“भारतीय संविधान में यह प्रावधान है कि वयस्क लोग अपनी
मर्जी से विवाह के बंधन में बंध सकते हैं लेकिन हमारे संविधान को बने मात्र 60 वर्ष हुए हैं इसके विपरीत हमारा धर्म सनातन कितना
पुराना है यह कोई बता नहीं सकता। अपने धर्म एवं संस्कृति के अनुसार उच्च वर्ग की
कन्या निम्न वर्ग के वर से ब्याही नही जा सकती है, इसका प्रभाव हमेशा अनिष्टकर होता है।“ (निरुपमा पाठक के नाम उसके पिता की चिट्ठी का एक अंश)
कोडरमा के धर्मेद्र पाठक ने अपनी विद्रोहिनी बेटी निरुपमा पाठक को लिखी इस चिट्ठी में हजारों साल की परंपरा का हवाला दिया, निम्न जाति के वर से शादी न कर भूल सुधारने की सलाह दी। खैर परंपरा ने फिर अपना वही घिनौना रुप दिखाया जिसके लिए वो जानी जाती है और निरुपमा आज हमारे बीच नही है।
आज इलावरासन भी इस दुनिया में नही है और
दिव्या के पिता नागराज भी । प्रेम और परम्परा की टकराहट ने फिर कुछ जिंदगियां लील
ली। इलावरासन की लाश तमिलनाडु के धर्मापुरी में रेल की पटरियों के समीप पायी गयी
और नागराज ने आत्महत्या कर ली। इलावरासन की मौत को लेकर कई सारे सवाल है , हत्या
या फिर आत्महत्या ? …तफ्तीश की जा रही है। वैसे नागराज की
मौत को भी हत्या में शुमार किया जाय तो ज्यादा सटीक होगा। सामाजिक प्रतिष्ठा की
सूक्ष्म और पैनी मारकता ने ही नागराज को मौत को गले लगाने पर विवश कर दिया, इसमें
कोई शक नही। वैसे भी सामाजिक (कु)संस्कारों के डंक से विरले ही बच पाए है।
कहा जाय कि उत्तर से दक्षिण तक भारतीय
समाज जातिगत दुर्भावना और ऊंच-नीच के एक सूत्र में गुंथा है तो कोई अतिश्योक्ति
नही होगी। लेकिन आश्चर्य की हद तो तब हो जाती है जब इसके खिलाफ संघर्षरत जातियों में भी
ऊंच-नीच का भाव गहरे तक पैठा रहता है। अब फिर से इलावरासन-दिव्या मामले पर लौटा
जाए। इलावरासन दलित समुदाय से थे और दिव्या पिछड़े वर्ग के वान्नियार जाति से ।
दलित और वान्नियार जाति दोनों ही ब्राह्म्णवादी व्यवस्था से पीड़ित रहे है और ब्राह्मणवादी
व्यवस्था के खिलाफ द्रविड़ संघर्ष का एक साझा इतिहास भी रहा है। लेकिन दलितों पर
पिछड़ी जातियों में शुमार वान्नियारों की श्रेष्ठता का दंभ आज तमिलनाडु के विभिन्न
जिलों में आतंक बनकर पसरा है। यह भारतीय समाज की त्रासदी और दोहरापन ही है कि
जातिगत भेदभाव को लेकर आंदोलनरत समाज खुद भी कमर तक जातिवाद की कीचड़ में है ।
पारंपरिक भारतीय समाज के इस दोहरेपन पर
गौर किए जाने की जरुरत है कि अनुलोम विवाह को तो यह समाज कमोबेश स्वीकार लेता है ,
वहीं प्रतिलोम विवाह को सिरे से खारिज कर दिया जाता है। निरुपमा-प्रियभांशु का
मामला हो या फिर इलावरासन-दिव्या का ... लड़की यदि ऊंची समझी जाने वाली जाति/समुदाय से हो और लड़का तुलनात्मक रुप से निम्न समझी जाने वाली जाति से तो मसला
अक्सर सामाजिक प्रतिष्ठा का विषय बन जाता है , समाज का हाजमा गड़बड़ाने लगता है।
वहीं मामला उलटा हो तो समाज देर-सवेर हजम कर ही जाता है। ऐसे में तमाम जातिवादी आंदोलनों को अंदरखाने झांकने की जरुरत है। केवल सतही
और नितांत स्वार्थी प्रकृति के विद्रोह और आंदोलन से काम नही चलने वाला।
इन परिस्थितियों में पश्चिम भारत में साल 1858 में जन्म लेने वाली पंडिता रमाबाई का व्यक्तित्व आश्चर्यचकित
करने वाला है। ब्राह्मण परिवार की और संस्कृत की विद्वान रमाबाई ने साल 1880 में दलित बंगाली वकील विपिन बिहारी
मेधवे से विवाह कर जड़ समाज की जड़ों को झिझोंर कर रख दिया था। महिला शिक्षा और
मेडिकल साइंस में महिलाओं की भागीदारी को लेकर निरतंऱ संघर्षरत इस शख्सियत ने
हालांकि अपने इंग्लैंड प्रवास के दौरान ईसाई धर्म को स्वीकार कर लिया था।
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