गुरुवार, 27 सितंबर 2012

ऑडियो कैसेट तो है न

पर्दे पर करीना कपूर और अर्जुन रामपाल का प्रेम परवान चढ़ रहा था, सीटियां कोने-कोने से कुहक रही थी... और तब एकाएक आवाज गुम हो गयी । सीटियों की आवाज की तीव्रता बढ़ने लगी । पहले तो एकबारगी लोगों को लगा शायद भावनाओं को शब्दों पर वरीयता दी जा रही हो, लेकिन जब यह वाकया बारंबार हुआ तो उछलती-कूदती और परिस्थिति के माकूल मौजूं सी एक टिप्पणी सटाक से कानों में घुस गयी – अरे ऑडियो कैसेट तो है न रे । पर्दे पर आवाज की इस शून्यता को दर्शक अब अपनी आवाज से भरने लगे... मानो उच्च वायुदाबीय क्षेत्र से निम्न वायुदाब की ओर हवा सटासट भाग रही हों। आगे से लेकर पीछे तक के दर्शक तमाम तरह की आवाजों के साथ सिनेमा हॉल और सिनेमा के विविध आयामों के साथ संवाद करने लगे । थिएटर मालिक-कर्मचारी से लेकर डायरेक्टर-कैरेक्टर तक किसी को भी बख्शा नही गया। 

एकबारगी लगा कि कुछ भी नही बदला है , लगा टाइममशीन में बैठा हूं और सुई विपरीत दिशा में घुमा दी गयी हो। सालों पहले और सैकड़ों किलोमीटर दूर दलसिंहसराय और सिनेमा थिएटरों- अम्बे-कुमार-संगम की याद आ गयी। अक्सर जब वहां अचानक दृश्य या आवाज चलते-चलते एक दूसरे से बिछुड़ जाती या फिर दोनों ही साथ-साथ फरार हो जाती तो दर्शकों की उत्तेजना , थिएटर के भीतर का तापमान कुछ ऐसा ही होता। रील घुमाने वाले को गरियाने का मौका नही छोड़ते लोग , लगे हाथ बाकी लोगों की भी जमकर शाब्दिक लानत-मलामत करते । बिजली की लुकाछिपी भी दर्शकों को ऐसे मौके बारंबार देती, फिर जेनरेटर चलाया जाता। बीच का अंतराल दर्शकों का होता। इस चिल्ल-पौं के बीच लोगों की निगाहें बल्ब-पंखे पर टिकी रखती ... वजह कि जेनरेटर ऑन होने पर सबसे पहले बल्ब-पंखों में ही प्राण संचरित होते । माएं-मौसियां अक्सर ऐसे मौकों के लिए बांस वाला पंखा रखती , बिजली गयी नही कि बच्चे पंखा-पंखा चिल्लाने लगते। साथ ही ऐसे मौकों पर जेनरेटर चलाने वाले और मूंगफली-भूंजा बेचने वाले की मिलीभगत और साजिश की गंध भी आती , वजह कि बिजली गयी नही कि मूंगफली , कुल्फी और भूंजा वाले मक्खियों की तरह भीतर टूट पड़ते .. और अक्सर ही बीच का अंतराल कुछ ज्यादा ही लंबा खींच जाता । अच्छा एक बात और उस समय सिनेमाहॉलों के दरबानों की अकड़ भी खूब रहती । अब आप ही सोचिए घर में कोई मेहमान आया हो और सिनेमा जाने की इच्छा जोर मार रही हो तो फिर टिकटों के शर्तिया जुगाड़ में उससे बेहतर कौन हो सकता है भला। ऐसे मौकों पर टिकटों का जुगाड़ अक्सर पारिवारिक-सामाजिक मोहल्ले की समस्या का रुप ले लेती। फिर कई ऐसा भी देखने को मिलता कि टिकट न मिल पाया हो तो तो गेटकी यानि गेटकीपर जान-पहचान वाले को कोई न कोई सीट जुगाड़ कर जरुर दे जाता। 

