सोमवार, 25 जून 2012

महानाटकीय अग्निपथ

कहीं पढ़ा था किसी का लिखा कि-- यदि किसी फिल्म के दृश्यों के बैकग्राउंड में बंदूक दिखाई पड़ती रहती हो, तो फिल्म के आखिरी दृश्य तक बंदूक से गोली प्रस्थान करवाकर डायरेक्टर को जरुर अपने दायित्व का निर्वाह करना चाहिए... भाई अग्निपथ के ताजा अवतार को निहारने से पहले पुराने अग्निपथ से रुबरु होने में लगा था, लगे हाथ मैने भी कुछेक हिस्सा देख लिया... लगा मुकुल आनंद साहब ने भी कहीं न कही इन पंक्तियों का पाठ जरुर किया होगा, औऱ फिर इन लाइनों को दिल से लगा डाला होगा... फिल्म के आखिरी में कांचा के कब्जे से मांडवा और मां को बचाने विजय दीनानाथ चौहान सच में अग्निपथ पर दौड़ता-भागता दिखाई देता हैं... कांचा बटन दबाकर बारुद का खेल खेलता है, फिर तो जमीन से लेकर आकाश तक यानि सीन में या तो अमिताभ दिखायी देते हैं या फिर आग... औऱ फिर अमिताभ की आग की लपटों को चुनौती सी देती दौड़... सालों पहले पढ़ा फिर से याद आ गया और नाटक के इस महानाटकीय अंत पर ताली बजाने की इच्छा बिल्कुल भी नही हुई।

(29Jan2012)

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