शनिवार, 30 जून 2012

उठापटक

भाईसाहब मन कुलबुला रहा है... जैसे, जब पानी को प्यूरीफाई करने के लिए ब्यॉल किया जाता है न, वैसे ही... पानी खदबद करता रहता है , बुलबुला बनता-फूटता है , बर्तन की तलहटी पर कुछ ठोस जैसा जमा होता है... वैसा ही कुछ मन में भी खदबद हो रहा है। 

मैं जानता हूं कि सच वो नही जो अक्सर मैं मान बैठता हूं , लेकिन बात ऐसी है कि मन और मस्तिष्क के बीच की उठापटक में मन हमेशा बीस ही पड़ता दिखता है । ... 
आजकल सुबह और दोपहर के बीच का फासला कुछ कम सा हो गया है, दोपहर सर पर चढ़ा सा रहता है... बिल्कुल जिंदगी के माफिक... 
दिन और रात दिमाग के भी फेर होते हैं... कभी `शोर` सुकून भी देता है... सब हेरा-फेरी है... 

अक्सर तारों को उलझा हुआ पाकर आश्चर्य होता है- अरे अभी अभी तो ठीक ठाक था, रखे-रखे कैसे उलझ गया। दिमाग के तार भी कुछ ऐसे ही उलझ पड़े हैं। 
घूम-फिर के फिर वहीं आ पहुंचता हूं, जहां से आगे जाने को निकलता हूं... हां इतना तो है कि केंद्र भले ही पिछला वाला रहा हो, परिधि हर अगली बार बड़ी हुई है... 

पता नही क्यूं 
लेकिन अक्सर ऐसा होता है
जब भी
चालें बदलता हूं
पासे पटकता हूं
तब खेल दूसरा शुरु हो जाता हैं
कुछ दूसरा ही ... 

दिल और दिमाग में सौतिया डाह होता है, हमेशा बेवजह लड़ते-झगड़ते रहते है... और लगातार आपसी मार-कुटाई के बावजूद भी अक्सर किसी कन्क्लूजन पर पहुंचते नही दिखते... गजब की इनर्जी है भाई इन दोनों की... आदमी भले ही थक जाए ये नही थकते... नींद और सपने की प्राचीर और परकोटे को भी भेद ही डालते हैं... 
जागती आंखों से हम अक्सर सपना देखते हैं और ये सपनें हमें सोने नही देते... और नींद में हम इन सपनों के एक्सटेंशन में जीते है, उसके विस्तार में... तमाम लाव-लश्कर, भव्यता के साथ और कल्पना की उड़ान भड़ते हुए सपने, विस्तारित सपनें... दुनियावी सीमाएं जहां सपनों की सीमा नही तय करती और संभव-असंभव, सच-झूठ जिसकी परिधि से परे होते हैं... सपनें वास्तविकता की कठोरता को नम करते है और इससे पार पाने की उर्जा देते हैं और फिर नयी वास्तविकता जन्म लेती है और नए सपने भी... 

जब आप अंधेरे भरे अंतहीन से लगने वाले सफर में चाहे-अनचाहे यात्री होते हैं तो पाते हैं कि अंधकार के नख-दंत भी धीरे-धीरे भोथरे हो जाते हैं... उसकी मारक-दाहक क्षमता भी उतनी कंटीली नही रह पाती... गहन अंधकार में हम पहले अपने अगल-बगल की चीजों को टटोलते हैं , अनुमान लगाते है , अपने सुभीते को तलाशते है... सेफ प्लेस ढूंढ़ते है... आहट, पदचाप और तमाम ध्वनियों को लेकर भी हमारी समझ का विस्तार होता है... फिर अंधकार की अदृश्यता भी उतनी नही रहती, चुभन कम हो जाती है... सच में न तो सुख और न ही दुख दोनों ही कभी संपूर्ण और स्थिर होते हैं या रह पाते हैं । 

कभी कभी शून्य आप पर हावी होने लगता है और चुनौती उसे तोड़ने और बदलने की होती है... 
कई बार सिरे से शुरुआत की जरुरत होती है... 

सीढ़ी पर फिसलकर सिर के बल गिर गया, बावजूद इसके कि चोट अच्छी-खासी आई दोस्तों ने कहा चलो इसी बहाने शायद दिमाग `ठिकाने` पर आ जाए... नई मुख-मुद्रा में आशा आश्चर्यभाव जगा रही थी और तर्कों से परे थोड़ी-बहुत उम्मीद भी पैदा कर रही थी... 

(29Apr2012)

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