रविवार, 24 जून 2012

पति और पुरुष का फरक ... मेट्रो ज्ञान

मेट्रो हमेशा मुझे टाइम्स ऑफ इंडिया के द स्पीकिंग ट्री कॉलम सी लगी है, ज्ञान देती-लुटाती ... सच कहता हूं मेट्रो की भीड़ से मुझे कभी उबक नही हुई , राजीव चौक पर भीड़ के बीच खुद के गुम हो जाने- घसीटे जाने के कई अनुभवों के बावजूद भी ... कारण कि मेट्रो मुझे मशीन कम, महात्मा सरीखी ज्यादा लगी है , समाज के भीतर, समाज से निरपेक्ष , हमेशा कुछ न कुछ सिखाती-दिखाती-सुनाती ... कुछ दिनों पहले पुरुष और पति के बीच के फरक का ज्ञान भी मेट्रो महाराज ने दिया ... `पति होने का सौभाग्य और पुरुष होने का दुर्भाग्य` की उस मेट्रोजन्य परिस्थिति में मेरे लिए फैसला लेना मुश्किल ही हो गया कि कुछ दूर बैठी वो महिला सज्जन है या दुर्जन ... खैर किसी के लिए भी मुश्किल हो जाता, मैं कौन सा तीसमार खां हूं... मेट्रो का दरवाजा दरका , भीड़ बचे-खुचे सीटों की ओर लपकी ... सीट-संग्राम में महिला कामयाब हुई ... पति ने बाकी तड़पती पुरुष आत्माओं की तरह भरी सीटों की तरफ लार टपकती निगाह दौड़ाई और पांव के नीचे जमीन तलाशने में जुट गया ... अब देखिए... महिला ने अपनी सीट अपने पति को दे दी , महिला उठी और ठीक सामने टंगी `महिलाओं के लिए आरक्षित` पट्टी पर नजर मारने लगी ... मानो अक्षरज्ञान के बाद पहली बार शब्दों के इसी समुच्चय से पाला पड़ा हो ... पट्टतालिका के नीचे सीट से सटके अपराधी को हड़काया और न्यायोचित दावा ठोक डाला ... अपराधबोध के साथ भीड़ के बीच एक पुरुष अपने सम्मान को टटोलता-संभालता उठा ... पता नही उसे अपनी पत्नी की जरुरत महसूस हुई या पुरुष होने पर गुस्सा आया ,,, लेकिन वो कुछ बड़बड़ा जरुर रहा था।

(21May2012)

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