बुधवार, 27 जून 2012

लोकपाल पर कुश्ती

लोकपाल पर संसदीय ड्रामे में कांग्रेसियों की लचर कोरियोग्राफी से इतना तो साफ है कि उसे `सियासी फराह-सरोज खानों` की सख्त जरुरत है... अंतिम घंटे में बचे-खुचे इंप्रेशन की वाट लग गयी... अव्यवस्था की आउटसोर्सिंग राजद-राजनीति को सुपुर्द कर दी गयी थी, जिनके बिल फाड़ने के अंदाज में तल्खी कम नाटकीयता ज्यादा थी , वहीं टकटकी लगाकर पिछले तीन दिनों से टीवी स्क्रीन पर नजरें जमायी जनता को नारायणसामी की चिल्ल-पौ , पवन बंसल की धारहीन और सभापति की अटकती आवाज और अंदाज के सुपुर्द कर दिया गया था। 

इतने हो-हंगामे और सियासी घमासान के बावजूद यदि लोकपाल अधर में ही लटकी रहेगी तो निश्चित रुप से आने वाला समय आंदोलनों के स्वास्थ्य के लिहाज से ठीक नही होगा... अपने-अपने में सिमटते-सिकुड़ते व्यक्ति और समाज के बीच से अंकुरित ये आंदोलन किसी आश्चर्य से कम नही था... भले ही सप्ताहंत हो या फिर दिन में कुछ चंद घंटे , इंडिया गेट न सही मोहल्ले का चौराहा ही सही , अच्छी खासी तादाद में लोगों ने नितांत नीजि से उपर भी कुछ सोचा-किया, नई पीढ़ी भी अपने कुएं से बाहर ताक-झांक करती दिखी ... इसमें कोई शक नही कि `लोकतंत्र` लोकपाल का भविष्य तय करेगी, लेकिन इसमें भी कोई दो राय नही कि लोकपाल के भविष्य से इस बात को टटोला जा सकेगा कि भारतीय लोकतंत्र का असली चेहरा क्या है ? ... 

सीपीसीबी और दूसरी सक्षम एजेसिंयों को इस बात की जांच करनी चाहिए कि राज्यसभा में `शोर ` कितने डेसीबेल तक पहुंच गया था , जिसकी बुनियाद पर सभापति ने सदन अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दी। अतीत से आंकड़े इकट्ठे करने की जरुरत है कि शोर के इस स्तर पर सदन अतीत में कितनी बार स्थगित किया गया है,.... और वो भी लोकपाल जैसे अहम कानून पर । लगता है शोर हामिद अंसारी साहब के दिलो-दिमाग में ज्यादा था और उनके लगातार अटकने से लगभग साफ ही था कि सियासी कुहासे के बीच रायसीना हिल का रास्ता ढ़ूंढ़ा जा रहा था। 

(30Dec2011)

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