बुधवार, 27 मई 2015

जर्मनी को जुकाम और दलसिंंहसराय की करवट ...

जर्मनी और दलसिंहसराय के बीच की दूरी कोई मामूली नही है। दलसिंहसराय से दिल्ली ही करीब सवा हजार किलोमीटर है। आखिर ऐसे में किसी जर्मन के दिमाग में कोई खुजली हो तो फिर दलसिंहसराय में बैठे शख्स को क्या शिकायत होगी या फिर उसकी क्या उत्सुकता होगी ? खैर अभी तो इंटरनेट है, पनिया जहाज से लेकर हवाई जहाज पर सवारी आसान हो गयी है। लेकिन सौ साल से भी पहले की सोचिए , जब समदंर पार का सफर भी पाप था, धर्म भ्रष्ट हो जाता था। तब किसी जर्मन के दिमाग की किस जुगाली ने दलसिंहसराय वालों की जिंदगी ही कमोबेश पलट कर रख दी हो, बड़ा बदलाव किया हो । शायद बात केवल दलसिंहसराय का ही नही बहुत कुछ इस विशाल देश की भी है । कह सकते है कि समय का एक चक्र होता है, चीजें बदलती रहती है। कहने वाले कह गए हैं – जो आया है सो जाएगा, राजा-रंक-फकीर। दलसिंहसराय भी गवाह बना एक बड़े वैश्विक चक्र का। जब यूरोपीय ताकतें एक दूसरे से ज्ञान-विज्ञान से लेकर रणभूमि में एक-दूसरे से उठापटक में लगी थी, हजारों मील दूर एक कोने में बलान नदी के किनारों पर भी हलचल हुई।

हालांकि जर्मनी और दलसिंहसराय के एक सदी से भी पुराने इस रिश्ते पर मेरी नजर पिछले करीब दो दर्जन से भी ज्यादा सालों में नही गयी थी। लेकिन इधर की कुछ हलचलों के बीच अचानक ही एक दिन इस रिश्ते का आभास हुआ, जब मैं आंखमूंदकर बेसब्री से नींद की तलाश में अतीत-वर्तमान-अनदेखे भविष्य की धमनियों-शिराओं में प्रवाहित हो रहा था। इधर के दिनों में मेरे कई नए-पुराने रिश्तेदारों के साथ कई मित्रों ने भी जर्मनी के विभिन्न शहरों म्यूनिख, बर्लिन, बॉन का रुख किया है ।

   खैर हुआ यूं कि उन्नीसवीं शताब्दी के अंत होते-होते जर्मनी ने कृत्रिम तरीके से नील बनाने में महारत हासिल कर ली और इसकी चपेट में दलसिंहसराय भी आने से बच न सका, जहां के नील की ख्याति कुछ कम नही थी। दलसिंहसराय प्राकृतिक नील उत्पादन का बड़ा केंद्र था इसके सबसे बड़े नील फैक्ट्रियों में से एक की क्षमता तो करीब 22 हजार क्यूबिक फीट की  थी। बर्नाड कोवेंट्री एक नीलहे साहब हुए जो यहां नील की खेती से जुड़े थे और दलसिंहसराय के नील से जुड़े उपक्रम में उनका मालिकाना हक भी था। ख्याति ऐसी कि कॉवेंट्री प्रोसेस कही जाने वाली प्रक्रिया से तैयार होने वाले उत्कृष्ट नील की वजह से नील जगत में दलसिंहसराय कलर-फैक्ट्री के रुप में जानी जाती थी। इस इलाके में और आस-पास ब्रिटिश प्लांटर्स यानि निलहे साहब किसानों से नील की खेती करवाते और भारी मुनाफा बटोरते। लेकिन सिंथेटिक नील की बढ़ती लोकप्रियता ने नीलहे साहबों को होने वाले मुनाफे का बंटाधार कर दिया। 

