सोमवार, 25 जून 2012

कपिल फेल, पामेला पास ...

ये उस जमाने की बात है जब फूफा, मामा, मौसा ,चाचा अंग्रेजी का भूत दिखाकर बच्चों को आतंकित किया करते थे। नाउन और प्रनाउन का डेफिनिशन तो खैर बच्चे रट भी लिया करते , लेकिन कुछ घाघ टाइप के फूफा-मौसा जब `मेरे स्टेशन पहुंचने से पहले गाड़ी खुल चुकी थी` और `गया गया गया` का अंग्रेजी ट्रांसलेशन हलक से निकाल लेने पर उतारु हो जाते तो बच्चों को लगता शोले का गब्बर टीवी से निकलकर सामने जम गया है। 

स्टूडेंट मैं तब अच्छा माना जाता था लेकिन शायद दिमाग में अंग्रेजी लायक यूरिया, पोटाश की फिर भी पर्याप्त कमी थी।... और फिर आखिर मैं भी कितने ट्रांसलेशन रटता, सगे-संबंधी-पड़ोसी अंग्रेजी के नए चक्रव्यूह के साथ हमेशा टपकते रहते। मानो अभिमन्यु बनना नियति थी , और द्रोणाचार्य ने विपक्षी खेमे से सांठ-गांठ कर ली थी। 

इसी जमाने में मैने भी अंग्रेजी सीखने की ठानी । हालांकि कपिल की बॉलिंग में तब वो धार नही थी, और उनकी बैटिंग भी बस धुआं-धुआं टाइप थी। फिर भी रैपिडेक्स के कवर पेज पर हाथों में चमचमाती वर्ल्ड कप उठाए चेहरे से बरसती हैप्पीडेंट मुस्कान पर एक बारगी भरोसा करने का मन कर उठा । अंग्रेजी सीखने की इच्छा मन में खूब कुलांचे मार रही थी, ऐसे में सीमित संसाधनों और समाज-परिवार के प्रतिक्रियावादियों, यथास्थितिवादियों और उपयोगितावादियों से कड़े मुकाबले के बावजूद रैपिडेक्स का आगमन सुनिश्चित किया गया। डाबर और कभी-कभी कड़वे बैद्यनाथ च्यवनप्राश के साथ रैपिडेक्स घोंटता रहा . कितने दिन रैपीडेक्स को तकिया बनाकर रातें गुजारी कह पाना मुश्किल है । 65 दिन न जाने कब पार हो गए , वैसे 650 से कुछ कम दिन नही गुजरे होगें। कपिलदेव पर रहा-सहा भरोसा भी जाता रहा और रैपिडेक्स मेरे छोटे से कमरे के किसी अनजान कोने में गुम हो गया । 

अंग्रेजी मन की नसों में गिरह बन कर रह गयी और जब भी किसी किताब की दुकान के बगल से गुजरता तो अंग्रेजी की मैग्जीनों को देखकर लगता कि गिरह टाइट हो रही है और रक्त-प्रवाह पहले से मंथर होने लगा है। दिन गुजरे-साल बीते ... न जाने इस बीच कहां से टाइम्स ऑफ इंडिया का घर में अवतरण हुआ और फिर इसने मन मोह लिया। ... और फिर कुछ ऐसा हुआ जैसे कि केन्या ने वैस्टइंडीज को भारत में पटखनी दे दी। कपिल पाजी जो नही कर पाए, पामेला एंडरसन ने संभव कर दिखाया। पामेला अकेली नही थी , अंग्रेजी-ज्ञान प्राप्ति के पथ पर निकोल ,ब्रिटनी , मडोना और उसकी दूसरी सखियां भी फूल बिछा रही थी। `अराउंड द वर्ल्ड` अब मेरा पंसदीदा कोना हो गया। सुबह-सबेरे स्टेशन निकल जाता और न्यूजपेपर वेंडर के साथ-साथ मैं भी प्लेटफार्म पर टाइम्स ऑफ इंडिया की बेसब्री से राह देखता। पामेला , निकोल और ब्रिटनी ने सालों बाद अंग्रेजी में मेरी दिलचस्पी फिर से पैदा कर दी। टाइम्स ऑफ इंडिया देखना-पढ़ना अब तो रिचुअल हो गया। धीरे-धीरे ही सही बाकी पन्नों में भी अब मैं ताकाझांकी करने लगा । मैट्रीमोनियल से लोकल, फिर नेशनल इंटरनैशनल... फिर तो टाइम्स ऑफ इंडिया भकोसे बिना काम ही नही चलता। ये कहने में कोई गुरेज नही कि जो भी इंग्लिश जान-समझ-देख पाया हूं उसके पीछे बड़ा योगदान मेरी इन्ही शिक्षिकाओं का है । 

हांलांकि तमाम सामाजिक विरोधों-बाधाओं के बीच भी सिनेमा देखना किशोरपन की `बुरी` आदत रही है , और तर्क-कुतर्क की परवाह बगैर मिथुन और गोविंदा की फिल्में भी बिना किसी भेद-भाव के देख डालता। पर्दे पर जब भी सोनाली , मधु, माधुरी, मनीषा को लटके-झटके लगाते देखता तो अपनी इन शिक्षिकाओं को पर्दे पर देखने की कसक मन को सालती रहती। दलसिंहसराय और पटना के पारिवारिक माहौल से परे जब ग्रेजुएशन के सिलसिले में बनारस पहुंचा तो बरबस ही पोस्टर से झांकती पामेला से साक्षात्कार हुआ। लंका के ठीक पहले पोस्टर से झांकती पामेला गंगा पैलेस की और आमंत्रित करती सी दिखी , मानो उलाहना दे रही थी , गुरु-दक्षिणा मांग रही थी। कैमरुन डियाज और ड्रयू बैरीमोर की `चार्ली की हसीनाएं` और टॉम क्रूज की कोई फिल्म भी कहीं लगी थी , बॉलीवुड का जलवा तो खैर बाकी सिनेमाघरों में कहर ढ़ा ही रहा था , लेकिन पामेला का कर्ज अब भी दिमाग पर तारी था ।... और ठीक अगले ही दिन बाकियों को दरकिनार कर मेरे कदम गंगा पैलेस की ओर खुद-ब-खुद चल उठे ... 

(01Jun2012)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें