बादशाह खान
तीसरे बच्चे अब्रम के पिता बन चुके हैं। खबर के साथ विवाद भी जुड़ा था कि जन्म से
पहले बच्चे का लिंग परिक्षण हुआ। मामला तूल पकड़ा , फिर बादशाह ने सफाई दी- नही...
कुछ भी गलत नही किया। बादशाह फिर (चेन्नई) एक्सप्रेस की सवारी करने लगे और मीडिया
सहित गणमाण्य अपनी उसी पैसेंजरी मोड में आ गए... छुक छुक। लेकिन एक सवाल अब भी
अपनी जगह पर है कि आखिर दो बच्चों के पिता होने के बावजूद बॉलीवुड के बादशाह ने
क्यूं अंतिम विकल्प माने जाने वाले सरोगेसी का दामन थामा। हां यह ठीक है कि कानूनन
इसमें कुछ भी गलत नही ... लेकिन यह भी सच है कि कानून ही इस सृष्टि का अंतिम सत्य
नही ।
कहते है कि समाज
के कुलीन तबके में सरोगेसी नया चलन है , फैशन है, स्टेटस सिंबल है। कहा जा रहा है
कि एक नयी मानसिकता इस कुलीन तबके में घर करती जा रही है कि बाजार जब किराए पर कोख
उपलब्ध करा रहा है तो फिर नौ महीने का नुकसान क्यूं ? वैसे भी कहा गया है- `टाइम इज मनी` । इसे उलट कर कहा जाए कि `मनी इज टाइम` तो कोई अतिश्योक्ति नही होगी ।... यानि बाजार अब
वहां दस्तक दे रहा है , जहां अभी तक वह पूरी तरह वर्जित था। उन नौ महीनों की
कीमत कूती जा रही है, जब गर्भनाल से जुड़े दो जीवन एक साथ स्पंदित हो रहे होते हैं,
एक दूसरे से प्राण पा रहे होते हैं । कह सकते हैं कि दुनिया के इस सबसे पवित्र
बंधन को बाजार प्रदूषित करने में जुट गया है।
इस ताजातरीन चलन
ने कई सवालों को भी जन्म दिया है। क्या बच्चे के जन्म को भी खालिस आर्थिक अवधारणा
के बरक्स देखा जा सकता है ? इनपुट, आउटपुट, आउटकम, प्रोडक्ट, इम्प्लॉयमेंट, प्रॉफिट … क्या इस शब्दावली से प्रकृति के इस पवित्र पक्ष की भविष्य में व्याख्या होगी ? क्या एक स्त्री तब आर्थिक रुप से सफल कही जाएगी, जब वो अपने संपूर्ण प्रजनन
काल में हर नौ महीने में एक बच्चे को जन्म दे ? जरा ठहरकर इन सवालों पर और इससे उपजते परिणामों पर भी
चिंतन कर ले। इकोनोमी की शब्दावली से व्यापते(दूषित) होते इस माहौल में फिर इसके
कुछ आशंकित परिणामों पर भी गौर कर लें। कह सकते है कि इसके लॉजिकल एक्सटेंशन पर।
ऐसे में क्या भविष्य में वैज्ञानिक इस अनुसंधान में जुटेंगें कि कैसे नौ महीने की
बजाए कुछ कम महीनों में बच्चे का `उत्पादन` किया जाए या फिर अनुसंधान इस लक्ष्य को ध्यान में रखकर होगा कि एक स्त्री की `उत्पादकता` को कैसे अधिक से अधिक बढ़ाया जाए और क्या `उत्पादकता काल` को और ज्यादा से ज्यादा किए जाने को लेकर कोशिश की
जाएगी ? ऐसी परिस्थितियों में उन भावनाओं, रिश्तों, लगाव-जुड़ाव का हश्र क्या होगा जो इसानी सभ्यता के मूल
में हैं , इसकी कल्पना की जा सकती है।
शाहरुख खान ने
मीडिया को संबोधित अपनी चिट्ठी में कहा कि मेरे बयान के बाद के बाद पूरे मामले पर
मिट्टी डालने की जरुरत है । लेकिन यह मामला न तो उतना सतही है और न ही उतना निजी (
जैसा वो कह-समझ रहे हैं), और अगर यह निजी है तो इस निजीपाने में पुरी समग्रता को
अपने में बहा लेने की कूवत है और सभ्यता की बुनियाद, रिश्तों के ताने-बाने को तबाह
करने का सामर्थ्य भी।
इसे पूंजीवाद की
तार्किक परिणती और उसका चरम ही माना जा सकता है, जिसमें अति-व्यक्तिवाद , और
ज्यादा से ज्यादा लाभ की मनोवृति अनन्य रुप से गुंथी है। सवाल मौजूं है और जवाब
निहायत ही जरुरी कि क्या गर्भधारण के उन आठ महीनों की नैसर्गिकता , पवित्रता और
संसार में इंसान के इस प्रथम परिचय को पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की बलिवेदी पर होम
किया जा सकता है ?
पता नहीं क्यों शाहरुख़ के पीछे पड़े हो, या फिर सेरोगेसी तुमको भाव विह्वल किये दे रहा है. आमिर-किरण राव का बेटा भी सेरोगेसी से ही इस दुनिया में आया. बाज़ार को गलियाने से क्या मिल जा रहा है, पता नहीं। तकनीक है। पैसा है, तमाशा भी है। मीडिया भी खूब उछला। जहाँ तक संवेदनाओं का सवाल है तो इतनी जल्दी नहीं मरने वाली है।
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