नील फैक्ट्री और दलसिंहसराय नील को मिले अवॉर्डों की तस्वीरें
                                                    तस्वीर : साभार-इंटरनेट
 हालांकि नील इतना महत्वपूर्ण क्यूं है यह मैं आज तक समझ नही पाया। सिवाय बचपन से इन बातों के देखने कि यह सफेद बनियान को आकाशी रंग देता है और भक्क सफेद स्कूल वाले बुशर्ट को नीला बना देता है। हो सकता है और होगा ही कि इसके और भी ढ़ेर सारे काम होगें, लेकिन अपना पाला तो इन्हीं एक-दो मामलों में इससे पड़ा है। इतना याद है कि शायद पहले रॉबिन नील और फिर चार बूंदों वाले उजाला ने घर के एक अंधेरे कोने में अपनी जगह बना ली। हालांकि इस बात पर तो मेरा संदेह आज तक कायम है कि उजाला ने कभी मेरे बनियान-बुशर्ट में उजाले का संचार किया हो ।

नील की फैक्ट्री का एक दृश्य
तस्वीर : साभार-इंटरनेट
खैर उन्नीसवीं शताब्दी के अंत होते-होते सिंथेटिक नील ने अपनी जगह बनानी शुरु कर दी और प्राकृतिक नील को कड़ी चुनौती मिलनी शुरु हो गयी , ठीक उसी तर्ज पर कि जब स्पिनिंग मशीन और पावरलूम के आविष्कार ने भारत को कपड़ों के निर्यातक की जगह उसका बड़ा आयातक बना डाला, कपड़ा उद्योग की कमर तोड़ दी । हालांकि ऐसा नही है कि प्राकृतिक नील ने सिंथेटिक नील के खिलाफ मुकाबले में दो-दो हाथ आजमाने से परहेज किया , लेकिन होनी को कौन टाल सकता है भला । दलसिंहसराय में ही कुछ नीलहे साहबों ने नील की फसल को और बेहतर बनाने के लिए साल 1899 के जुलाई महीने में बर्नार्ड कोवेंट्री साहब की देख-रेख में एक रिसर्च स्टेशन बनाया जहां नील की पैदावार और इसका प्रभाव बढ़ाने के लिए कई प्रयोग शुरु हुए। वैज्ञानिकों हैंकॉक, लीक और ब्लॉक्सम ने दलसिंहसराय के इस रिसर्च स्टेशन में नील से जुड़े अनुसंधान किए। नील से जुड़े नीलहे साहबों की लॉबी भी एक बड़ी वजह थी जिसकी वजह से इसी इलाके में पूसा में इंपीरियल एग्रीकल्चर रिसर्च इंस्टीट्यूट अस्तित्व में आया जो बाद में सन 1934 की भूकंप की वजह से आजकल इंडियन एग्रीकल्चर रिसर्च इंस्टीट्यूट के रुप में दिल्ली के टोडापुर इलाके में विराजमान है। खैर नील की खेती को बेहतर बनाने के सिलसिले में पूर्वी एशिया में जावा द्वीप तक का चक्कर लगाया गया और नील की एक बेहतर किस्म को दलसिंहसराय और इसके आस-पास के इलाके में आजमाने की कोशिश की। यह रिसर्च स्टेशन आगे के कुछ सालों तक अनुसंधान में जुटा रहा और इससे कुछ निष्कर्षों तक पहुंच पाने में भी वैज्ञानिकों ने सफलता पायी थी। लेकिन सिंथेटिक नील से मुकाबला असंभव सा हो गया था।
बी कॉवेंट्री साहब के संबंध में 1915 में छपी जानकारी
                                                                तस्वीर : साभार-इंटरनेट
हालांकि सिंथेटिक नील , पावरलूम जैसे आविष्कारों की वजह से ब्रिटिशों की नजर में भारत का महत्व किस परिमाण में छीजता जा रहा था और इसने सन 47 में उन्हें वापस अपने मुल्क लौटने के लिए कितना प्रेरित किया होगा, यह तो खैर इस मामले के विशेषज्ञ-विश्लेषक ही बता सकेंगें लेकिन मुझे लगता है कि इसका भी इसमें कुछ न कुछ अंशदान जरुर होगा , लेकिन इसमें कोई शक नही कि हजारों-हजारों मील दूर जर्मनी में अविष्कृत हुए सिंथेटिक नील ने दलसिंहसराय के इतिहास में एक नया मोड़ लाया होगा।