भगवान ने
प्रकृति को अनेक नियामतें दी है... वीको वज्रदंती के विज्ञापन की इस पंक्ति को यदि
सवाल की शक्ल दी जाय यानि की यह सवाल प्रक्षेपित किया जाय कि आखिर प्रकृति कौन सी
नियामत सबसे खास है ? ... तो मेरे मुख से जो पहला
शब्द उच्चरित होगा , वो है चाय।
चाय सुखप्रदाता
भी है, दुखहर्ता भी है। दवा भी है और दारु भी है। दिमाग में दर्द हो रहा हो, दिल ठिकाने
पर न हो, मन ऊब रहा हो. समय काटे नहीं कट रहा हो ... समस्या किसी भी शक्ल, आकार-प्रकार की
हो... चाय रुपी जादुई तरल आपके इहलोक को फटाफट बेहतर बना देता है।...
खुशी का ज्वार उमड़ रहा हो, जिज्ञासा कुलबुला रही हो, अंदर कुछ फदफदा रहा हो, अंदर
का कुछ बांध तोड़कर बाहर निकलने को हिलोरें ले रहा हो... चाय उस उबाल लेते समय का
भी सबसे सुनहरा साथी है। चाय की चुस्की के
साथ भावनाएं भी संयत तरीके से पारितंत्र में विस्तारित या विसर्जित होती है।चाय
गुरु भी है, सहयात्री भी है... अतीत, वर्तमान और भविष्य है।
चाय की दसियों
वैराइटी है, बनाने के भांति-भांति के तरीके औऱ परोसने का अपना-अपना अंदाज। अपन तो
सर्वहारा है। अपना तो एक ही तरीका है- सॉसपेन में आधा दूध-आधा पानी डालो,
चायपत्ती, चीनी मिलाओ और मन भर तब तक उबालते रहो जबतक कि घोल सफेद से परिवर्तित
होकर भूरा न हो जाय।
चाय बचपन से ही
पसंदीदा सामग्री रही है। बचपन में सुबह-सुबह जगकर पढ़ाई करनी हो तो स्टील के कप
में मिलने वाली गर्म-गर्म चाय के सहारे ही नींद की अभेद्य लगने वाली दीवार को भेद
पाने में हम सफल हो पाते थे। मुद्रा की उतनी तरलता तो थी नहीं ऐसे में अक्सर बगल
में बंका जी की दुकान से एक रुपए की चायपत्ती और इलायची लेने के लिए पहुंच जाते।
चाय घर में सार्वजनिक रुप से बच्चों के लिए मना था, लेकिन पापा से छुप-छुपाकर
हमलोग खूब चाय पीते। चाय का क्रेज इतना कि पापा जब काम के सिलसिले में कलकत्ता
जाते तो कई बार हमलोगों का डिनर चाय-रोटी होता। बचपन में चाय के साथ की यह मोहब्बत
अब तक बदस्तूर जारी है।
दसवीं पासकर जब
पटना पहुंचा तो घर से दूर अजनबी शहर में चाय ने ही बांह थामी। कभी मुसल्लहपुर हाट
के पास तो कभी महेंद्रू डाकखाने के पास। चायदुकानों पर चाय पीने के साथ-साथ वहां
समाचारपत्र का भी खूब सेवन किया जाता। मुसल्लहपुर के चायदुकानों में उन दिनों
टेलिविजन अवतरित हो चुका था। चाय प्रेमियों के लिए आकर्षण के तौर पर अब समाचारपत्र
के साथ-साथ टेलिविजन भी पंक्तिबद्ध था। दर्जनों हाथों से गुजरने के बाद समाचारपत्रों
के पन्नें इस कदर घिस जाते मानो बख्तियार खिलजी से खुद को बचते-बचाते नालंदा से
सीधे चाय दुकान पर ही प्रकटित हुए हों। लेकिन टेलिविजन के आगमन से एक नई बात हुई।
चाय की दुकान पर अब गंभीर चाय प्रेमियों की जगह खलिहरों की भीड़ खूब जमा होने लगी।
क्रिकेट मैचों के समय स्थिति और विकट हो जाती। अब जहां समस्या होती है वहां समाधान
की धार फूट ही जाती है। दुकानदार भी रह-रहकर बैठी-खड़ी भीड़ से चाय के लिए पूछने
की प्रक्रिया शुरु कर देता। पर्याप्त ग्राहक नहीं दिखते तो चैनल बदल दिया जाता। खैर
भीड़ का क्या था ... भीड़ की चाय के प्रति कोई सच्ची निष्ठा और निष्काम समर्पण तो
था नहीं वो किसी दूसरे चाय दुकान की और प्रवाहित हो जाती।
चाय के साथ
रिश्ता बनारस में ग्रेजुएशन के दौरान और ज्यादा गहराया। होस्टल की कैंटीन मेरे
कमरे के काफी करीब थी। बस कमरे के बाहर से चिल्लाने भर की देर थी कि चाय का ग्लास
हाजिर। इसी काल में निशाचरी प्रवृति भी काफी बढ़ गयी थी। कॉमन रुम जब अर्द्धरात्रि
