनरत था तो रिसर्च मेथोडोलॉजी की योगेंद्र यादवीय पड़ताल का ज्ञान लेने साऊथ कैंपस जाना हुआ। उन्होंने एक बात बतायी जो कमोबेश `ऑल दैट ग्लीटर्स इज नॉट गोल्ड` के उलट टाइप लगी। बातों-बातों में उन्होंने एक बात बतायी कि बढ़ी हुई दाढ़ी और झोला लटकाए पाए जाने सज्जनों की अच्छी-खासी संख्या लेफ्टिस्ट लीनिंग वाली होती है। दाढ़ी मुझे विचारधारा का आकार लेती नजर आयी। 

आजकल मुझे रोजाना फ्रेंचकटीय फुफेरे भाई से दो-चार होना पड़ता है। मेरा फ्लैट पार्टनर भी है। खांटी देहात से आईआईटी के बीच इसकी दाढ़ी ने भी न जाने कितने आकार बदले। दाढ़ी मुझे ग्रोथ की अनेकानेक भाव-भंगिमाओं में से एक लगी।

सच कहूं तो दाढ़ी मुझे किसी बहुरुपिए से कमतर नही लगता। दाढ़ी धर्म भी है , दाढ़ी समाज भी है , दाढ़ी कम्यूनल भी है , दाढ़ी सेक्यूलर भी है । पता नही क्यों लेकिन मैं अक्सर पाता हूं कि सिखों और हिंदू टाइप दाढ़ी तो पुलिस-सेना में `लोगों` की नजरें एडजस्ट कर लेती है , लेकिन मुसलमानों टाइप दाढ़ी पर यही नजरें सवाल करती नजर आती है। 

अन्त में यही कहूंगा कि दाढ़ी विज्ञान ही नही समाजविज्ञान की विषय-वस्तु भी है। ये सरकारी और निजी ऑफिसो , लॉनों , गार्डनों में उग आया घास नही , जिस पर माली हर सुबह-शाम कतर-ब्यौंत करता है , यह जीवनधारा भी है। 

(18Jun2012)

जवान होता सिनेमा और `बूढ़ा` होता मैं ..

