दुर्गा-पूजा की
दशमी के दिन चाहे-अनचाहे सिनेमाघर जाता रहा हूं , कम ही बार हुआ है कि नही गया
होउंगा। अव्वल तो हमारे यहां पर्व-त्योहारों पर नयी-नयी फिल्में सिनेमाघरों में
लगती थी और दूसरी बात यह कि सिनेमा हमारे परिवार में बीमारी जैसी मानी जाती थी।
लोग सिगरेट, शराब के बाद व्यसन की श्रेणी में अगला नाम सिनेमा का ही लेते थे। ऐसे
में दुर्गा-पूजा और छठ ही कुछ ऐसे गिने-चुने मौके थे जब सिनेमा के मसले पर
थोड़ी-बहुत ढ़ील मिल जाती थी। दूसरी वजह यह भी कि परिवार में अधिकांश लोगों की दुकान
होने की वजह से कम ही ऐसे मौके आते थे जब सिनेमा के लिए लोगों को फुर्सत मिल पाती
थी। सातों दिन सुबह से रात दुकान पर बैठने और सिनेमा और वो भी रात का शो ,जो किसी
टैबु की ही तरह ही था इन मौकों को काफी खास बना देता था। कह सकते है यह वो जमाना
था जब सिनेमा किसी उत्सव की तरह था औऱ एक शो का टिकट न मिलने पर तीन घंटे रुककर
अगले शो की टिकट के लिए लाइन में लगने से भी लोगों को परहेज नही था। चूंकि इन
मौकों पर अगल-बगल के गांवों से लोग मूर्तियां देखने, समोसा-चाट खाने और फिर सिनेमा
देखने के त्रिआयामी लक्ष्य के साथ भी जुटते तो फिर ठेलमठाल भी गजब भी होती।
दुर्गा पूजा पर
कई फिल्में देखी- अभिषेक-करीना की रिफ्यूजी से लेकर मिथुन की देवता तक। भीड़ इतनी
कि एक-दो बार डीसी का टिकट लेकर बेंच पर बैठना पड़ा और न तो पीठ-पीठ का अंतर रहा
और न पसीने-पसीने का। ककड़ी पर छिड़का नमक घुलकर बगल वाले के पनियाबरफ से टपकते
रंगीन तरल के साथ घुल जाने वाली स्थिति कह सकते हैं आप।
प्रकाश झा की
चक्रव्यूह फ्रायडे अवतरण के सिनेमाई संस्कार के उलट दशमी के दिन रीलिज हो रही थी
तो सोचा चलो परंपरा भी निभाता ही चलूं। बतरा पहुंचा तो पाया कि चक्रव्यूह का
पोस्टर चिपका होने के बावजूद स्टूडेंट ऑफ द ईयर ही पर्दे को प्राणवान कर रही थी।
टाइमिंग ऐसी कि कहीं दूसरी जगह जाने का स्कोप भी नही था। सोचा करण जोहर के
डायरेक्शन में सालों बाद कोई फिलम आयी है , ठीक ठाक ही होगी। हालांकि फिल्म उनके
पुराने फिल्मों की सस्ती नकल निकली। एक ऐसा स्कूल जिसमें पढ़ने के अलावा सारे कर्म
और कांड होते हैं , एक ऐसा बाप जो अपने बेटे की पराजय की संभावना पर जहरीली
मुस्कान बिखेरता है और एक ऐसी मां जो अपनी बेटी को अपने सहपाठी को रिझाने के लिए
पुश-अप ब्रा से लैस करने की मानसिकता रखती है । ... औऱ सबसे अव्वल तो स्टूडेंट ऑफ
द ईयर की ट्रॉफी जो पढ़ाई पर कम और ट्राइथॉलोन की कसौटी पर फिट होने की ज्यादा
डिमांड रखती है मानो इवी लीग यूनिवर्सिटी में जगह पाने की बजाय ओलंपिंक के लिए
क्लाविफाइंग मुकाबला हो।
हालांकि सालों बाद
काजोल को पर्दे पर देखना सुखद था , भले ही सीन कुछ सेकंड का हो ,और एक बात और, `कुछ-कुछ होता है` में शाहरुख की बेटी अंजली इस फिल्म में बतौर सहायक हीरोईन एपीयर
हुई है। वैसे डीन के रुप में रिषी कपूर भी डफली बजाते हुए देखे जा सकते हैं - वैसे
इस बार उनकी डफली के निशाने पर मदमाती जया प्रदा की जगह माचोमैन रोनित रॉय हैं।
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