82.5 डिग्री पूर्वी देशांतर , मिर्जापुर, उल्टा
प्रदेश , इंडियन स्टैंडर्ड टाइम वाली रेखा यहां से गुजर जाती है , बिना किसी हरहर
खटखट के। लेकिन मिर्जापुर की सड़कों और गलियों में समय कमोबेश ठहरा सा ही लगा।
उत्तर-पूर्व वाले न जाने कब से चिल्ला रहे हैं भाई कब करोगे बदलाव। न जाने कितने
असंख्य घंटो की लाश बिछाई है यहां के घंटाघर ने । कहते हैं कि कलियुग है , कोई
फरियाद नही , कोई न्याय नही और वैसे भी अमरीकी असीम न्याय से तो आप वाकिफ हैं ही। पिछले
साल द वीक में रिपोर्ट पढ़ी मिर्जापुर के कलॉक टावर पर समय रुक गया है। यानि इस
घंटाघर को इस घनघोर अपराध का दंड इसी जमाने में मिला। घंटाघर पर टंगी घड़ी मर चुकी
है, अब कोई टिक-टिक नही , पिछले करीब दर्जन भर साल से। आश्चर्य कि हम अब भी इस मरी
घड़ी के चक्कर में चकरा रहे है। खैर ... अपना अपना दुर्भाग्य।
दरअसल इतिहास
में ताकाझांकी का लालच हमें मिर्जापुर खींच लाया था । मिर्जापुर मेरे लिए दरअसल वो
टाइममशीन थी , जिसमें घुस जाउं , वर्तमान को गच्चा दूं और इतिहास में गोता लगाऊं।
इतिहास कुछ मेरा वाला और कुछ राजा-महाराजा-बादशाहों-हाकिमों वाला। जिन लोगों ने
नीरजा गुलेरी की चंद्रकान्ता से बचपन की शुरुआत की हो , चुनारगढ़ का जिक्र उनके
मानवी शरीर में चुनचुनी या फिर खुजली तो जरुर पैदा करेगा। बात उस दिन की कर रहा
हूं जब पता चला कि चुनार कुछ दर्जन भर किलोमीटर पर है। आपसे क्या छिपाना, खूंखार
शिवदत्त, मासूम कलावती , चालू तारा , पंडित बदरी और सेनापति सोम सब खूबसूरत बचपन
का हिसाब मांगते दिखे। कलावती का अथाह प्रेम , शिवदत्त-तारा का प्लैटोनिक रिश्ता ,
चाणक्य का चुनारी संस्करण बदरीनाथ , सोमनाथ की लॉएल्टी ... न जाने इनने दिल-दिमाग
के कोनों को कितना एक्सपैंड किया , इसे कूतना सरासर नमकहरामी होगी ।
जब समझदारी
शैशवावस्था में ही थी , हम मालवीय जी की बगिया बीएचयू में घुसपैठ कर बैठे। ठीक उसी
दिन जब बैंडिट क्वीन वाली फूलन देवी कत्ल कर दी गयी। फूलन को बंदूक उठाए हमने अपने
बचपन में तब देखा था जब दलसिंहसराय में लक्ष्मी कचड़ी वाले के सुबहिया दुकान पर
आलूदम खाने पहुंचे। माथे पर लाल पट्टी लपेटे फूलन वाला पोस्टर कचड़ी-आलूदम के
खोमचे से सटी दीवार पर चिपका पड़ा था। खैर बात यह है कि यह फूलन भी मिर्जापुर वाली
है।
खैर बीएचयू में
चर ही रहे थे कि पता चला बगल में ही नौगढ़, विजयगढ़, चुनारगढ़ विराजमान है। गर्दन
के नीचे खुजली मचने लगी। एक सुबह आठ-दस दोस्त कूच कर गए शिवदत्त-तारा-कलावती की
तलाश में। इतिहास ग्रेजुएशन में सब्जेक्ट था तो इतना तो पता चल ही गया अपने सासाराम
वाले शेरशाह को दिल्ली का शाह बनाने में चुनार ने कोई कम कंट्रीब्यूट नही किया।
... तो हम मिर्जापुर की सड़क पर थे, चुनार वाले किले के पथ पर।
... और आप तो
जानते हैं कि हमलोग अतुल्य भारत वाले हैं। खोदा पहाड़ निकली चुहिया मार्का। चुनार
पहुंचे और सारी दिल-दिमाग की सारी चुनचुनी शांत हो गयी। दीवारें दरकी हुई, किले का
कारागार मानवीय नायट्रोजन से गंधाया हुआ और आस-पास का हर 5 से 50 बरस वाला
इतिहासकार इरफान हबीब । पहुंचने के साथ ही इतिहासकारों की युवा टोली ने चारों तरफ
घेरा डाल दिया । हमलोग भी होशियार। पंद्रह रुपए के पैकेज में चुनार के इतिहास को
समझाने-समझने का करार हुआ। अब देखिए एक पर एक गोला – फलां जगह पर धर्मेंद्र का घोड़ा
हिनहिनाया , फलां जगह पर राजा साहब नाच देखते थे और फलां जगह पर रानी नहाती थी।
शिवदत्त, कलावती और तारा तो खैर गायब थे ।लगा मानो चुनारगढ़ की चहारदीवारी के भीतर
इतिहास का कत्ल हो चुका हो और लाश भी मौके से गायब कर दी गयी हो। इक्का-दुक्का
संरचनाएं बची थी , और जो बची थी उनके कत्ल के भी पूरे इंतजामात थे।यानि कुल मिलाकर
मामला ऐसा था कि चुनार के इतिहास, वर्तमान और रहस्य पर चूना पोता जा चुका था। (यादें)
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