सोमवार, 25 जून 2012

एक अदद कंफर्म टिकट की तलाश

एक अदद कंफर्म टिकट की तलाश और लाइसेंस-कोटा-परमिट राज...

लिबरलाइजेशन, प्राइवेटाइजेशन और ग्लोबलाइजेशन के हो-हल्ले के बीच जब भी दीवाली और छठ के दिन आते हैं तो लाइसेंस-कोटा-परमिट राज की यादें ताजा हो जाती है (बड़े-बूढ़ों के किए चरित्र-चित्रण की मानें तो)। पिछले कुछ दिनों से एक अदद कंफर्म टिकट पाने की जुगत में लगा हूं और व्यक्तिगत स्तर पर तमाम असफलताओं के बीच उम्मीद रह-रह कर सासंद-मीडिया कोटे पर ही जा टिकती है। दीवाली और छठ या दूसरे त्योहार अक्सर भारतीय रेल व्यवस्था या फिर विस्तृत संदर्भों में बात करे तो भारतीय परिवहन व्यवस्था की सीमाओं के सिमटे होने का अहसास कराते हैं। बीते कुछेक दिनों में बाकी की समस्याएं बैकग्राउंड में चली गयी है और एक अदद टिकट की तलाश रातों को नींद और दिन को चैन के लिए तरसने पर मजबूर कर रही है। मांग-आपूर्ति का भारी अंतर सिस्टम को तो भ्रष्ट बनाता ही है, भ्रष्ट सिस्टम को भी खाद-पानी देती है। एक कंफर्म टिकट की तलाश में ऐसे कई मोड़ देखने को मिले जिसमें करप्शन लोगों की मजबूरी बनती दिखी, सही और गलत के बीच का अंतर धुंधलाता दिखा, आम आदमी और `समर्थ आदमी` ( आर्थिक और शारीरिक दोनों ) के बीच के अंतर में अवसर की समानता घुटने टेकती दिखी। इन दिनों तत्काल टिकट काउंटर पर जाइए तो आपको बैचेनी, धूर्तता और कलेजे को ठंडक पहुंचाने वाली संतुष्टि यानि मानव मन के तमाम मनोभावों के दर्शन एक साथ होगें... और हां काउंटर खुलने पर होने वाली अनिवार्य सी जिमनास्टिक भी देखनी मिलेगी- करनी पड़ेगी।... लेकिन समस्याओं का ठीकरा केवल रेल विभाग के मत्थे नही मढ़ा जा सकता है। समस्या गहरी है और इसकी जड़ में काउ बेल्ट यानि बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड की खस्ताहाल अर्थव्यवस्था और बिगड़ी हुई शिक्षण व्यवस्था है। बेहतर भविष्य की आस और तलाश लोगों को पलायन पर मजबूर करती है । दीवाली ,छठ और दूसरे त्योहारों पर भी लोग जब महानगरों के जंजाल और जटिल संसार से दूर अपने घर-परिवार, अपनी जमीन से नही जुड़ पाते तो दिल की कसक और भी कई गुना हो जाती है।...

(24Oct2011)

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