पता नही जिंदगी के किस पड़ाव पर हूं , हालांकि उम्र का आंकड़ा 28 पारकर 29 में चहलकदमी कर रहा है । उम्र और अवस्था के बीच गुणा-भाग ,जोड़-घटाव को लेकर मैं हमेशा ही सशंकित रहा हूं। बचपन, जवानी, बुढ़ापा की परिभाषा और उम्र के साथ इसके ताल्लुकात को हमेशा हमने शंका की नजरों से ही देखा है। वैसे भी रंगीला बूढ़ा , जुल्मी जवानी , बचपन की नादानी के बीच का फर्क क्या है , कोई बता सकता है तो बताए ? परिभाषाओं की बंदिशों में मेरा कम ही यकीन रहा है , कह सकते है कि न के बराबर । हालांकि होशोहवास के बाद अब तक के सफर में मैने दो ही लतें पाली हैं –चाय और सिनेमा । चाय से पीछा छुड़ाने के मूड में हूं , लेकिन सिनेमा की मत पूछिए कहीं भी होऊं , किसी भी हालात में होऊं , मूड बना देती है भाई साहब। बचपन से `बुढ़ापे` तक न जाने कितनी फिल्में देखी , हिसाब कम ही रखा है ... हां इतना तो है कि जैसे माएं और दादियां कहती है कि फलां अगहन के फलां दिन मोहन जन्मा था और फलां पूस के फलां दिन पहले सोहन पैदा हुआ था , वैसे ही मेरे लिए लाइफ की क्रोनोलॉजी सिनेमा ही आसानी से डिफाइन कर पाती है । मसलन `दिल तो पागल है` जब देखा था तो उस दिन मैट्रिक परीक्षा का आखिरी दिन था और `दीया और तूफान` तब देखा था जब भैया के मैट्रिक परीक्षा का आखिरी दिन था। `खलनायक` और `आंखें` दादा जी की तेरहवीं के अगले दिन देखी थी। `दिलजले` तब देखी थी जब बगल की दीदी शादी के बाद पहली बार मैके आयी थी और जीजा जी परंपरा का निर्वहन करते हुए रिश्ते और मोहल्ले के सभी साले–सालियों को सिनेमा दिखाने ले गए थे। वैसे सच बताउं तो सामाजिकता-पारिवारिकता के वातावरण में फिल्में कम ही देखी है। एक बार जो `मां` फिल्म के दरम्यान मम्मी ने ठेलठाल कर घर चंपत कर दिया तो कसम ही ले ली कि अब पारिवारिक फिल्में भी परिवार वालों के साथ नही ही देखूंगा। वजह थी किसी गाने में तात्कालिक पारिवारिक पैमाने से कुछ ज्यादा ही लटके-झटके छलक रहे थे। फिल्में मेरी कमजोरी रही है ... सच कहता हूं कांति शाह और नसीरुद्दीन साह दोनों को ही एक ही नजर से जाना है , कभी कोई भेदभाव नही बरता ... साथ ही कहता चलूं कि ये वो दिन थे जब दिनेश ठाकुर , रीमा भारती और अज्ञेय को भी एक ही साथ हजम किया। अब सोचता हूं तो लगता है कि वो जवानी के दिन थे। घर पर टीवी था , बिजली हालांकि कभी-कभार ही आती , लेकिन जब भी आती, रंगोली, चित्रहार और फिल्म देखने का कोई भी मौका चूकता नही। हालांकि मन तब खीज जाता जब दादी या पिता जी फिल्म देखने के दरम्यान दृश्यों पर तमाम सवाल खड़े करते । अभी तो धूप था , बारिश कैसे हो गयी ? फिर कपड़े बिना धूप के भी अचानक सूख कैसे गए ?... अभी तो साड़ी पहन रखी थी , कुर्ते मे कैसे दिख रही है ?... सवाल सुन-सुनकर खून उबलने लगता, सर भन्नाने लगता। इन परिस्थितियों में यह सोचकर मन मसोस कर रह जाता कि बढ़ती उम्र असर दिखा रही है, और पोस्टमॉर्टम के पीछे बुजुर्गियत गुल खिला रही है । फिल्म देखने की लत तो खैर अब भी नही छूटी लेकिन अब नजर पहले वाली भी नही रही , भेदभाव करने लगा हूं, कांति शाह तो छोड़िए , मनोज तिवारी और रवि किशन से भी नफरत हो चली है। फिल्म देखते-देखते ही उसकी चीर-फाड़ पर उतारु हो जाता हूं । ऐसे में अब अक्सर ही लगता है मानो जवानी को बुजुर्गियत की हवा लग गयी है । 

(02Jun21012)

कपिल फेल, पामेला पास ...

ये उस जमाने की बात है जब फूफा, मामा, मौसा ,चाचा अंग्रेजी का भूत दिखाकर बच्चों को आतंकित किया करते थे। नाउन और प्रनाउन का डेफिनिशन तो खैर बच्चे रट भी लिया करते , लेकिन कुछ घाघ टाइप के फूफा-मौसा जब `मेरे स्टेशन पहुंचने से पहले गाड़ी खुल चुकी थी` और `गया गया गया` का अंग्रेजी ट्रांसलेशन हलक से निकाल लेने पर उतारु हो जाते तो बच्चों को लगता शोले का गब्बर टीवी से निकलकर सामने जम गया है। 

स्टूडेंट मैं तब अच्छा माना जाता था लेकिन शायद दिमाग में अंग्रेजी लायक यूरिया, पोटाश की फिर भी पर्याप्त कमी थी।... और फिर आखिर मैं भी कितने ट्रांसलेशन रटता, सगे-संबंधी-पड़ोसी अंग्रेजी के नए चक्रव्यूह के साथ हमेशा टपकते रहते। मानो अभिमन्यु बनना नियति थी , और द्रोणाचार्य ने विपक्षी खेमे से सांठ-गांठ कर ली थी। 

