गुरुवार, 11 अक्तूबर 2012

लोकनायक बनाम महानायक ... एक्टर बनाम कैरेक्टर

अमिताभ बच्चन और जयप्रकाश नारायण... एक रुपहले पर्दे का नायक, दूसरा जिंदगी के कुरुक्षेत्र का। एक जिसे असहज सवालों से परहेज* है और एक जिसमें था माद्दा `सहज और मर्यादित` समाज में असहजता पैदा करने का। सक्रिय राजनीति में दोनों ही आए, एक महज केमियो की भूमिका निभाकर उसे बाय बाय कर गए और एक जो जिंदगी के आखिरी हिस्से तक राजनीतिक रहे, संघर्ष करते रहे। एक जिसकी चिर परिचित हंसी, गुस्सा, भावनाएं आभासी है और एक जिसका चेहरा वक्त का आईना था। आज जन्मदिन है इन दोनों का और सुबह से ही शुभकामनाओं का सिलसिला चल पड़ा है ... और महानायक इस मैदान में लोकनायक पर बीस साबित हो रहे है। इस अद्भुत संयोग ने इतना तो साबित कर ही दिया है कि समाज की गति क्या है? दशा-दिशा, चाल-चरित्र क्या है? इतने सारे अंतरों के बावजूद दोनों के व्यक्तित्वों और परिस्थितियों की पड़ताल में कुछ समान सूत्रों से इंकार नही किया जा सकता। दोनों ने ही युवाओं के बीच गुस्से को रिफ्लेक्ट किया है, यह बात दूसरी है कि एक परिस्थितियों से लड़ता हुआ परिस्थिति-परिवेश का हिस्सा बन जाता है और दूसरा उसे काफी कुछ बदल पाने में सफल होता है। हालांकि अमिताभ भी कुछ कम सफल नही हुए हैं , लेकिन उनकी सफलता काफी कुछ व्यक्तिगत दायरे में सिमट कर रह जाती है। कह सकते हैं कि एक सवाल है और दूसरा जवाब। 

यह भी अजीब संयोग है कि अमिताभ उस समय फिल्मों में आए , जब ब्लैक एंड व्हाइट की तकनीक आउटडेटेड हो चुकी थी और शायद अमिताभ ही पहले अभिनेता ठहरे जिन्होंनें सिनेमाई चरित्र के ब्लैक एंड व्हाइट लोकप्रिय खांचे यानि विलेन-हीरो के स्पेक्ट्रम से दायरे से बाहर निकलकर विलेन को सेक्सी बना दिया, विलेन और घृणा के बीच गर्भ-नाल के रिश्ते पर कैंची चला दी। मेरे हिसाब से अमिताभ जहां कैरेक्टर थे वहीं जेपी एक्टर। लेकिन जमाने की चलन देखिए आज यह कैरेक्टर एक्टर पर हावी होता हुआ दिख रहा है। वैसे जेपी के पास जहां जमाने से भिड़ने का जिगर था वहीं अमिताभ जमाने की भेड़चाल की बंदिशों से मजबूर और कई बार हास्यास्पद स्तर तक... आखिर लाल बादशाह, सूर्यवंशम और बुम जैसी फिल्मों में उनको देख-सुन कर आखिर और क्या कहा जा सकता है भला (चीनी कम और निशब्द जैसी फिल्में अपवाद है)। सच बताउं तो अमिताभ की फिल्मों से पहली बार पाला इन्ही फिल्मों के जरिए पड़ा , कह सकते है कि गलती मेरी उम्र की है (या फिर उनके उम्र की)। लाल बादशाह में लाठी लिए अमिताभ पर लहालोट होने के अलावा और कोई क्या कर सकता है भला। बुम का अमिताभ तो खैर अश्लील ही ठहरा ... अश्लील और भौंडा (उनके बने-बनाए इमेज से तुलना करें तो)। सच कहता हूं अमिताभ का बड़ा से बड़ा महान प्रशंसक भी बुम देखने के बाद पीकदान ढूंढता नजर आएगा। खैर इन उदाहरणों से मेरा आशय अमिताभ की दक्षिण एशियाई फिल्म जगत में `सर्वौच्चता` पर सवाल खड़ा करने का नही है और इसमें भी कोई शक नही अमिताभ का अभिनय लाजवाब है ... लेकिन यहां सवाल अभिनय और असल के बीच चुनाव का है।

पोस्ट स्क्रिप्ट-- अभी हाल में ही तहलका पत्रिका में अमर सिंह का इंटरव्यू पढ़ने को मिला। बकौल अमर सिंह एक प्रसंग के सिलसिले में जया बच्चन ने एक बार उनसे यानि अमर सिंह से कहा कि मेरे पति ने मर्द जरुर बनायी है , लेकिन राजनीति के असल मर्द तो चंद्रशेखर (पूर्व प्रधानमंत्री) है ।

*कल बीबीसी की वेबसाइट पर अमिताभ के इंटरव्यू के सिलसिले में एक पत्रकार का लिखा देखा कि इंटरव्यू से पहले असहज सवालों से परहेज की हिदायत दी गयी थी

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