सोमवार, 25 जून 2012

जवान होता सिनेमा और `बूढ़ा` होता मैं ..

पता नही जिंदगी के किस पड़ाव पर हूं , हालांकि उम्र का आंकड़ा 28 पारकर 29 में चहलकदमी कर रहा है । उम्र और अवस्था के बीच गुणा-भाग ,जोड़-घटाव को लेकर मैं हमेशा ही सशंकित रहा हूं। बचपन, जवानी, बुढ़ापा की परिभाषा और उम्र के साथ इसके ताल्लुकात को हमेशा हमने शंका की नजरों से ही देखा है। वैसे भी रंगीला बूढ़ा , जुल्मी जवानी , बचपन की नादानी के बीच का फर्क क्या है , कोई बता सकता है तो बताए ? परिभाषाओं की बंदिशों में मेरा कम ही यकीन रहा है , कह सकते है कि न के बराबर । हालांकि होशोहवास के बाद अब तक के सफर में मैने दो ही लतें पाली हैं –चाय और सिनेमा । चाय से पीछा छुड़ाने के मूड में हूं , लेकिन सिनेमा की मत पूछिए कहीं भी होऊं , किसी भी हालात में होऊं , मूड बना देती है भाई साहब। बचपन से `बुढ़ापे` तक न जाने कितनी फिल्में देखी , हिसाब कम ही रखा है ... हां इतना तो है कि जैसे माएं और दादियां कहती है कि फलां अगहन के फलां दिन मोहन जन्मा था और फलां पूस के फलां दिन पहले सोहन पैदा हुआ था , वैसे ही मेरे लिए लाइफ की क्रोनोलॉजी सिनेमा ही आसानी से डिफाइन कर पाती है । मसलन `दिल तो पागल है` जब देखा था तो उस दिन मैट्रिक परीक्षा का आखिरी दिन था और `दीया और तूफान` तब देखा था जब भैया के मैट्रिक परीक्षा का आखिरी दिन था। `खलनायक` और `आंखें` दादा जी की तेरहवीं के अगले दिन देखी थी। `दिलजले` तब देखी थी जब बगल की दीदी शादी के बाद पहली बार मैके आयी थी और जीजा जी परंपरा का निर्वहन करते हुए रिश्ते और मोहल्ले के सभी साले–सालियों को सिनेमा दिखाने ले गए थे। वैसे सच बताउं तो सामाजिकता-पारिवारिकता के वातावरण में फिल्में कम ही देखी है। एक बार जो `मां` फिल्म के दरम्यान मम्मी ने ठेलठाल कर घर चंपत कर दिया तो कसम ही ले ली कि अब पारिवारिक फिल्में भी परिवार वालों के साथ नही ही देखूंगा। वजह थी किसी गाने में तात्कालिक पारिवारिक पैमाने से कुछ ज्यादा ही लटके-झटके छलक रहे थे। फिल्में मेरी कमजोरी रही है ... सच कहता हूं कांति शाह और नसीरुद्दीन साह दोनों को ही एक ही नजर से जाना है , कभी कोई भेदभाव नही बरता ... साथ ही कहता चलूं कि ये वो दिन थे जब दिनेश ठाकुर , रीमा भारती और अज्ञेय को भी एक ही साथ हजम किया। अब सोचता हूं तो लगता है कि वो जवानी के दिन थे। घर पर टीवी था , बिजली हालांकि कभी-कभार ही आती , लेकिन जब भी आती, रंगोली, चित्रहार और फिल्म देखने का कोई भी मौका चूकता नही। हालांकि मन तब खीज जाता जब दादी या पिता जी फिल्म देखने के दरम्यान दृश्यों पर तमाम सवाल खड़े करते । अभी तो धूप था , बारिश कैसे हो गयी ? फिर कपड़े बिना धूप के भी अचानक सूख कैसे गए ?... अभी तो साड़ी पहन रखी थी , कुर्ते मे कैसे दिख रही है ?... सवाल सुन-सुनकर खून उबलने लगता, सर भन्नाने लगता। इन परिस्थितियों में यह सोचकर मन मसोस कर रह जाता कि बढ़ती उम्र असर दिखा रही है, और पोस्टमॉर्टम के पीछे बुजुर्गियत गुल खिला रही है । फिल्म देखने की लत तो खैर अब भी नही छूटी लेकिन अब नजर पहले वाली भी नही रही , भेदभाव करने लगा हूं, कांति शाह तो छोड़िए , मनोज तिवारी और रवि किशन से भी नफरत हो चली है। फिल्म देखते-देखते ही उसकी चीर-फाड़ पर उतारु हो जाता हूं । ऐसे में अब अक्सर ही लगता है मानो जवानी को बुजुर्गियत की हवा लग गयी है । 

(02Jun21012)

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