सोमवार, 22 अक्तूबर 2012

पवित्र लीलाओं का पुर्नपाठ जरुरी ...

रामलीलाओं की लीला फिर अपने उफान पर है। अभी दिल्ली में हूं और इन दिनों जिधर से भी गुजरता हूं, पंडाल तना - मंच बना मिलता हैकभी गहराती रात के समय विचरण करें तो अधिकांश पार्क और खुले स्थान अयोध्या, किष्किंधा या फिर लंका में तब्दील मिलेंगें। राम `तुझे देखा तो यह जाना सनम` की बैकग्राउंड पर रोमांटिक उतारु हुए दिख सकते हैं और रावण `नायक नही खलनायक हूं मैं` की तर्ज पर अट्टाहास करते हुए देखा जा सकता है। बुराई पर अच्छाई की विजय अक्सरहां हमारी संस्कृति के मूल में, इन परंपरा-कहानियों में बताई-समझायी जाती रही है... और इसमें कोई बुराई भी नही है। समस्या इस बात की है कि इन लीलाओं में इन मूल्यों के प्रतिनिधि शायद ही वर्तमान परिस्थितियों में अच्छाई और बुराई के नवीन मानदंडों पर ठठ पाए, अग्निपरीक्षा से साबुत निकल पाए। 

बीते दिनों फेसबुक पर एक पिता-पुत्री संवाद खूब चर्चा में रहा प्रसंग अपनी संभावित संतान के सिलसिले में बेटी से एक पिता की बातचीत है। इस बातचीत के क्रम में बेटी रावण जैसा भाई की चाहत बताती है। एकबारगी हास्यास्पद लगने वाली इस चाहत के पीछे के तर्क किसी को भी सोचने को मजबूर करने वाले हैं। छाया जैसी साथ निभाने वाली गर्भवती निर्दोष पत्नी का त्याग करने वाले राम और बहन के अपमान और अंग-भंग के बाद शत्रु की स्त्री को हरण करने के बाद भी स्पर्श न करने वाले रावण के बीच का चुनाव शायद बेटी के लिए ज्यादा मुश्किल भी नही होगा। चौदह साल वनवास और अपहरण की भीषणता के बावजूद सीता की अग्निपरीक्षा आखिर किन मर्यादाओं का सूचक है। ऐसे में मर्यादापुरुषोत्तम का तमगा यूरोपीय यूनियन या फिर ओबामा को शांति के लिए नोबल पुरुस्कार के तुल्य ही मालूम होता है। 

कुछ दिनों पहले नोम चोमस्की का लिखा पढ़ा कि द जेनरल पीपुल डॉन्ट नॉ व्हाट्स हैप्पनिंग, एंड इट डज नॉट एवन नो दैट इट डज नोट नॉ। आजकल वैसे भी आस्था पर कोई भी सवाल लोगों की आंखो और हाथों की खुजलाहट बढ़ाती दिखती है, ऐसे में आस्थाओं-मान्यताओं से जुड़ी धमनियों और शिराओं का शुद्धीकरण तंत्र जो पहले से ही खस्ताहाल था, और भी सिकुड़ता दिख रहा है। जब चरित्र और घटनाएं आस्था की देहरी में सिमट जाते हैं या सिमटने लगते हैं तो पाप-पुण्य की जोड़ी भी एक के साथ एक फ्री की तर्ज पर इससे जुड़ी-गुंथी मिलती है और इन सबसे भी आगे जाकर जब यह पहचान करार दे दिए जाते हैं तो समाज-समुदाय न केवल वैज्ञानिकता-तार्किकता की बलि ले लेता है बल्कि असहिष्णु और अलोकतांत्रिक हो जाता है। बदलते समय को बदमिजाज करार देकर खारिज करने की प्रवृति से परहेज करते हुए आस्था के इन किलों की पवित्रता पर संदेह की जरुरत है, नवीन समतावादी मूल्यों की कसौटी पर इन पवित्र पात्रों-परंपराओं को कसने की जरुरत है। सालों पहले स्टीवन ल्यूक्स के शक्ति के तृतीय आयाम के सिंद्धांत को स्पष्ट करते हुए राजनीति विज्ञान की एक टीचर ने प्रेमचंद के ठाकुर का कुंआ कहानी को उद्धृत किया था। दलितों का कुंआ सूख जाने के बाद की परिस्थिति में बीमार पति के गले को तर करने किए एक दलित औरत रात के सन्नाटे में ठाकुरों के कुंए में बाल्टी डालने की हिम्मत तो जुटाती है, लेकिन पानी नही निकाल पाती । वजह हिम्मत का अभाव नही बल्कि उसके मन में इस सवाल की उत्पत्ति थी कि कहीं उससे कोई पाप तो नही हो रहा ?

पोस्ट स्क्रिप्ट कुछ साल पहले एक पत्रिका में रावण-वध के असर से जुड़ी एक रोचक सामग्री पढ़ने को मिली। ब्राह्मण रावण की क्षत्रिय राम के हाथों मृत्यु के बावजूद जिन ब्राह्मणों ने ब्राह्मणहंता राम की पूजा की, उन्हें तडीपार कर दिया गया ( सरयू के पार) ... और पंडितो की यह वैरायटी सरयूपारीण ब्राह्मण कहलायी। पत्रिका के मुताबिक ब्राह्म्णो के बीच सरयूपारीण को ज्यादा सम्मान से नही देखा जाता, जिसकी वजह ब्राह्मण समाज का अपने समुदाय के इस हिस्से का यहि सदियों पुराना बहिष्कार है। 

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