मुझे लिखना पसंद है... कलम से लिखना । मैं तब भी लिखता रहता हूं, जब
लिखने की कोई जरुरत नही होती, कोई मतलब नही होता ...और कुछ नही तो अखबारी
किनारे के खाली जगहों पर कुछ भी लिखता रहता हूं ,जिसका कोई औचित्य नही होता। अब तो
वैसे भी कलम से लिखने का कोई ज्यादा स्कोप नही बचता। दफ्तरों में आजकल साइन और
नोटिंग करने के अलावा अधिकांश काम-काज कंप्यूटर पर ही हो जाता है। हालांकि ऐसा नही
है कि बाजार से कलम गायब हो गए हैं। स्टेशनरी की दुकानों पर दर्जनों ब्रांड और टाइप
के कलम सजे जरुर मिलते हैं और खूब बिकते भी हैं। लेकिन लोगों को लिखने की आदत और
जरुरत को कम होते देखकर मैं अक्सर सोचता हूं कि कलम के भीतर की इतनी सारी स्याही
कहां खर्च होती होगी। मुझे तो अक्सर लगता है कि लोग ऊब कर दूसरी नयी कलम खरीद लेते
होंगें या फिर रखे-रखे कलम का इंक जम जाता होगा या फिर आदतन वो इंक शर्ट या पैंट
की जेबों में बह जाते होगें।
पहली कलम कौन सी मेरे
हाथों में आई यह तो याद नही लेकिन पहले चॉक वाली पेंसिल और फिर कठपेंसिल के जरिए
हमने लिखना सीखा, यह जरुर याद है। शुरु में इस्तेमाल किए जाने गए पेनों यानि कलम के
जो पहले ब्रांड की मुझे याद आती हैं- वह है ओपल के पेन। दूसरे साधारण से दिखने
वाले पेनों की जगह ओपल के पेन खुबसूरत लगते। ज्यादातर हरे या कत्थई रंग के । अभी
के उलट उस समय कोई भी लीड या रिफील किसी और पेन में लग जाती। यदि रिफील के लिए
ज्यादा पैसे नही होते तो डेम्पों और लोकल ब्रांड की रिफील, नही तो आपको शानदार
अनुभव चाहिए तो फिर लिंक 1500 । डेम्पो के साथ खासियत यह थी कि वो बीच-बीच में
सुस्ताने लगती फिर उसे दोनों हथेलियों के बीच रखकर रगड़ना पड़ता जबकि लिंक 1500
पन्नों पर सरपट भागती रहती। डेम्पो बेचारा सस्ते में यानि पचास पैसे में और लिंक
1500 एक या सवा रुपए का होता। फिर एक बार लिखो-फेंको कलम भी खूब ट्रेंड में आया।...
और टीप-टपुआ पेन को कौन भूल सकता है भला । टीप-टपुआ पेन भी दो प्रजाति के थे। एक
जो केवल लिखने के लिए इस्तेमाल में आते थे और एक वो जो लिखने के साथ-साथ खाली समय
में हम बच्चों के हथियार में तब्दील हो जाते। टीपने यानि उनके ऊपर वाले सिरे को
दबाने के बाद उनमें ऊपर के सिरे पर ही खाली जगह बन जाती और फिर बच्चे उसमें कागज
ठूंस देते। फिर क्या था पेन वाली स्वीच दबाने के साथ ही कागज में संचित स्थैतिज
उर्जा गतिज उर्जा में परिवर्तित हो जाती और फिर यह गतिज उर्जा विपक्षी खेमे पर
जमकर आघात करती।
हालांकि इंक वाले पेन भी
थे, जिसकी नीब अक्सर असावधानी की वजह से खराब हो जाती। पहले सुलेखा ब्रांड के इंक
और फिर चेलपार्क के इंक से हम इंकड्रॉप के सहारे कलम के पेट मे उसकी खुराक डालते।
समस्या तब आती जब इंक के पेन चलने से इंकार करने लगते और हम उसे झटककर उसे चलते
रहने को मजबूर करते। पेन तो चलना फिर से शुरु कर देती लेकिन अक्सर खुद के
शर्ट-पैंट खराब हो जाते तो कभी साथियों के शर्ट-पैंट उसकी जद में आ जाते।
फिर अचानक से एक झोंका ऐसा
आया कि डेम्पो, ओपल, लिखो-फेंको, सुलेखा, चेलपार्क सब उसकी चपेट में आ गए।
रिनॉल्डस, लिखते-लिखते लव हो जाय वाला रोटोमेक, मोनटेक्स , मित्सुबिशी, खुशबू वाला
टुडे दर्जनों ब्रांड और टाइप-टाइप के हमें देखने को मिलने लगे। हर कलम की अपनी
खूबी थी। मसलन मित्सुबुसी पेन के पेट के आखिरी सिरे पर रुई जैसा कुछ ठूंसा हुआ
होता, रोटोमेक का पेन चलते-चलते उल्टी करना शुरु कर देता, टूडे के पेन काफी कलरफुल
होते। हालांकि बताता चलूं कि हमारे सीएच स्कूल में जहां से मैनें मैट्रिक की, वहां
के बेंचों में लोहे की छोटी टोपियां लगी हुई थी, जिसमें किसी जमाने में विद्यार्थी
इंक रखकर सरकंडे की कलम से लिखा करते होंगें। लड्डू बाबू हमारे हिंदी के टीचर थे।
हम भी अच्छी हैंडराइटिंग के लिए उन टोपियों में इंक डालकर सरकंडे की कलम कम से कम
एक पन्ना सुलेख लिखते और लड्डू बाबू को दिखाते।
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