शनिवार, 1 जून 2013

कस्बा मेरे भीतर ...

कोई भी गली-नुक्कड़ हो या सड़क-मैदान ... दलसिंहसराय यानि मेरे कस्बे का हर कोना चौबीसों धंटा, बारहों पहर मेरे दिमाग पर नाचता रहता है । जीपीएस और ग्लोनास की जरुरत नही है ... आंखें बंदकर बता सकता हूं कि महावीर चौक से माड़वाड़ी धर्मशाला के रास्ते पर कितने मोड़ है... और घाट नवादा से गंजरोड तक के रास्ते में कितनी दूरी पर और किधर-किधर मुड़ना है। समय कितना लगेगा और कौन से चेहरे रेटिना पर किस कोण से प्रतिबिंब बनाएंगें ?

ढ़ाई दर्जन सालों से कस्बा और मैं दोनों कमोबेश साथ-साथ ही बढ़े हैं। कस्बा अब गांव से निकल शहर में घुस गया है और शहर है कि मेरे भीतर के गांव के साथ ठेलमठाल में जुटा है। कस्बे की हर नई कच्ची-पक्की ईंट के साथ यादों की इमारत ने शक्ल ली है। हर बार जब भी जाता हूं, इसकी चौहद्दी का चक्कर लगाकर जानने की कोशिश करता हूं कि आखिर शहर कितना और किधर बढ़ा है ? कहां कौन सी मकान-दुकान उग आयी है और किधर हनुमान जी गदा लेकर अवतरित हुए हैं। जब भी जाता हूं , ताजातरीन चौहद्दी, नए चेहरे और पुराने होते चेहरे खुद ब खुद मानों दिमाग पर चिपक जाते हैं।

जब बदलाव को महसूसने की बात चल ही रही है तो फिर कोर्ट-कंपाउड वाले हनुमान जी का जिक्र करता चलूं। मेरे जमीन की चहारदीवारी बन रही थी और इस सिलसिले में अक्सर ब्लॉक ऑफिस के रास्ते से गुजरना होता। गाहे-बेगाहे चलते-चलते मैं भी उन दिनों अन्य राहगीरों की तरह अपना प्रणाम इनकी ओर उछाल दिया करता। हनुमानजी उन दिनों एक कोने में एकाकी और उपेक्षित जीवन गुजर-बसर करते मालूम होते। वक्त बदला और कोर्ट की इमारतों के निर्माण के साथ इन हनुमान जी का भविष्य दमकने लगा। अभी बकायदा सर पर छत और नित नवीन वस्त्र धारण करते इन हनुमान जी के अतीत की कल्पना भी दलसिंहसराय के नए-नवेलों के लिए मुमकिन नही। टूटी गदा और धूप-बारिश-अंधड़ की मार , गंदले कपड़े और जंग खायी जंजीर से बंधी लकड़ी की दान-पेटी जिसमें भूले-भटके कोई अठन्नी-चवन्नी डाल दिया करता था ... मानो उन लंका-निवासियों के श्राप का असर हो जिनके घर हनुमान जी के वानरोचित किलोल में स्वाहा हो गए। खैर समय बदला और नए कोर्ट परिसर के निर्माण ने हनुमान जी की किस्मत भी चमका दी। फिर तो सालों तक जब भी दलसिंहसराय गया , हनुमान जी की देहरी पर एक बार जरुर से नजर मार लेता और हर बार हनुमान जी की को पिछली बार से बेहतर पाता।

खैर साल भर बाद जब इस बार दलसिंहसराय जाना हुआ तो दो-एक चीजों की ताजातरीन मौजूदगी पर खुशी के साथ-साथ गर्व करने को भी जी ललचाने लगा। पहली तो जैविक-अजैविक कचरों वाला कूड़ादान और दूसरा डीएसपी आवास के बाहर वाले मैदान में अग्निशमन गाड़ियों की मौजूदगी। इससे पहले ऐसा ही कुछ तब दिखा था, महसूस किया था, जब महावीर चौक पर नई-नई फ्लड लाइट उधर से गुजरने वालों को अपनी दूधिया रोशनी से सराबोर किए जा रही थी। फिर कुछ सालों बाद बिजली-ग्रिड के शुभागमन की खबर ने यह खुशी दोहरी-तिहरी कर दी।

कहते है कि इंसानों को परखना हो तो कपड़ों की बजाय जूते पर नजर डालिए। वैसे ही शहर-कस्बे की नब्ज जाननी हो तो नालियों और कूड़ाघरों से बढ़िया थर्मामीटर और क्या होगा !!! पता नही इनका कितना इस्तेमाल होगा ,लेकिन इतना तो तय है बदलाव के इन चिह्नों से नजर नही छिटकाया जा सकता। हो सकता है इन कूड़ेदानों की मौजूदगी हाथी के दिखाने वाले दांतों की तर्ज पर हो, लेकिन जड़ता से किसी भी अंदाज में दो कदम आगे बढ़ने की पहल सकारात्मकता तो लाती ही है। कुछ महीने पहले एक रिपोर्ट पढ़ी कि अफ्रीका के गरीब बच्चों के बीच कई लैपटॉप बांटें किए गए और आश्चर्यजनक रुप से तकनीक से अनजान बच्चों ने महज कुछ ही घंटों में न केवल उसे ऑन-ऑफ करना जान लिया ,बल्कि आगे के दिनों में लैपटॉप से जुड़े अन्य आयामों को एक्सप्लोर करने में भी सफल रहे ।

जैविक-अजैविक खांचो वाले कूड़ेदानों की मौजूदगी बरबस ही बीते दिनों की याद करने की वजह बनती महसूस हुई । फिलाटेली-न्यूमिस्मैटिक्स से जुड़ी प्रतियोगिताएं , क्विज आधारित मि. एंड मिस दलसिंहसराय का चुनाव , नव जागरण युवा मंच की सांस्कृतिक प्रतिस्पर्धाएं, इकोलॉजी आधारित और दूसरी कई सारी क्विज कम्पीटीशंस , डे-नाइट क्रिकेट मैच , यूथ प्रोग्रेसिव क्लब की लाइब्रेरी आदि-आदि की याद उछल-उछल कर सिर में धम-धम धड़ाम-धड़ाम करने लगी।


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