खैर टिकट यदि मिल भी गयी हो तो आगे की जद्दोजहद कुछ कम नही होती। भीड़-भाड़ ठेला-ठेली के बीच लोग सिनेमा हॉल में घुसते तो अपने-अपने ग्रुप के युवा और जाबांज मेम्बरान सीट के जुगाड़ में जुट जाते । बहुउपयोगी गमछा ऐसे में खूब काम का साबित होता, कम ही बार ऐसा देखा है कि गमछे की सामाजिक मर्यादा का उल्लंघन हुआ हो। बाकी लोगों के आने तक गमछा सीटों पर जमा रहता। यदि भविष्य में कभी रिजर्वेशन के राष्ट्रीय प्रतीक की तलाश हुई तो गमछे की सशक्त उम्मीदवारी पर कम ही लोगों को संदेह होगा। खैर फिर टकराहटों के बीच कंधे एडजस्ट होते और फिर कानों को एडजस्ट करना पड़ता। कम से कम आधे घंटे बाद आवाज और कर्ण-तंतुओं में परस्पर प्रॉपर संवाद स्थापित हो पाता, वरना तो दृश्य देखकर लोग तब तक डायलॉग्स कल्पित और विवेचित करने में अपनी विशेषज्ञता परिलक्षित करते । मुझे कोई शक नही कि ओंठ-चेहरे-शरीर की गतिकी की उनकी समझ डायलॉग्स के अनुमान में कभी मात खा पाती होगी । कभी कभी लगता है कि दूर से अपराधियों की बातचीत को सूंघ लेने के लिए पुलिस-सीआईडी-सेना इनकी सेवा यूटिलाइज कर सकती है ...और वो भी काफी कीमत पर । कई बार आवाजें इतनी कम होती कि लगता सुनने की मशक्कत में कान की नसें खींचकर कहीं टूट न जाए। खैर दिल्ली में अब तक मल्टीप्लेक्सों से ही पाला पड़ा था, टिकटें भी अक्सर ऑनलाइन ही बुक कर लेता हूं, ऐसे में पिछले हफ्ते रीगल गया तो लगा ऐसे में दलसिंहसराय के अम्बे-कुमार की बरबस ही याद आ गयी।

पोस्ट स्क्रिप्ट- एक फिल्म अनाउंसर हुआ करते थे हमारे यहां। रिक्शे पर बैटरी, मशीन और भोंपू से लैस पूरे कस्बे और आस-पड़ोस के इलाके में हॉल में लगी फिल्म और उसके सामाजिक-पारिवारिक पक्षों का जोर-शोर से प्रचार करते। आवाज सुनने पर ही दूर से ही लोग उन्हें पहचान लेते। आवाज चर्चित थी और आदमी भी कस्बे के लिए चिर-परिचित । मार-धाड, सेक्स , हिंसा से भरपूर मनोरंजक पारिवारिक फिल्म का एलान जब वो करते तो उनकी आवाज की परिधि के भीतर के लोग अक्सर ही बाकी चर्चा को विराम देकर फिल्म देखने और न देखने/किसी और फिल्म को देखने के खांचों में बंट जाते। अब जब इतने लोकप्रिय थे ही थे तो शायद यही वजह ठहरी कि एमएलए बनने चुनाव में कूद पड़े , लेकिन लोग ठहरे सेल्फिस, कास्टिस्ट और कम्युनल । इसलिए सामाजिक-पारिवारिक-सामुदायिक-सांस्कृतिक यानि उनके चहुंमुखी योगदान के बावजूद वो चुनावी अखाड़े में पिट गए।कुछेक प्रतिबद्ध लोगों को छोड़कर बाकियों ने ही उन्हें निराश ही किया , शायद सैंकड़े पर ही सिमट गए।

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