सोमवार, 25 जून 2012

मन की गांठ...

शिक्षक दिवस पर अपने शिक्षकों को याद करने का रस्म भी है और दस्तूर भी।अपनी जिंदगी में हम जहां भी हैं, जो कुछ भी है ... उसकी एक बड़ी वजह नर्सरी में ककहरा और अल्फाबेट पढ़ाने वाले शिक्षक से लेकर डॉक्टरेट तक मार्गदर्शन करने वाले प्रोफेसर भी है। हम हमेशा कुछ न कुछ सीखते रहते है ,अपने शिक्षक से, अभिभावक से, पड़ोसी से, मित्र से, रिश्तेदार से ...और ये प्रक्रिया लगातार चलती रहती है। हमारा मस्तिष्क ज्यादातर हमारा परिवेश निर्धारित करता है। इंटरनेट के जमाने में आज हमारा दायरा बढ़ा है और अब हमारे शिक्षण की प्रक्रिया भी परिवेश की परिधि को लांघती नजर आ रही है। ज्यादा समय नही हुआ है, महज कुछ साल पहले बहुत सारे मामलों में शिक्षक ही बाहरी दुनिया से हमारे संपर्क सूत्र थे। हमारी समझ का दायरा स्कूल और ट्यूशन पढ़ाने के लिए आने वाले शिक्षकों पर काफी कुछ निर्भर था। घरवाले भी अच्छे खासे मामलों में मानो शिक्षकों के कंधे पर ये जिम्मेदारी डालकर बेफिक्र हो जाते । अपने शिक्षकों से औरों की तरह हमें भी बहुत कुछ जानने समझने को मिला लेकिन काफी कुछ ऐसा भी है जो अब भी बचपन की मधुर स्मृति में गांठ के माफिक है।... मुझे आज भी अपने स्कूल सेंट एडवर्डस इंग्लिश स्कूल की याद आती है , जिसका न तो किसी सेंट एडवर्ड से दूर दूर तक कोई ताल्लुकात था और न ही इंग्लिश से कोई रिश्ता नाता। इंग्लिश के नाम पर नीले हाफ पैंट और शर्ट के उपर टाई थी और कुछ किताबें जिसे हम समझने के बजाय रट लिया करते थे। खैर छठी से लेकर दसवीं तक सरकारी स्कूल में अंग्रेजी के नंबर वैसे भी नही जुड़ते थे। इंग्लिश के साथ हमारे रिश्ते में बचपन में लगी गांठ के पूरी तरह खुलने का इंतजार आज भी है।... क्रमश:

(05Sep2011)

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