गुरुवार, 20 सितंबर 2012

आईफोन वाला लुटेरा

“देअर इज ए डिफरेंस बिटवीन परसेप्शन एंड नॉलेज” - राजनीति-विज्ञान की क्लास में एक टीचर को बहुत पहले कहते सुना था ... और कई बार ऐसे मौके आए हैं, जब इसे देखा-पाया हैं। अक्सर हम चीजों को पारिभाषित करते हैं , चीजों को लेकर एक खाका खींचते हैं, एक पैटर्न ढ़ूंढ़ते हैं। विज्ञान इसी की मांग करता है ... आखिर यह जमाना वैज्ञानिक जो ठहरा। वैज्ञानिकता की कबायद इतनी कि समाज का अध्ययन भी विज्ञान के आइने-दायरे में बांधने की हर संभव कोशिश होती है । हालांकि परिभाषाओं में मेरा यकीन कम ही रहा है और गाहे-बेगाहे परिभाषाओं को कई बार टूटता-दरकता भी पाया है। कल भी ऐसा ही कुछ देखा-जाना। आखिर जब एक लुटेरे की कल्पना की जाए तो कैसी आकृति और क्या हाव-भाव देगें हम ?... कल्पना की उड़ान को कुछ देर के लिए खुला छोड़ देते हैं हम । आखिर हमने देवताओं और दानवों को भी तो कल्पित किया है... देवता आभा बिखरते हमारे ख्यालों में पेश आते है और दानव अट्टाहास करते हुए, क्रूरता से परिपूर्ण। दशहरे पर दानव महिषासुर की, साथ ही देवी-देवताओं की प्रतिमाएं और टेलिविजन-फिल्मों में देवता-दानव दोनों के स्वरुप से परिचित हैं हम ... और आधुनिक हालातों में भी विलेन-खलनायको को गब्बर और प्रेम चोपड़ा की शक्लो-सूरत ,चाल-ढ़ाल , रंग-रुप, हाव-भाव ही हाथ आया है।

कल एक लुटेरे को आम ख्यालों-कल्पनाओं के उलट समथिंग डिफरेंट लुक में पाया। प्रीत विहार कम्यूनिटी सेंटर से मेट्रो स्टेशन के रास्ते पर था , रात के करीब दस बजे थे ... अचानक एक रिक्शा रुका, कुछ शब्द उछले । ब्रांडेड कपड़ों से लदे उस शख्स की तेजी देखने लाइक थी , तड़-तड़ाक के साथ रिक्शेवाले को उसने दो थप्पड़ जड़ दिए। मैं भी ठिठक गया , मामले को समझने की कोशिश में। रिक्शा वाला भाड़ा मांग रहा था , और वो लड़का कह रहा था- दे तो दिया , लात खाओगे क्या। बीच-बीच में हाथ-पैर को गतिशील किए रहता , रुकने नही देता । दोनों में से किसी ने पी नही रखी थी। रिक्शे वाला बोल रहा था- मजदूरी करता हूं, इसका मतलब यह नही कि मेरा भाड़ा मार लोगे। फिर मां-बहन की गालियों से नवाजे देने के बाद वो अगल-बगल पत्थर के लिए नजरें फिराने लगा। तब तक गालियां उसे दी जाती रही , अगली बार थप्पड़ लगने पर उसने पत्थर उठा लिया। लेकिन लात-घूंसो और गालियों के बीच पत्थर चलाने की हिम्मत नही जुटा पाया। मन में कहीं अब भी एक डर उस पर हावी था। वो लड़का साथ-साथ यह धमकी भी दिए जा रहा रहा था कि मंडावली में उसका रहना दूभर कर देगा। फिर एक-दो लोगों ने उन दोनों को रोककर मामला जानना चाहा। चूंकि उनके रुकने से लेकर तब तक की गतिविधियां ताबड़तोड़ मेरे सामने ही हुई थी- इसलिए मैनें उस शख्स से कहा – लड़ाई-झगड़े से क्या फायदा , दे दो पैसा । लड़का भारी भरकम, ह्रष्ट-पुष्ट और सभ्य-आधुनिक समाज के सभी उपकरणों से लैस था (एजुकेटेड-सिविलाइज्ड होने के तमाम कल्पित किरण उससे प्रस्फुटित हो रहे थे)। पहले तो उसने बाकियों की परवाह किए बिना अपने पॉकेट से आईफोन निकाला और फिर किसी दोस्त को खुद और बाकियों को साथ में लाने के लिए कहने लगा। अब उस लड़के का जवाब सुनिए- लड़के ने कहा कि उसके पास पंद्रह रुपए थे और उसने दस रिक्शेवाले को दे दिए (मंडावली से गलियों के रास्ते प्रीत विहार मेट्रो स्टेशन का भाड़ा कम से कम बीस-पच्चीस बनता है)। उसकी बातचीत से अब यह साफ झलक रहा था कि उसकी जेब उस समय खाली थी , बावजूद इसके वो रिक्शे पर बैठ गया इस बात से आश्वस्त की वो रिक्शेवाले को मैनेज कर लेगा। ( और शायद यही वजह थी कि मेट्रो स्टेशन से दूर धुंधलके में उसने रिक्शे वाले को रुकने के लिए कहा था)। अब जब लड़के को लगा लोगों की सहानुभूति रिक्शे वाले के साथ जा सकती है- उसने तड़ से एक लात और रिक्शेवाले के पेट पर मारी और रिक्शे को उलटने दिया । अब उसकी आवाज और भी तेज हो गयी , गालियों की गति बढ़ चुकी थी। ऐसे में रिक्शेवाले और बाकी लोगों ने निकल जाने में ही भलाई समझी।

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