इसी जमाने में मैने भी अंग्रेजी सीखने की ठानी । हालांकि कपिल की बॉलिंग में तब वो धार नही थी, और उनकी बैटिंग भी बस धुआं-धुआं टाइप थी। फिर भी रैपिडेक्स के कवर पेज पर हाथों में चमचमाती वर्ल्ड कप उठाए चेहरे से बरसती हैप्पीडेंट मुस्कान पर एक बारगी भरोसा करने का मन कर उठा । अंग्रेजी सीखने की इच्छा मन में खूब कुलांचे मार रही थी, ऐसे में सीमित संसाधनों और समाज-परिवार के प्रतिक्रियावादियों, यथास्थितिवादियों और उपयोगितावादियों से कड़े मुकाबले के बावजूद रैपिडेक्स का आगमन सुनिश्चित किया गया। डाबर और कभी-कभी कड़वे बैद्यनाथ च्यवनप्राश के साथ रैपिडेक्स घोंटता रहा . कितने दिन रैपीडेक्स को तकिया बनाकर रातें गुजारी कह पाना मुश्किल है । 65 दिन न जाने कब पार हो गए , वैसे 650 से कुछ कम दिन नही गुजरे होगें। कपिलदेव पर रहा-सहा भरोसा भी जाता रहा और रैपिडेक्स मेरे छोटे से कमरे के किसी अनजान कोने में गुम हो गया । 

अंग्रेजी मन की नसों में गिरह बन कर रह गयी और जब भी किसी किताब की दुकान के बगल से गुजरता तो अंग्रेजी की मैग्जीनों को देखकर लगता कि गिरह टाइट हो रही है और रक्त-प्रवाह पहले से मंथर होने लगा है। दिन गुजरे-साल बीते ... न जाने इस बीच कहां से टाइम्स ऑफ इंडिया का घर में अवतरण हुआ और फिर इसने मन मोह लिया। ... और फिर कुछ ऐसा हुआ जैसे कि केन्या ने वैस्टइंडीज को भारत में पटखनी दे दी। कपिल पाजी जो नही कर पाए, पामेला एंडरसन ने संभव कर दिखाया। पामेला अकेली नही थी , अंग्रेजी-ज्ञान प्राप्ति के पथ पर निकोल ,ब्रिटनी , मडोना और उसकी दूसरी सखियां भी फूल बिछा रही थी। `अराउंड द वर्ल्ड` अब मेरा पंसदीदा कोना हो गया। सुबह-सबेरे स्टेशन निकल जाता और न्यूजपेपर वेंडर के साथ-साथ मैं भी प्लेटफार्म पर टाइम्स ऑफ इंडिया की बेसब्री से राह देखता। पामेला , निकोल और ब्रिटनी ने सालों बाद अंग्रेजी में मेरी दिलचस्पी फिर से पैदा कर दी। टाइम्स ऑफ इंडिया देखना-पढ़ना अब तो रिचुअल हो गया। धीरे-धीरे ही सही बाकी पन्नों में भी अब मैं ताकाझांकी करने लगा । मैट्रीमोनियल से लोकल, फिर नेशनल इंटरनैशनल... फिर तो टाइम्स ऑफ इंडिया भकोसे बिना काम ही नही चलता। ये कहने में कोई गुरेज नही कि जो भी इंग्लिश जान-समझ-देख पाया हूं उसके पीछे बड़ा योगदान मेरी इन्ही शिक्षिकाओं का है । 

