बुधवार, 24 अक्तूबर 2012

वो बक्सा अब भी किसी कोने में हैं ...

उस बक्से की पेट में काफी कुछ था- स्प्रिंग की गर्दन और रुई की दाढ़ी वाला बूढ़ा जो गाहे-बेगाहे हिलते गर्दन से रह-रह अपनी उपस्थिति का अहसास कराता था, टिन की कमानी और उससे जुड़ी लाल-पीली चिड़ियानुमा आकृति जो कमानी दबाए जाते ही चांय-चांय करती थी, काले शरीर और सफेद चोंच वाली चुटपुटिया बंदूक जिसकी 25 गोलियों का एक पैकेट 25 पैसे में ही मिलता था, जो ट्रिगर की खट-खट के साथ पट-पट का साउंड करती थी, एक कालिया वाला पीपुह जिसे ओठों के बीच दबाते ही नाक के अगल-बगल प्लास्टिक की मूंछ उभर जाती और फूंकने पर पी-पी की आवाज निकलती ... और भी न जाने कितना कुछ।

पर्व-त्यौहार उस बक्से का वसंत होता, उसे नई-नई खुराक मिलती, नए-नए खिलौने पुरानों के बीच जगह बनाते और हमारी हलचलों के चक्रवात के केंद्र में यह बक्सा होता। दो कमरों के किराए के घर में भी उस बक्से की अपनी एक खास जगह थी और स्कूल के बाद की दौड़ इस बक्से वाले कोने पर ही जाकर खत्म होती।

दुर्गा-पूजा इस बक्से के लिहाज से खास था, आखिर दस दिनों तक मेला जो लगता था। एक तो अच्छी-खासी छुट्टियां उस पर से गांव-कस्बा-जिले के हाट-मेलों में जाने का बारंबार मिलने वाला मौका । अष्टमी-नवमीं को गांव जाना होता और मेले का मजा गांव से बेहतर कहीं होता भी नही था। दस पैसे में लोहे के छल्ले से चौकी पर बिखरे सामानों पर निशाना लगाते... चेक-मार्गो साबुन से लेकर सौ रुपए के नोट तक पर, पानी भरी बाल्टी के तल पर रखे गुल के डिब्बे की ओर दूने की उम्मीद में सिक्का तैराते, बंदूक से बैलून पर निशाना लगाते और सर कटे आदमी, चार हाथ-चार पांव वाले अजब-गजब आदमी को देखते। कभी-कभार मौत के कुएं में झांककर बाइक पर स्टंट देखने का आनंद भी मिलता... और फिर रात को जग्गा डाकू वाला नाटक भी देखते। उन दिनों जबकि पॉकेट खर्च चव्वनी के लगभग हुआ करती थी, दुर्गा पूजा- दशहरे पर इस चव्वनी की जगह अठन्नी-रुपए हाथ आते। जनसंख्या की राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय समस्या के विपरीत चाचाओं-फूफाओं-फूआओं-मौसे-मौसियों की अच्छी खासी संख्या हम बच्चों के लिए वरदान हुआ करती। दोपहर से ही हम चाचाओं की दुकानों पर तगादे पर पहुंच जाते और चव्वनी-अठन्नी हाथ में आने के बाद ही विदा लेतें और फिर किसी बुआ से 5 रुपए का नोट मिल जाता तो समझिए की चांदी ही चांदी। उस पर से साथ में अगर घूमने निकले तो झिल्ली-कचड़ी का बोनस अलग से।

इसी मेले में पहली बार जीके यानि सामान्य ज्ञान की एक पतली-दुबली किताब भी ली थी। अब आप ही कहिए जब बेचने वाला लगातार बताए जा रहा हो कि कौन पेड़ इंसानों जैसा दहाड़ मार कर रोता है , किस मछली के दो दिल होते है और किस पेड़ से करंट निकलती है के जवाब इस किताब में है तो ऐसे में कोई भी जिज्ञासु विद्यार्थी क्या करें, सो हमने भी पढ़ाई में अपनी दिलचस्पी का हवाला दे-देकर किताब अपनी मम्मी से खरीदवा कर ही मानी।

खैर बात अब उस बक्से की, जिसकी बात से बात शुरु हुई थी। उस बक्से के साथ अपना रिश्ता काफी पुराना था। कह सकते हैं उस जमाने से जब चमचमाते रग-बिरंगे प्लास्टिक-रेक्सीन के स्कूल बैग कुछ चुनिंदा पीठों पर ही विराजमान होते। बच्चें उन दिनों टीन, अल्यूमीनियम और स्टील के बक्से में किताब-कॉपियां-पेंसिल-कलम और कॉमिक्स स्कूल ले जाते। टिफीन के समय इन बक्सों को गेंदों से मारधाड़ खलते समय अपना ढ़ाल बनाते और बारिश होने पर छाते की तरह इससे सर ढ़ांपते। उस पर न जाने कितनी कीलें ठुक चुकी थी, टिन के पत्तर के दो-तीन पैबंद भी उस पर उग आए थे लेकिन छठी क्लास तक हमारा और उस बक्से का साथ रहा।

खैर स्कूल बैग के साथ कड़ी टक्कड़ में ये बक्सें आउटडेटेड करार दिये गए, लेकिन इस बक्से ने हार नही मानी। उसके जीवट की दाद देनी होगी , नई परिस्थितियों में भी उसने अपने लिए जगह बना ली है। अब उस बक्से में दुकान के पुराने पुरजें पड़े रहते हैं और अब भी एक कोने में पड़ा है, शायद दुर्गा-पूजा की याद उसे भी आ रही होगी मेरी तरह ही। 

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