शनिवार, 22 दिसंबर 2012

अभी भी वही !!!

आप सुबह उठते हैं
अलार्म की किर्र-किर्र से
या कह सकते हैं कि कैक्टसी सपनों की जद में आने पर
वैसे भी गुनगुने गुदगुदाने वाले सपने अब आपको आने से रहे
और कहां अब किसको किसकी फिक्र है
रात दिन में घुस गया है 
और दिन, रात की चौहद्दी में सेंध लगा चुका है
सपनों को इस बात की फिक्र कहां 
कि कम से कम नींद में तो बन-संवरकर आए

आप चौराहे को निकलते है
चाय की तलाश में
सर पर चढ़ आयी रात को झटकने
कुछ चेहरों से दो चार होते है
कुछ जिनसे आपकी जान-पहचान होती है ... हाय-हैलो...
कुछ जिनसे आप परिचित होते है
जो रोज इसी पहर रात से किनाराकशी के चक्कर में
यही मंडराते मिलते है
मानो आपका ही इंतजार कर रहे होते हैं
एक चेहरा आपसे टकराता है
-और क्या चल रहा है इन दिनों ?

चाय को सुड़कते आपके चेहरे पर
गंभीरता की एक गाढ़ी परत और चढ़ जाती है
बाकी चेहरे जो अगल-बगल अब भी तैर रहे होते हैं
अनमने से ... चाय की प्याली लिए...
अचानक से उनकी नजरें आपके चेहरे पर टिक जाती है
उनके कान सजग हो जाते हैं
सब मानो आपके जवाब की प्रतीक्षा में हों
आप कहते हैं - बस वही।

सवाल करने वाले चेहरे पर आश्चर्य के भाव तैरते हैं
और थोड़ी हंसी भी - अभी भी वही ?
प्याले को कचरे के डब्बे में फेंकतें हुए
आपका पूरक जवाब होता है - हां अब भी वही।
बाकी चेहरे फिर से चाय की प्यालियों पर जुट जाते हैं
अपने-अपने तालाब से निकलने को
हाथ-पांव मारने में जुट जाते हैं।

और आप अपने सर को झटकते
वापस अपने कमरे की ओर मुड़ जाते हैं
रात को जल्द से जल्द झटकने।

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