के पश्चात शांति की अवस्था को प्राप्त होने को होता तो हम जैसे कुछ निशाचरों की
चपेट में आ जाता। स्टार गोल्ड या किसी और चैनल पर... जिस पर भी किसी फिल्म पर आंख
अटक जाती हम अपना समय खपाने में जुट जाते। होस्टल से निकलते ही एक चाची जी की
दुकान थी जो तड़के ही चाय पिलाने का पुण्य कर्म शुरु कर देती थी। …और कई बार
सूर्योदय बेला तक कॉमनरुम प्रवास के बाद सीधे चाची की चाय की दुकान पर दस्तक
देते।... या फिर कुछ उत्साही दोस्तों की संगत मिल जाती तो रात्रि के किसी भी
हिस्से में चाय की प्राप्ति के लिए सिंहद्वार लांघकर लंका भ्रमण को निकल पड़ते। चायखोरी
के दरम्यान कुछ मित्र बनें, कुछ से मित्रता प्रगाढ़ हुई और भांति-भांति के
भारी-भरकम विचारों से लबालब ज्ञानवान मिलें।
ग्रेजुएशन के
बाद दिल्ली विश्वविद्यालय की शरण में आया। मानसरोवर छात्रावास की छत मिली। प्रांगण
में ही पंडित जी की चाय दुकान थी। पंडित जी मेरे ही जिले के थे, लेकिन चाय का
स्वाद से कोई लेना-देना नहीं था... यह भी कह सकते हैं कि दोनों के बीच छत्तीस का
आंकड़ा था। चाय छात्रावास में मानो एक परंपरा थी, जिसका हर कोई निर्विकार भाव से
निर्वाह किए जा रहा था ।
चाय अपने विविध
आयामों में और विस्तारों से मुझे सहारा देती रही है और समृद्ध भी करती रही है। ऐसे
में जब शादी के बाद नववधू के साथ कहीं बाहर घूम आने का रस्म निभाने की बारी आयी तो
अब तक के हमसफर चाय का शुक्रिया अदा करने में कैसे पीछे रह सकता था भला। केरल
घूमने की आइटीनरी में मुन्नार और वहां के चाय बगान और कारखाने की मानो खुद-ब-कुद
एंट्री हो गयी। चाय मुन्नार में पर्यटन की शक्ल में दिखी। चाय का यह नवीन रुप मेरे
सामने था।
कुछ दिनों पहले
बापू से संबंधित कोई किताब पढ़ रहा था। चाय वहां प्रतिरोध की वेशभूषा में नमूदार
थी। महात्मा गांधी ने दांडी में नमक कानून तोड़कर पूरे देश को आंदोलित कर दिया था।
बरतानिया हुकूमत गांधी जी का लोहा मानने के विवश हुई थी। चर्चिल के शब्दों में एक
फकीर राजमहल की सीढ़ियों पर चहलकदमी कर रहा था। महात्मा गांधी और वायसराय इर्विन के बीच वार्ता चल रही थी। देश भर की निगाहें वायसराय हाउस पर टिकी थी। वायसराय इर्विन ने महात्मा गांधी
को चाय पीने का ऑफर दिया । गांधी जी ने चट से नमक की पुड़िया अपने पास से निकालकर
अपनी चाय में मिला ली और फिर चाय सुड़कने लगे। ब्रिटिश सत्ता के समक्ष चाय सत्य और
अहिंसा की शक्ल में प्रतिरोध का औजार बनकर प्रस्तुत हुई।
गोस्वामी तुलसीदास
रामचरितमानस में लिख गए है- “हरि अनंत, हरिकथा अनंता” । अपने अब तक के
संक्षिप्त जीवन और चुटकी भर ज्ञान को साक्षी मानकर कहूं तो चाय के भी अनंत रुप हैं
और खैर चाय से जुड़ी कथाएं अनंत तो है हीं। इन्हीं अनंत चायकथाओं में एक चायकथा
मेरी भी।
ग़ज़ब का चायात्मक विश्लेषण है आपका।
जवाब देंहटाएंवाह।
👍👍
जवाब देंहटाएंशाबाश। यूँ ही चला चल रही.....
जवाब देंहटाएंचाय के इस लबालब भरे कप में श्रीवास्तव जी,मेस वाले पंडित जी और फैकल्टी के सामने वाले पंडित जी के जिक्र मात्र से मसाले वाली चाय बन जाती।करौंदी गेट पर अनगिनत कुल्हड़ चाय पीते हुए परिचर्चा करना भी दैनिक क्रिया कलाप का हिस्सा था ।
जवाब देंहटाएंचाय और चाय की यात्रा इस ब्लॉग में पढ़ सकते हैं। शानदार
जवाब देंहटाएंWah Ustad wah! Chai ne pehle kuch varshaon mein kafi surkhia satori hain. So nice effort by Dr Rajneesh. Keep it up.
जवाब देंहटाएंशानदार चाय और चाय की पटकथा
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