हांलांकि तमाम सामाजिक विरोधों-बाधाओं के बीच भी सिनेमा देखना किशोरपन की `बुरी` आदत रही है , और तर्क-कुतर्क की परवाह बगैर मिथुन और गोविंदा की फिल्में भी बिना किसी भेद-भाव के देख डालता। पर्दे पर जब भी सोनाली , मधु, माधुरी, मनीषा को लटके-झटके लगाते देखता तो अपनी इन शिक्षिकाओं को पर्दे पर देखने की कसक मन को सालती रहती। दलसिंहसराय और पटना के पारिवारिक माहौल से परे जब ग्रेजुएशन के सिलसिले में बनारस पहुंचा तो बरबस ही पोस्टर से झांकती पामेला से साक्षात्कार हुआ। लंका के ठीक पहले पोस्टर से झांकती पामेला गंगा पैलेस की और आमंत्रित करती सी दिखी , मानो उलाहना दे रही थी , गुरु-दक्षिणा मांग रही थी। कैमरुन डियाज और ड्रयू बैरीमोर की `चार्ली की हसीनाएं` और टॉम क्रूज की कोई फिल्म भी कहीं लगी थी , बॉलीवुड का जलवा तो खैर बाकी सिनेमाघरों में कहर ढ़ा ही रहा था , लेकिन पामेला का कर्ज अब भी दिमाग पर तारी था ।... और ठीक अगले ही दिन बाकियों को दरकिनार कर मेरे कदम गंगा पैलेस की ओर खुद-ब-खुद चल उठे ... 

(01Jun2012)

रविवार, 24 जून 2012

पति और पुरुष का फरक ... मेट्रो ज्ञान

मेट्रो हमेशा मुझे टाइम्स ऑफ इंडिया के द स्पीकिंग ट्री कॉलम सी लगी है, ज्ञान देती-लुटाती ... सच कहता हूं मेट्रो की भीड़ से मुझे कभी उबक नही हुई , राजीव चौक पर भीड़ के बीच खुद के गुम हो जाने- घसीटे जाने के कई अनुभवों के बावजूद भी ... कारण कि मेट्रो मुझे मशीन कम, महात्मा सरीखी ज्यादा लगी है , समाज के भीतर, समाज से निरपेक्ष , हमेशा कुछ न कुछ सिखाती-दिखाती-सुनाती ... कुछ दिनों पहले पुरुष और पति के बीच के फरक का ज्ञान भी मेट्रो महाराज ने दिया ... `पति होने का सौभाग्य और पुरुष होने का दुर्भाग्य` की उस मेट्रोजन्य परिस्थिति में मेरे लिए फैसला लेना मुश्किल ही हो गया कि कुछ दूर बैठी वो महिला सज्जन है या दुर्जन ... खैर किसी के लिए भी मुश्किल हो जाता, मैं कौन सा तीसमार खां हूं... मेट्रो का दरवाजा दरका , भीड़ बचे-खुचे सीटों की ओर लपकी ... सीट-संग्राम में महिला कामयाब हुई ... पति ने बाकी तड़पती पुरुष आत्माओं की तरह भरी सीटों की तरफ लार टपकती निगाह दौड़ाई और पांव के नीचे जमीन तलाशने में जुट गया ... अब देखिए... महिला ने अपनी सीट अपने पति को दे दी , महिला उठी और ठीक सामने टंगी `महिलाओं के लिए आरक्षित` पट्टी पर नजर मारने लगी ... मानो अक्षरज्ञान के बाद पहली बार शब्दों के इसी समुच्चय से पाला पड़ा हो ... पट्टतालिका के नीचे सीट से सटके अपराधी को हड़काया और न्यायोचित दावा ठोक डाला ... अपराधबोध के साथ भीड़ के बीच एक पुरुष अपने सम्मान को टटोलता-संभालता उठा ... पता नही उसे अपनी पत्नी की जरुरत महसूस हुई या पुरुष होने पर गुस्सा आया ,,, लेकिन वो कुछ बड़बड़ा जरुर रहा था।

(21May2012)

खुद से लड़ना आसान नही होता

लड़ाई हमेशा हथियारों से नही होती
हमेशा तीर-तलवार-तोप ही काम नही आते
दुश्मन हमेशा सामने नही होता
साथी कौन है , शत्रु कौन
पहचानने का सामर्थ्य जब चूकने लगता है
दिमाग के केमिकल्स जब कुराफात मचाने लगते है
लड़ाई बड़ी ही अजीबोगरीब हो जाती है साथियों
क्योंकि खुद से लड़ना आसान नही होता ।

(16May2012)

हत्यारा कौन ?...

