शुक्रवार, 19 अक्तूबर 2012

इन खालों को खुरचने की जरुरत ...

डेवलपमेंट, रिफॉर्म, प्रोग्रेस-प्रोग्रेसिव, लेफ्ट, राइट, सेंटर... अखबार, टीवी, इंटरनेट, आपसी बातचीत यानि जहां भी घुसिए, इन शब्दों की घुसपैठ से बच पाना नामुमकिन ही है। कहते है चेहरा सब कुछ उगल कर- उलट कर रख देता है, लेकिन जब भी इन शब्दों पर ठिठकता हूं ... लगता है मामला भेड़ के खाल में भेड़िए के होने का है। इन शब्दों की भंगिमा और इनके निहितार्थ के बीच के छत्तीस के आंकड़े पर कोफ्त किए बिना नही रह पाता। अब आप ही बताइए जब डेवलपमेंट और डिसप्लेटमेंट/डिस्ट्रक्शन के बीच का अंतर बारीक ही रह जाए तो क्या कहा जाय ? कई बार ऐसी खबरें पढ़ी-सुनी है कि फलां जमीन डेवलप की जा रही है, मसलन यमुना बेसिन या फिर जंगलों-खानों को डेवलप करने से जुड़ी खबरों को ही लें। मामला कमोबेश ऐसा है कि कोई यह कहे कि विकास और विनाश पर्यायवाची है । लगता है विनाश पर विकास का लबादा लादकर बाघ के बकरी होने का भ्रम पैदा किया जा रहा हो। अब नव-उदारवाद शब्द को ही लें— शब्द से जान पड़ता है मानो कोई ह्रदय परिवर्तन का शिकार हो गया हो, ह्रदय-मन-कर्म(वचन से खैर है ही) उसका मन और भी खुल गया हो, हर किसी को गले लगाने को तैयार बैठा हो, समाज का उद्धार ही उसके जीवन का आधार हो गया हो, लेकिन आप ही देखिए नव-उदारवादी बतायी जाने वाली नीतियां लोगों की कैसे कह कर ले रही है । 

रिफॉर्म शब्द का जिक्र आते ही लगता है राजा राममोहन राय की आत्मा इस धरा-धाम पर अवतरित हो गयी हो, लेकिन हकीकत पर नजर डालिए मामला खुला खेल फर्रुखाबादी ही लगता है... और फिर आधुनिक रिफोर्मिस्टों के नामों का उल्लेख ही बारंबार उबकाई के लिए काफी है। ...और जहां तक लेफ्ट, राइट और सेंटर का मामला है, तो इन शब्दों को फुटबॉल के नाम पूर्णतया समर्पित कर दिया जाय तो ही बेहतर। वैसे भी यह तय करना काफी लोचेदार है कि कौन सा वाला लेफ्ट है और कौन सा वाला राइट? …और जब लेफ्ट और राइट ही तय नही है तो फिर सेंटर की पोजीशन तो त्रिशंकु की ही भांति होगी। उपर से आजतक समझ नही आया कि राइट को राइट क्यों बोला जाता है, कुछ और बोल देते…शब्दों की कमी थी क्या। और यदि राइट ही राइट है तो बाकी सब रोंग हैं क्या ? वैसे भी अब लेफ्ट, राइट, सेंटर सब एक ही शरीर के अंग-प्रत्यंग मालूम पड़ रहे हैं... बॉडी-आत्मा सब एकही सी दिख रही है ... अंतर भ्रम, अनभिज्ञता या फिर नासमझी ही जान पड़ती है । खैर अब कुछ `ताजातरीन` की भी चर्चा कर ली जाय, अब आप ही बताइए कि पीस या शांति का मतलब क्या अब भी वही पहले वाला है ऐसे में जबकि यूरोपीय यूनियन और बराक ओबामा पीस वाला नोबल पुरस्कार बटोर रहे हों। अब कोई यह कहे कि मिडिल ईस्ट से सैंट्रल ईस्ट तक उनके ड्रॉन और कलस्टर कैसे शांति नही फैला रहे हैं तो फिर `सहमत होने` के अलावा हमारे-आपके पास और चारा ही क्या है !!! ऐसे में पता नही सालों से तालिबान के साथ नाइंसाफी क्यों बरत रहे हैं नोबल वाले ... लगता है अगली बार तो पक्का ही मिलेगा आखिर मलाला जैसे नए मानदंड जो स्थापित कर रहा है वह। अब इसका क्या कहा जाय , बचपन से लेकर अब तक (अपना दुर्भाग्य ही है कि अब तक) किताबों में इस सवाल-जवाब से पाला पड़ता रहा कि `हू डिस्कवर्ड इंडिया – वास्कोडिगामा`। मानो भारत हिंद महासागर के भीतर गुम हो गया हो और हम बाहर निकलने के लिए कुलबुला रहे हों, ऐसे में वास्कोडिगामा भाई साहब ने वराह अवतार लेकर किसी तरह ढ़ूंढ़-ढ़ांढ़ कर हमारा उद्धार किया हो। ऐसे में वक्त आ गया है डिक्शनरी अपडेट करने का, इन शब्दों की खाल खुरचने का।

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