शनिवार, 29 सितंबर 2012

समय का रोडरोलर और अनगिन मौतें

पुरातन, नवीन या फिर बीच का कुछ ... चीजें बनती-बिगड़ती है या फिर इस प्रक्रिया में होती है। जो बिगड़ गयी या फिर विलुप्त हो गयी , डार्विन के शब्दों में कहे तो वो नए माहौल में फिट नही हो पायी। लेकिन क्या डार्विन की इस थ्योरी को मूल सत्य मानकर आंखे फेर ली जाए। अब तो आंखो से काफी कुछ ओझल सा हो गया है या फिर होने लगा है। जब भी जाने-अनजाने फिर इन चीजों पर नजर पड़ती है तो लगता है अरे ये भी तो था, अरे ऐसा भी तो होता था। कभी कभी लगता है समग्र कई टुकड़ों में बंटता जा रहा है और अब हर एक टुकड़ा खुद के समग्र होने की कोशिश में जुटा है। एक मित्र ने फेसबुक पर अनंत चतुर्दशी को इवेंट में डाला , लगा न जाने कितने पर्व-त्यौहार काफी पीछे छूट गए हैं। मकसद यहां परंपराओं को ढ़ोने के विचार का नही है । अव्वल तो ये कभी बोझ नही लगा और दूसरी इनकी कमी अक्सर खटकती हैं । इनकी स्मृति अभी के झोलझाल से कुछ ही क्षणों के लिए सही , लेकिन राहत तो देती ही है । सवाल यह है कि क्या इन सारी चीजों को वैज्ञानिकता की शुष्क नजर से ही देखी जाए और हर चीज क्या उपयोगिता के नजरिए की कड़क कसौटी पर कसी जाए... और क्या इन्हें पुरातनपंथी विचार कहकर सिरे से खारिज कर दिया जाए। खैर डेवेलपमेंट-रिफॉर्म-रिवॉल्यूशन की शब्दावली इन बातों पर सोचने के लिए वक्त कहां देती है ... और इनके बहुआयामी जकड़ से बिरले ही होगें जो बच पाएं होंगें।

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