मनरेगा में भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने वाले कार्यकर्ता नियामत अंसारी की झारखंड के लातेहार में मध्युगीन बर्बर तरीके से पीट पीट कर हत्या कर दी गयी। हत्या किसने की, इस पर तमाम अखबारों और चैनलों को देखकर पढ़कर कंफ्यूजन सा बनता है। अलग-अलग अखबार और चैनलों ने अपना अलग अलग राग अलापा है... आरोपों की जद से कोई भी बाहर नही...माओवादी , लोकल माफिया और भ्रष्ट ब्यूरोक्रेसी ... । आरोपों के दायरे में आने वालों का ये व्यापक स्पेक्ट्रम हैरान करने वाला है।हिंदु में छपी खबर में एनआरआईजीए वाच के एक कार्यकर्ता ने इसे दलालों और ठेकेदारों का कारनामा करार दिया है। एनडीटीवी की रिपोर्ट में शक की सुई एक शीर्ष अधिकारी पर जा ठहरती है, रिपोर्ट के मुताबिक नियामत और उनके साथियों ने महज कुछ दिनों पहले ही मनरेगा में चल रही लूट की पोल खोली थी और 20 तारीख को इस संबंध में एक एफआईआर भी की थी। सहारा की खबर माफिया की तरफ इशारा करती है। प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया के हवाले से हिंदुस्तान टाइम्स की खबर माओवादियों को कसूरवार ठहराती है, हालांकि खबर के सूत्र पुलिसिया है लेकिन हेडलाइन के शोर में सूत्र वाली बात दबती हुई दिखती है। ऐसे में पाठक ,दर्शक और श्रोता आखिर जाएं तो जाएं कहां।...अंधे और हाथी की कहानी याद आ गयी , जिसमें हरएक हाथी को अपनी तरह से और अपने नजरिए से डिफाइन करते हैं।

(4March2011)

बुजुर्गियत की मौत...युवा होने और बनने के बीच...

डीएनए अखबार ने आज से संपादकीय पेज की समाप्ति की घोषणा कर दी। काफी अजीब भी है और दुखद भी। मुझे याद है अपने स्कूल कालेज के दिनों में अक्सर लोग-बाग कहा करते बेटा बीच का पेज यानि संपादकीय जरुर पढ़ना। संपादकीय पेज न केवल अखबार की आत्मा होती बल्कि अखबार का दृष्टिकोण और किसी मुद्दे पर उसकी खरी खरी होती , साथ ही पाठकों की भी प्रतिक्रिया का भी मंच होता।संपादकीय के अंत की ये शुरुआत युवा होने और बनने के दंभ और दौर के बीच बुजुर्गियत की मौत सरीखा है ।डीएनए इसे प्रोग्रेस और इवोल्व होने के प्रोसेस का हिस्सा मानती है और साथ ही अपने इस फैसले से पाठकों की रजामंदी पर भी कांफीडेंट है। मुझे नही पता आखिर किस सर्वे का रिजल्ट है यह और न ही अपने पहले पन्ने की सबसे बड़ी खबर पर उसने इसका आभास दिया है। लेकिन एक सवाल जो मौजूं है वो ये कि पाठकों की इस अखबार से आपत्ति और विरोध क्या केवल एडिटोरियल तक ही सीमित था ? और सबसे बड़ा सवाल ये है कि मीडिया अब क्या केवल मीडियम के रुप में ही सीमित होकर रह जाएगी... 

(01Feb2011)

अब अक्सर ऐसा लगता है

अब अक्सर ऐसा लगता है कि
चीजें थम सी गयी है
और सब कुछ जम सा गया है
जमे हुए पानी की तरह
डर है
कहीं काई न लग जाए
कहीं बदबू न पैदा हो जाए
अब
बारिश या फिर
पत्थर का इंतजार
एक निहायत ही जरुरी
हलचल के लिए
आक्सीजन के लिए
जिंदगी के लिए...

(21Aug2010)