सोमवार, 25 जून 2012

लोकतांत्रिक थप्पड़

थप्पड़ पर बहस जारी है। लोकतांत्रिक मर्यादाओं के विपरीत होने से लेकर इसे कायरों की कुंठा तक करार देने वालों की कमी नही, भाजपा से लेकर अन्ना के आदमी होने तक के आरोप लगे हैं हरविंदर पर। लेकिन इन तमाम बहसों के बीच आम आदमी को उस थप्पड़ के पीछे का क्रोध परिचित सा लग रहा है, अपना सा लग रहा है। थप्पड़ से असहमति रखने वाले भी इसके पीछे के गुस्से को खारिज नही कर सकते। और फिर अपेक्षा केवल आम आदमी से ही क्यूं रखी जाए, शीर्ष पर बैठे और सॉफिस्टिकेटेड तबके ने कब लोकतंत्र की मर्यादा का प्राणपण से पालन किया है। वैसे भी लोकंतत्र हमेशा शासकों के सुभीते के लिहाज से डिफाइन होती रही है। कमाल की बात ही है कि देश का शासन परिवार के कब्जे में है और उसी परिवार का होनहार लोकतंत्र का पाठ पढ़ा रहा है। विकल्प में ऐसे नेता की चर्चा है जिन्हें कभी उनकी पार्टी के ही शीर्षपुरुष राजधर्म निभाने की अपील कर चके हैं। स्थिति जब विकल्पहीनता की हो ... और फिर उसकी जड़ता तोड़ती विरोध की आवाज भी डिसक्रेडिट किए जाने की साजिश और तमाम सवालिया निशानों के बीच झूल रही हो तो आम आदमी कंफ्यूज्ड होगा ही । ऐसे में आम आदमी से लोकतंत्र के शास्त्रीय मर्यादाओं-मानदंडों के पालन की उम्मीद बेमानी ही है।... वैसे भी लोकतंत्र के चार पायों ने कौन सा आदर्श पेश किया है उसके सामने ? 

ये आम आदमी का थप्पड़ है, आखिर वो करे तो क्या करे...

(24Nov2011)

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